ग्रीन हंट की शक्ल में जनता पर जंग छेड़ने की विधिवत घोषणा के एक साल बाद केन्द्र सरकार ने आदिवासी बहुल इलाकों में सेना का आधार शिविर और प्रशिक्षण केन्द्र खोलने की घोषणा कर दी है। भारतीय सेना के अनुसार एक प्रशिक्षिण केन्द्र उड़िसा के रायगड़ा जिले मंें और दूसरा बस्तर के अबूझमाड़ क्षेत्रा में खोला जाएगा। ये प्रशिक्षिण शिविर मिजोरम स्थित जंगल युद्ध प्रशिक्षण स्कूल की तर्ज पर बनाए जाएगें। सेना के प्रशिक्षण केन्द्र स्थापित करने की घोषणा वाचाल गृहमंत्राी मिस्टर चिदम्बरम ने नहीं की, अपितु यह घोषणा उसने अपने सिपहसालारों के जरिए करवाई है। मध्य भारत सेे अन्य देश की सीमा नहीं मिलती। इस इलाके पर किसी प्रत्यक्ष विदेशी हमले की सम्भावना भी नहीं है। फिर विदेशी हमलावरों से लड़ने के लिए निर्मित सेना का प्रशिक्षण स्थल यहां बनाने की जरूरत क्यों पड़ रही है। जाहिर है मध्य भारत मेें बनाए जा रहे सेना के इन ‘प्रशिक्षण केन्द्रों’ का मकसद प्रशिक्षण देना नहीं है बल्कि कुछ ओर है। इनका निर्माण विशेष मकसद के लिए किया जा रहा है।
पिछले छः सालों से ‘नक्सलवाद आन्तरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा है’ की रट लगाने वाली केन्द्र सरकार का मकसद इस कैम्प स्थापना के जरिए जनता की जल, जंगल, जमीन और प्राकृतिक सम्पदा पर हक कायम करने की लड़ाई को कुचलने के अलावा और क्या हो सकता है। हालांकि चिदम्बरम के सिपहसालारों ने सेना को माओवादीयों के खिलाफ प्रयोग किए जाने की सम्भावनाओं से इन्कार किया है। परन्तु इस क्षेत्रा में सेना की इतने बड़े पैमाने पर तैनाती का और क्या औचित्य है।
‘संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन’ ने 2009 में अपनी दूसरी पारी की शुरूआत करते ही आपरेशन ग्रीन हंट की घोषणा करके जनता पर जंग छेडने का ऐलान किया था। केन्द्र सरकार की अगुआई में छत्तीसगढ़, झारखण्ड़, आंध्र प्रदेश, उड़िसा सहित सभी राज्य सरकारों ने भी जनता पर छेड़े गए इस युद्ध में जोर शोर से भाग लिया। उपरोक्त राज्यों मे 2 लाखसे अधिक पुलिस व अर्धसैन्य बलों की तैनाती की गई। इस आपरेशन के संचालन की कमान सेना को सौंपी गई जिसके लिए सेना के ब्रिगेडियर रैंक के अधिकारियों की नियुक्ति गृहमंत्रालय में की गई थी। इस आपरेशन में तैनात फौजियों को सेना द्वारा संचालित मिजोरम के गुरिल्ला वारफेयर स्कूल में प्रशिक्षित किया गया था। छत्तीसगढ़ के कांकेर जिले में स्थापित जंगल वारफेयर स्कूल में भी सेना के अधिकारी ही प्रशिक्षण दे रहे हैं।
