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रविवार, 30 अक्तूबर 2011

गांधी टोपी पहन के निकली नये रंग की, नये ढंग की तानाशाही

लखनऊ में दख़ल नाम के सांस्कृतिक संगठन की 1989 में पैदाइश हुई थी। इरादा था सेकुलर मूल्यों के पक्ष में सांप्रदायिक फ़ासीवाद के ख़िलाफ़ सांस्कृतिक हल्ला बोलना। इस कड़ी में कार्यक्रमों की लंबी श्रंखला का आयोजन हुआ लेकिन यह सिलसिला दिसंबर 92 में बाबरी मस्ज़िद पर हुए हमले के बाद टूट गया और दख़ल बिखर गया...

आदियोग

कोई 19 साल की ख़ामोशी के बाद दख़ल दोबारा सामने आया। 18 अक्टूबर को लखनऊ में इंडिया अगेंस्ट करप्शन की सभा का आयोजन था। इसके एक दिन पहले शाम को दख़ल से जुड़े रहे दो साथियों की पहल पर (अनिल मिश्र के साथ ख़ुद मै) कुछ नये चेहरे जुटे। सहमति बनी कि लोकतांत्रिकता के उलट बह रही अन्नाशाही की हवा के बरअक़्स सांस्कृतिक दस्तक हो। इसमें कारपोरेट, मीडिया और एनजीओ की भूमिका को कटघरे में खड़ा किया जाये।

जैसा कि तय हुआ, मैंने रात में नाट्यालेख तैयार किया। अगले दिन दोपहर में दो घंटे के पूर्वाभ्यास के बाद और इंडिया अगेंस्ट करेप्शन की सभा से पहले झूलेलाल पार्क में धरना दे रहे समूहों के बीच नाट्यालेख के सस्वर पाठ का आयोजन हुआ। हम दो पुराने साथियों के अलावा कलाकार मंडली में शामिल थे- ब्रजपाल, महेशचंद्र देवा, सपना पाठक, रजनीकांत सोनकर और प्रेम गौड़।

आगे की योजना इसे आम लोगों के बीच ले जाने और संदर्भित सवालों पर बहस छेड़ने की है। इस प्रक्रिया से गुज़रते हुए नाट्यालेख और उसकी प्रस्तुति को भी तराशा-संवारा जायेगा।

प्रस्तुत है दख़ल का यह सांस्कृतिक बयान...

जय हो, जय हो, जय हो

(अपने-अपने नाम की टोपी पहने सभी पात्र गोले में एक-दूसरे से सट कर बैठे हैं। ढोलक की थाप पर झूमते हैं। एक कलाकार उनके बीच से उठता है। प्रस्तुति की ज़रूरत रखता है और वापस गोले में शामिल हो जाता है)

कोरस: टूट रहा है मंदिर, मसज़िद, गिरजाघर और गुरूद्वारा लोकतंत्र का

काम आ गया वही पुराना सिक्का भीड़तंत्र का

गांधी टोपी पहन के निकली

नये रंग की, नये ढंग की तानाशाही

जय हो, जय हो, जय हो भ्रष्टाचार विरोधी नारे की

एक: सुन रे धनिया, सुन रे गोबर

सुन ले, सुन ले कलुआ

कोरस: सपना बड़ा सुहाना है

जादू की छड़ी अब आयेगी, नया सवेरा लायेगी

जिसके हाथ में होगी, वह फूंकेगा ऐसा मंतर

कि उड़नछू हो जायेगा भ्रष्टाचार, दुखों का होगा काम तमाम

घर-घर नाचेगी ख़ुशहाली, हर चेहरे पर होगी मुस्कान

सपना बड़ा सुहाना है, सपना बड़ा सुहाना है

एक: कित्ता ?

कोरस: इत्ता, इत्ता,इत्ता

(एक उन्हीं के मुताबिक हाथ फैलाता है और गिर पड़ता है)

अरे मार डाला, सुहाने सपने ने मार डाला,लो गया काम से बेचारा

(उसे कफ़न उढाते हुए)

अब सो जा बेटा चादर तान, सो जा बेटा चादर तान, सो जा बेटा चादर तान

हा, हा, हा

(एक पात्र राम की प्रत्यंचा खींचती मुद्रा में स्थिर हो जाता है)

बोलो, रघुपति राघव राजा राम, शबरी का हर लेंगे प्राण

राम के भेस में पागल सांड, काहे चलेगा उन पर बाण

एक: चलिए किसी आदिवासी इलाक़े में चलते हैं। उड़ीसा, छत्तीसगढ़, झारखंड या अपने उत्तर प्रदेश में ही कहीं पहुंचते हैं और सुनते हैं क्या कहते हैं दुखियारे

(दृश्य बदलता है)

कोरस: ये धरती, ये जंगल, ये पर्वत, ये नदियां हमारी हैं

इन्हें छोड़ ऐ पूंजीपतियों, क्यों जायें,क्यों जायें हम

एक: ख़ामोश,सरकार बहादुर आराम फ़रमा रहे हैं। शोर मचाना बंद करो। विकास का कार्य प्रगति पर है। इसमें बाधा पड़ी तो विकास के महान देवता रूठ जायेंगे। कंपनी बहादुर दुखी हुए तो सरकार बहादुर नाराज़ हो जायेंगे। जानते हो तब क्या होगा ?