सेना के नेतृत्व में जारी आपरेशन ग्रीन हंट अभियान में छत्तीसगढ़़, झारखण्ड़, पश्चिम बंगाल और उड़िसा की जनता खासतौर पर आदिवासीयों पर किए गए अत्याचार से सब वाकिफ हैं। ऑपरेशन ग्रीन हण्ट के नाम पर उतारे गये अर्द्ध-सैनिक बलों मंे सीआरपीएफ, कोबरा, ग्रे-हाउण्ड, बीएसएफ, आईटीबीपी, सी-60, सीआईएसएफ एवं एसपीओ शामिल हैं। इन बलों ने पिछले डेढ़ साल में छत्तीसगढ़ में सैंकड़ों लोगों की हत्या की। इन्होंने गुमपड़ा में बारह, पलाचेलमा में बारह, ताकिलोड़ में सात और ओंगनर में पांच लोगांे की बर्बर तरीके से हत्या की। हाल ही में 11 मार्च को दंातेवाड़ा जिले के मोरापल्ली गांव में हथियारबंद बलों ने 35 घरों में आग लगा दी। 16 मार्च को ताड़िमेटला गांव में 207 घरों में लूटपाट की और खाने पीने का समान नष्ट कर दिया। उन्होेंने वहां पांच महिलाओं से बलात्कार किया और मारवी जोगी नामक महिला का बलात्कार करने के बाद चाकुओं से गोद दिया और क्रूरतापूर्वक उसकी हत्या कर दी। सरकारी गुंडागर्दी के कारण आदिवासीयों को लाखों की संख्या में आंध्र प्रदेश के इलाकों में पलायन के लिए मजबूर हो गए। गैरकानूनी सलवाजुडूम के अपराधी वहां भी आदिवासीयों पर जुल्म बरपा रहे हैं। किसी भी जनवादी अधिकार संगठन या व्यक्ति को इन अपराधों की जांच के लिए बस्तर में जाने की इजाजत नहीं दी जाती। टाईम्स आफ इंडिया के पत्राकार तक को इन घटनाओं की रिपोर्टिंग करने से रोका गया। कुछ बुद्धिजीवियों ने वहां जाने की कोशिश की तो सरकारी गुंडावाहिनी सलवा जुडूम के एसपीओ और नवनिर्मित मां दंतेश्वरी स्वाभिमान मंच के भाड़े के टटटुओं ने उन पर हमला कर दिया और उनके साथ बदतमीजी की। इन घटनाओं की जांच के लिए दंतेवाडा जाने वाले नंदिनी सुन्दर और उज्जवल सिंह को तो रात में ही जान बचा कर वहां से भागना पड़ा। हाल ही में तो राहत सामग्री लेकर जाने वाले सरकारी प्रशासनिक दल पर भी एसपीओ व पुलिस ने हमला किया।
उड़िसा के नारायणपटनम् में आदिवासीयों की जमीनें ठेकेदारों और जमींदारों से छुड़वाने के आन्दोलन को कुचलने के लिए अर्धसैन्य बलों का बेहताशा प्रयोग किया जा रहा है। इस आन्दोलन का नेतृृत्व करने वाली चासी मुलैया समिति के अध्यक्ष सिंघ्घना सहित कई लोगों को सीआरपीएफ ने गोलीयों से भून दिया। ये लोग आदिवासी इलाके में
अर्धसैन्य बलों द्वारा ढ़ाए जा रहे अत्याचारों के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे थे। इस आन्दोलन के अनेक नेता और कार्यकर्ता को देशद्रोह और गैरकानूनी गतिविधि निरोधक कानून के केसों में सलाखों के पीछे बंद हैं। इन बन्दियों से मिलने की इजाजत भी सरकार नहीं दे रही है। अदालत में उनकी पैरवी करने वाले वकीलों को भी झूठे केसो में फंसाने के प्रयास उड़िसा सरकार कर रही है। कई पत्राकारों पर भी देशद्रोह के केस बनाए गए हैं। जनवरी 2011 में विस्थापन के खिलाफ और जंगल-जंगलात के अधिकार के लिए लड़ रहे बीस से ज्यादा लोगों की झूठी मुठभेड़ों में हत्या कर दी। ये लोग काशीपुर सहित नियमगिरी, गंधमर्दन, सुन्दरगढ, कलिंगनगर आदि इलाकों में विस्थापन विरोधी आन्दोलन में सक्रिय थे। दक्षिण और पश्चिम उड़िसा के आदिवासी सरकारी आतंक के साये में जीने को मजबूर हैं। उड़िसा में भी नारायणपट््टना आन्दोलन की जांच के लिए जा रही महिला टीम को रास्ते में ही रोका दिया गया और सरकार द्वारा गठित शांति सेना के गुंड़ो ने टीम की पिटाई की।
झारखंड में भी हजारों की संख्या में हथियारबंद बलों को तैनात किया गया है। वहां भी कई लोगों की झूठी मुठभेड़ में हत्या की गई। लातेहर में जसमींता को अर्धसैन्य बलों ने गोली मार दी और इसका आरोप माओवादी छापामारों पर लगा दिया। स्थानीय जनता के कड़े विरोध के बाद ही सरकार ने इस घटना की जिम्मेवारी ली। खरासवां और लातेहर में ही आम लोगों पर ढ़ाए गए अत्याचारों की 30 से अधिक घटनाएं प्रकाश में आई हैं। इसमंे जनता पर झूठे केस दर्ज करने, गैरकानूनी ढ़ंग से थर्ड़ डिगरी की यातनाएं देने, गांव-घर में आग लगाने, आस-पास के जंगलों को जलाने के साथ साथ शादियों में दखलंदाजी करने की घटनाएं शामिल हैं। सलवार कमीज पहने वाली महिलाओं तक को जेल में ड़ाला गया। सैन्य बलों के जोर-जुल्म के खिलाफत करने वाले उत्पल और जेवियर को गम्भीर केसों में फंसा कर जेल भेज दिया गया। हाल ही में पूर्वी सिंहभूम में 50 से अधिक घरों को पुलिस ने जला दिया। खासतौर पर लातेहर, पलामू, सरायकेला खरसावां, खूंटी, धनबाद, बोकारों, गिरीड़िह, पूर्वी सिंहभूम और पश्चिम सिंहभूम की जनता राजकीय बलों के अत्याचारों की शिकार है। सैन्य बलों के अलावा सरकार टीपीसी, जेएलटी, जेपीसी जैसे गुंड़ा गिरोहों का प्रयोग जुझारू जनता और उसके नेतृत्व को खत्म करने के लिए कर रही है।
पश्चिम बंगाल में शासक वर्गीय पार्टी सीपीएम की गुंड़ागर्दी जारी है। जंगलमहाल में सैन्य बल और सीपीएम कार्यकर्ता महिलाओं के साथ बलात्कार कर रहे हैं। निताई में तो सीपीएम के हथियारबंद शिविर को बन्द करने की मांग कर रहे लोगों पर सीपीएम की हरमद वाहिनी ने गोलियां चला दी, जिसमें आठ से अधिक लोग मारे गए। लालगढ़ इलाके में सीपीएम के 50 से अधिक हथियारबंद शिविर गैरकानूनी तौर पर चलाए जा रहे हैं। इन कैम्पों में सीपीएम के 1600 से अधिक गुंडे हैं जो रोजाना आम जनता पर अत्याचार करते हैं। ये गंुड़े छत्तीसगढ़ के एसपीओ जैसी भूमिका अदा करते हैं। पश्चिम बंगाल में संयुक्त वाहिनी, सीपीएम की हरमद और गणप्रतिरोध कमिटी ;जीपीसीद्ध ने सैकडों लोगों की बर्बरतापूर्ण ढंग से हत्या की है। पुलिस आतंक विरोधी जनसाधारण कमेटी के नेतृत्वकारी सदस्यों लाल मोहन टुडू, उमाकांत एवं सिद्धू सोरेन को अधर््ासैन्य बलों ने झूठी मुठभेड़ में मार दिया तथा सैंकडों लोगों को संगीन धाराओं में सलाखों में बंद कर रखा है। जनता द्वारा निर्मित वैक्लपिक हस्पताल व्यवस्था तक को सरकारी बलों ने बंद करवा दिया। आन्दोलन का जायजा लेने गए पत्राकारों, शिक्षाविदों और वैज्ञानिकों तक को पकड़ कर जेल में ठूंस दिया। वहां पूरे इलाके में धारा 144 लगाकर जनता के जनवादी अधिकारों का हनन कर रही है। पश्चिम बंगाल की सीपीएम नीत सरकार लालगढ़ इलाके में किसी भी जांच दल को जाने नहीं देती। अखिल भारतीय जांच दल को लालगढ़ के रास्ते में ही रोक दिया तथा दल के सदस्यों को कई घंटे गैरकानूनी ढंग से हिरासत में रखा। बाद में टीम के कुछ सदस्यों पर बंगाल पुलिस ने यूएपीए लगा दिया जो अभी तक जेल में हैं। आन्दोलन को बदनाम करने की साजिश के तहत सीपीएम ने ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस कांड की साजिश रची। जिसमें सैंकडों लोगों को मारकर आन्दोलनकारियों को बदनाम करने की कोशिश की।
बिहार में नीतिश नीत सरकार ने पुनः सत्ता पर काबिज होते ही जुझारू जनता पर दमन तेज कर दिया। गया में दो ग्रामीणों की गोली मार कर हत्या कर दी। बिहार सरकार आंध्र प्रदेश की तर्ज पर कवर्ट आपरेशन के जरिए क्रान्तिकारी आन्दोलन के नेतृत्व को खत्म करने की नीति अपना रही है। मुंगेर में पुलिस ने कवर्ट आपरेशन के जरिए सीपीआई माओवादी के एक छापामार दस्ते को जहर देकर बेहोश कर दिया और बेहोशी की हालत में ही उन्हें गोलियों से छलनी कर मुठभेड़ मंे नौ माओवादियों को मार गिराने का दावा कर दिया। बिहार में झूठी मुठभेड़ का यह नया तरीका प्रयोग किया जा रहा है।
जनता की जल जंगल जमीन पर हक कायम करने की लडाई का नेतृत्व करने वाले माओवादी नेताओं की टारगेट किलिंग की जा रही है व बड़ी संख्या में उन्हें गिरफ्तार किया जा रहा है। आजाद और पत्राकार हेम की हत्या ऐसी ही साजिश के तहत की गई। सरकार ने माओवादियों के समक्ष युद्धविराम की पेशकश कर बातचीत द्वारा जनता की समस्याओं का हल निकालने का प्रस्ताव रखा। इस प्रस्ताव पर सीपीआई-माओवादी के प्रवक्ता आजाद ने सकारात्मक रूख दिखाया। इस बीच गृहमंत्राी चिदम्बरम ने स्वामी अग्निवेश को अपना दूत बनाकर बातचीत का प्रस्ताव पत्रा के जरिए भेजा। दरअसल यह बातचीत का प्रस्ताव न होकर जासूसी पत्रा था, जिसका मकसद आजाद के आवाजाही का पता लगाना था। इसके जरिए राज्य ने आजाद तक पहुंच कर उसकी नृशंस तरीके से हत्या कर दी और सबूत मिटाने के लिए पत्राकार हेम पांडे को भी मार दिया।
आपरेशन ग्रीन हंट जुझारू जनता और उसके नेतृत्व पर चौतरफा हमला है। सरकार जंग के सभी दावपेंच का इस्तेमाल कर रही है। एक तरफ जुझारू जनता पर जुल्म ढ़हा रही है तथा उसके नेतृत्व को खत्म करने पर तुली है। दूसरे, संघर्ष के इलाके में आर्थिक नाकेबंदी कर जनता की जिन्दगी नरक कर रही है। आदिवासी क्षेत्रों में लेनदेन के मुख्य केन्द्र हाट बाजारों पर अनेक प्रकार की बंदिश लगाई गई हैं। तीसरें, जनता पर मनोवैज्ञानिक युद्ध छेड़े हुए है। सरकार की आतंक फैलाने की नीति को जायज ठहराने के लिए राज्य के भाड़े के बुद्धिजीवी और कारपोरेट मीड़िया जनता के लड़ाकू संघर्ष को आतंकी घोषित करने की पुरजोर कोशिश में लगे हैं। वे सैन्य बलों द्वारा जनता पर ढ़ाए जा रहे जुल्मों को जायज ठहरा रहे हैं। चौथे, सरकार सुधारवादी कार्य करने के बहाने ठेकेदारों का नया वर्ग पैदा कर रही है और उन्हें भ्रष्ट बनाकर मुखबिरों में तब्दील करने की कोशिश