दो: हम क्या जानें, हम क्यों जाने, हम तो बस इतना ही जानें...

कोरस: धरती हमारी मां है, जंगल हमारे देवता, पर्वत हमारे राजा, नदियां हमारी धड़कन

इन्हें छोड़ ऐ पूंजीपतियों, क्यों जायें, क्यों जायें हम

एक: बंद करो अपनी बकवास। वरना अंदर कर दिये जाओगे। राजद्रोह का मुक़दमा झेलोगे और पूरी ज़िंदगी जेल में सड़ोगे। या माओवादी बता कर कहीं मार गिराये जाओगे। तुम्हारा घर और गांव, फ़सल और मवेशी फूंक दिये जायेंगे। तुम्हारी औरतों के शरीर को मर्दानगी का जौहर दिखाने का मैदान बना दिया जायेगा।

कोरस: सरकार तुम्हारी होगी, कानून तुम्हारा होगा, बंदूक तुम्हारी होगी, जेल तुम्हारी होगी

चुप न रहेंगे, चुप न रहेंगे, चुप न रहेंगे हम

हां...लड़ते रहेंगे, लड़ते रहेंगे, लड़ते रहेंगे हम

एक: क्योंकि

कोरस: ये धरती, ये जंगल, ये पर्वत, ये नदियां हमारी हैं

इन्हें छोड़ ऐ पूंजीपतियों, क्यों जायें,क्यों जायें हम

एक: तो सरकारें अपनी कंपनीपरस्ती का नमूना पेश कर रही हैं। अपने ही देश के नागरिकों के ख़िलाफ़ जंग लड़ रही हैं

दो: देश प्रगति की राह पर है, कारपोरेटी गिद्दों के पंजों में है

तीन: मुनाफ़े की लूट का कारोबार है। देश जाये भाड़ में, लोग जायें चूल्हे में।

चार: जी हां, कल इक महल देखा तो देर तक सोचा, इक मकां बनाने में कितने घर लुटे होंगे

एक: अरे खोजो भय्या खोजो, भ्रष्टाचार विरोधी सिपहसालार कहां गये ?

चार: लुटिया चोर को सबक़ सिखाने

(दृश्य बदलता है, अब गांधीजी के तीन बंदर सामने हैं)

कोरस: बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो, बुरा मत कहो

जय हो, जय हो, जय हो, भ्रष्टाचार विरोधी नारे की

(दृश्य बदलता है)

एक: शिक्षा-स्वास्थ्य,पंचायती राज, वाटरशेड, शौचालय, एसएचजी, पीडीएस, मनरेगा, ये अधिकार, वो अधिकार,प्रोजेक्ट प्रपोज़ल और फ़ंडिंग

दो: फ़ाइल यहां है,फ़ील्ड कहां है साहब ?

कोरस: जनता की तक़दीर बदलने, फटही कथरी में पैबंद जोड़ने

वो देखो, एनजीओ वाला आया, एनजीओ वाला आया

दान-अनुदान की थैली लाया, किसम-किसम के तमगे लाया

परदेसी सरकार से, विकास के बाज़ार से

ख़ुद अपनी पीठ ठोंकता, लोगों को भरमाता

देसी धुन पर परदेसी गाना गाता, सबको नाच नचाता

एनजीओ वाला आया, एनजीओ वाला आया

एक: हाईफ़ाई परिवर्तनकारी क्या कहते हैं ?

(दृश्य बदलता है, गांधीजी के तीन बंदर सामने हैं)

कोरस: बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो, बुरा मत कहो

जय हो, जय हो, जय हो, भ्रष्टाचार विरोधी नारे की

(दृश्य बदलता है)

एक: लोकतंत्र का चौथा खंभा, हम हैं ख़बरनवीस

चाहे जैसी ख़बर लिखा लो, तय है उसकी फ़ीस,रे भय्या, तय है उसकी फ़ीस

दो: यों कहने को हम वाच डाग हैं

पर दाम चुकाओ तो सच को ही पानी पिलवा दें

नकली मुद्दों पर आग लगवा दें, कहो तो दंगा तक करवा दें

तीन: गांधीवादी आंधी के कर्ताधर्ता कहां गये ?

(एक पात्र राष्ट्रीय ध्वज लहराता है)

कोरस: बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो, बुरा मत कहो

जय हो, जय हो, जय हो भ्रष्टाचार विरोधी नारे की

एक: टूट रहा है मंदिर,मसज़िद, गिरजाघर और गुरूद्वारा लोकतंत्र का

दो: काम आ गया वही पुराना सिक्का भीड़तंत्र का

तीन: गांधी टोपी पहन के निकली

नये रंग की, नये ढंग की तानाशाही

कोरस: जय हो, जय हो, जय हो भ्रष्टाचार विरोधी नारे की

(सावधान की मुद्रा में)

जय हे, जय हे, जय हे

जय, जय, जय, जय हे

(फ़्रीज़ के साथ समापन)

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