कर रही है। गांव गांव में ग्रामसेवक आदि बनाकर मुखबिरों की जमात खड़ी की जा रही है। खुफिया विभाग को मजबूत करने के लिए सरकार इजराइल की मोसाद और स्काटलैंड यार्ड जैसी बाहरी एजेंसियों से प्रशिक्षण ले रही है। पांचवें, नियमित बलों के अलावा गैरकानूनी तरीके से स्थानीय लम्पट और गुंडों के गिरोह खड़े कर रहा है। अलग अलग राज्य में इन गिरोहों के विभिन्न नाम है। छत्तीसगढ में सलवाजुडूम व मां दंतेश्वरी स्वाभिमान मंच, झारखण्ड में नागरिक सुरक्षा समिति व ग्राम सुरक्षा दल, पश्चिम बंगाल में सीपीएम की हरमद वाहिनी व जीपीसी, उड़िसा में शांति सेना, गढ़चिरौली में शांति सेना आदि। इन गुंडा गिरोह के अलावा पहले से मौजूद जेएलटी जैसे गुंड़ा गिरोहों को और सीपीआई-माओवादी से भगौड़े और रंगदारी वसूलने वाले टीपीसी, जेपीसी जैसे गिरोहों को भी सरकार क्रान्तिकारी आन्दोलन और जुझारू जनता के खिलाफ प्रयोग कर रही है। छठे, सरकार इस युद्ध में अत्याध्ुानिक तकनीक का प्रयोग कर रही है। इसमें खुफियागिरी करने वाले ड्रोन, आदमी रहित विमान, हैलिकाप्टर आदि प्रमुख हैं। अमरीका और इजराइल से नए हथियार खरीदने की तैयारी भी की जा रही है। 2009 में चिदम्बरम ने इजराइल को 10,147 तेवोर गन खरीदने की अनुमति दे दी थी जोकि इन्सास, एसएलआर और एके47 की जगह दी जाएगी। सातवां, राजसत्ता आन्दोलनकारियों के नेतृत्व को खत्म करने के लिए कवर्ट आपरेशन चला रहा हैं। क्रान्तिकारी कतारों में सरकार कवर्ट भर्ती कर नेतृत्व को मरवाने की साजिश कर रही है। आठवां, विभिन्न सरकारें जनता की साजिशन हत्या करवाकर उसका दोष माओवादीयों या स्थानीय आन्दोलनों पर मड़ रही हैं। लातेहर, गया, लालगढ़, छत्तीसगढ़ आदि में ये तरीके अपनाए गए हैं। ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस कांड़ इसका विभत्स उदाहरण है। यह सरकार द्वारा जनांदोलनों पर छेडे़ गए जंग का ही हिस्सा है जिसे मनोवैज्ञानिक युद्ध कहते हैं।
इस चौतरफा हमले के बावजूद जनता जल जंगल जमीन पर अधिकार को कायम करने के लिए निरन्तर लड़ रही है सौ दिन में जनता के जुझारू आन्दोलन को खत्म कर देने का दावा करने वाले गृहमंत्राी चिदम्बरम ने अब घोषणा की है कि इस जंग को जीतने में सरकार को पांच साल का समय लगेगा। इलाका दर इलाके से जनता के नेतृत्व को खदेड़ने की योजना भी नाकामयाबी की सूली पर लटक रही है। इतने अत्याचार के बावजूद सरकार द्वारा चिन्हित इलाकों में आन्दोलन न केवल बदस्तूर जारी है बल्कि गहरा रहा है और विस्तारित हो रहा है। लालगढ़ और नारायणपट््टना का जनान्दोलन निरन्तर तेज हो रहा है। तमाम सरकारी कोशिशों के बावजूद अधिकतर इकरारनामों को सरकार अमल में लाने में विफल रही है। विभिन्न क्षेत्रों में जनता की ‘जनताना सरकारें’ विस्तारित होती जा रही हैं।
आज माओवाद एक पार्टी के नेतृत्व में लड़े जाने वाले आन्दोलन का नाम न रहकर लड़ाकू व समझौताविहीन संघर्ष के प्रतीक के रूप में प्रख्यात हो गया है। जनता के हर जुझारू संघर्ष को माओवाद से जोड़कर देखे जाने की परिपाटी चल पड़ी है। जिस आन्दोलन को सरकार कारपोरेट मिडिया के जरिए आतंकी आन्दोलन के रूप में बदनाम करने की चाह रखती थी वही आज जनता के हर जुझारू आन्दोलन की पहचान बन गया है। इसलिए सरकार का पासा उलटा पड़ा। लड़ाकू जनता और नेतृत्व ने राज्य द्वारा ढहाए जा रहे जुल्मों का भी मुंहतोड जवाब दिया है व सरकार की चाल को पीछे की ओर धकेल दिया है।
जनता के तीव्र विरोध और विभिन्न बुद्धिजीवीयों द्वारा सरकार को जनपक्षीय होने की हिदायत देने के बावजूद आज तक एक भी इकरारनामें को सरकार ने निरस्त नहीं किया। जनता की बुनियादी जरूरतें पूरी करने के लिए कोई विशेष कदम सरकार की ओर से नहीं उठाया गया है। कारपोरेट हित में जनता पर छेड़े गए युद्ध को वापस लेने व अर्धसैनिक बलों को हटाने की बजाए सरकार ने इन इलाको में सेना उतारने की योजना पर अमल करना शुरू कर दिया है।
इसी कदम के बतौर उड़िसा और छत्तीसगढ़ में प्रशिक्षण शिविर बनाने के नाम पर सेना का आधार कैम्प बना रही है। इससे पूर्व बिलासपुर में सेना की सबकमांड़ बनाई गई जो सेना की केन्द्रीय कमांड़ के मातहत है। सेना को जनता के खिलाफ सीधे उतारने के लिए ही सरकार ‘प्रशिक्षण शिविर’ के नाम पर ‘सैन्य बेस कैम्प’ बना रही है। ‘द हिन्दू’ में अमन सेठी की रिपोर्ट के मुताबिक इस शिविर के लिए सेना ने अबुझमाड़ के 600 वर्ग किलोमीटर के इलाके की निशानदेही की है। गौरतलब है कि अबूझमाड़ इलाके का कुल क्षेत्राफल 4000 वर्ग किलोमीटर है। अगर इसमें से 600 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्रा में सेना का प्रशिक्षण शिविर बनाया जाएगा तो निसंदेह उस इलाके के न केवल जंगल काटे जाएंगें वरन वहां रहने वाली जनता को भी उजाड़ा जाएगा। जनता को उजाड़ने के लिए ताकत और सैन्य बलों का प्रयोग लाजिमी तौर पर किया जाएगा। अनुमान लगाया जा सकता है कि ये शिविर स्थापित करने के क्रम में ही सेना जनता पर हमला करेगी और जमीन अधिग्रहण की आड़ में सैन्य अभियान चलाएगी। 23 मार्च 2011 के जनसत्ता में छपी खबर से सरकार की मंशा साफ जाहिर होती है। सेना के अधिकारीयों द्वारा दिए गए बयान में कहा गया है कि ‘यह जरूरी नहीं कि पहले हमले करने का इन्तजार किया जाए। इसलिए वह पहले हमला करने की आजादी भी चाहती है।’ कांकेर के प्रशिक्षक ब्रिगेडियर पंवार ने तो साफ तौर पर कहा है कि ‘माओवादीयों को यह बताना है कि सावधान! शेर तुम्हारे घर के दरवाजे पर है।’ केन्द्र सरकार ने मध्य भारत को अघोषित तौर पर विदेशी क्षेत्रा मान लिया है। सेना ने इस क्षेत्रा में शिविर स्थापना से पहले ‘लड़ाई के नियम’ घोषित करने की मांग की है। सरकार ने ‘लड़ाई के नियमों’ पर शब्दों की चाशनी लगाकर इन्हें ‘शिक्षण प्रशिक्षण के नियम’ नाम दिया है। इससे साफ जाहिर है कि प्रशिक्षण शिविर स्थापित करना तो बहाना मात्रा है। असल नीयत उस इलाके में दहशत फैलाकर जनान्दोलन को कुचलना है। सरकार किसी भी कीमत पर बस्तर के इलाके को आदिवासी विहीन कर कारपोरेट घरानों को देना चाहती है। इसी मकसद के लिए सलवा जुडूम के तहत 650 से अधिक गांवों को जनविहिन किया गया था तथा जनता को शिविरों में बन्दी की तरह रहने के लिए मजबूर किया गया था। जब जनता के तीव्र विरोध के कारण सरकार की नापाक कोशिशें नाकाम हो गई तो सरकार ने अब इस इलाके को सेना के जरिए जनविहिन बनाने की तैयारी कर ली है। इसलिए उसे 600 वर्ग किलोमीटर का विशाल इलाका आवंटित किया है। देश की जनता के खिलाफ सेना की तैनाती देश को गृहयुद्ध की तरफ धकेल देगी।
सेना की यह तैनाती बड़े पैमाने पर जनसंहार को अंजाम देगी। उत्तर पूर्व और कश्मीर में सेना द्वारा जनता पर ढ़ाए गए जुल्मों के बारे में सभी जानते हैं। सेना की अंग असम राईफल व राष्ट्रीय राइफल ने वहां लाखों लोगों को मौत के घाट उतार दिया है। असम राइफलस के कैम्प के बाहर बुजुर्ग महिलाओं द्वारा नग्न होकर किया गया प्रदर्शन आज तक लोगों के जेहन में है। इस नग्न प्रदर्शन ने सेना के क्रूर, जनविरोधी, महिला विरोधी चरित्रा को नंगा किया था। मनोरमा देवी केस, सोफियां केस, छत्तीससिंह पुरा का जनसंहार अभी भी जनता आज तक नहीं भूल पाई है जिसमें सेना की करतूतों के खिलाफ लोगों बड़े पैमाने पर लामबंद होकर प्रदर्शन किया था।
सेना की तैनाती कर छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़िसा, पश्चिम बंगाल के इलाकों को विदेशी कम्पनीयों और उनके सहयोगी देशी घरानों के सुपर्द करने की सरकारी मंशा पूरी होने वाली नहीं है। भारत का इतिहास भारत को लूटने वालों के खिलाफ संघर्ष का इतिहास है। भारत की जनता ने ब्रिटिश शासकों को इस देश से भागने पर मजबूर कर दिया था। बिरसा मुंड़ा, सिद्धो-कान्हू, गेंद सिंह, गुंड़ाधर, भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, मास्टर सूर्यसेन सभी ने ब्रिटिश लुटेरों और उनकी सेना का बहादूरी से मुकाबला किया था। ब्रिटिश लूट से भारत को बचाने के लिए जनता अपनी कुर्बानी देने से नहीं हटी। इस विरासत मे लैस भारतवासी देश की सम्पदा को लूटने का विरोध दिलोजान से करेंगे, चाहे सरकार उनके खिलाफ कितनी भी सेना की ही प्रयोग क्यों न कर ले। इतिहास गवाह है कि लूट के खिलाफ इस लड़ाई में सेना ने भी देशवासीयों का साथ दिया था और उन्होनें तात्कालिक शासकों के खिलाफ बगावत की थी। चन्द्रसिंह गढ़वाली इसी देश की धरती पर पैदा हुए जिन्होेंने भारत की जनता पर गोलियां चलाने से इंकार कर दिया था। इन क्षेत्रों में सेना लगाने पर अमादा भारत सरकार शायद भूल गई है कि यहां की सेना ने अपनी बन्दूक की नोक कई बार लूटेरी सरकारों के खिलाफ भी मोड़ी है। 1857 की 150वीं बरसी बीते अभी ज्यादा दिन नहीं बीते हैं।
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