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गुरुवार, 29 दिसंबर 2011

राज्य द्वारा सीआपीपी और अन्य जनसंगठनों को निशाना बनाकर चलाए जा रहे बदनामी अभियान की पुरजोर निंदा करो


राज्य की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ आवाज उठाने वालों में भय फैलाने और उन्हें अलगाव में डालने के लिए चलाए जा रहे अभियान का पर्दाफाश करो।

(जीतन मरांडी व अन्य साथियों की फांसी की सजा रद्ध होने के संदर्भ में दिल्ली में फांसी की सजा के खिलाफ हुई गोष्ठी में परित प्रस्ताव)

भारत के राज्य गृह मंत्राी जितेन्द्र सिंह के इस वक्तव्य की सीआरपीपी घोर निंदा करता है कि कमेटी सीपीआई माओवादी का खुला संगठन है (देखें 8 दिसम्बर 2011 का टाईम्स ऑफ इंडिया)। यह उन मंचों, संगठनों, और राजनैतिक मतों को फंसाने का एक सोचा समझा प्रयास है जो सरकार की नीतियों की खिलाफत करते हैं। साम्राज्यवादी हितों के सामने पूर्ण नतमस्तक होकर उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण को आक्रमक तरीकों से लागू करने वाले राज्य के गैर-कानूनी अत्याचारों के खिलाफ बनी सीआरपीपी ने शुरूआत से ही यह मांग की है कि जेलों में भेजे गए सभी राजनैतिक बंदियों को बगैर शर्त रिहा किया जाए। इन राजनैतिक बंदियों में से अधिकतर बगैर सुनवाई के सालों से जेल में पड़े हैं और उन पर राजनीतिक मंशा से अनेकों केस चस्पा कर दिए गए हैं।
सीआरपीपी ने पहली बार इस मांग को उठाया कि भारत सरकार को राजनीतिक बंदियों के दर्जे को मानना चाहिए, क्योंकि उसने ‘संयुक्त राष्ट्र इंटरनेशनल कोनिवेंट आफ सिविल और राजनीतिक राइट’ पर हस्ताक्षर किए हैं, जिसमें राजनैतिक बंदियों के अधिकारों के बारें में साफतौर पर लिखा हुआ है। अपनी कार्रवाईयों के जरिए सीआरपीपी ने उपमहाद्विप में सबसे उत्पीडित और शोषित जनता के जनवादी अधिकारों को खत्म करने पर अपनी चिंता और गुस्से को जाहिर किया है और इस पर जनमत भी निर्मित कर रहा है। हरेक के लिए जनवादी स्पेस बढ़ाने हेतू आवाज उठाना, ताकि वे आत्मसम्मान और अच्छे से जी सके, सत्ता के हितों के खिलाफ जाता है। इसलिए सीआरपीपी को एक ‘खतरे’ के रूप में दिखाना उपमहाद्वीप में लोकतन्त्रा के असली चेहरे को ही सामने लाता है। यह ऐसे समय में किया जा रहा है जब विकास के नाम पर राज्य की सबसे बड़ी सैन्य तैनाती- अर्धसैन्य बलों, सेना, पुलिस’ आदि की तैनाती- को उपमहद्विप में आदिवासियों और दलितों को चुप कराने, बलात्कार करवाने और मारने के लिए प्रयोग किया जा रहा है, जिसे भारत के गृहमंत्राी ने आपरेशन ग्रीन हंट की संज्ञा दी है। इन परिस्थितियों में छत्तीसगढ़, झारखंड, उडिसा, बिहार, जंगलमहल आदि क्षेत्रों में विस्थापन, वंचना, विनाश और मौत के चार शब्दों के खिलाफ लड़ने वाले राजनैतिक बंदियों की तेजी से बढ़ती संख्या के कारण, और मुस्लिम राजनैतिक बंदियों व राष्ट्रीयताओं के आन्दोलनों के राजनैतिक बंदियों के बारे में आवाज उठाने की विभिन्न जनांदोलनों की मांग पर सीआरपीपी का निर्माण किया गया। एक निराश राज्य के लिए यह महत्वपूर्ण हो गया कि वो असहमती के सभी स्वरों को खामोश करने की नीति के विस्तार के बतौर, और लोगों में खौफ पैदा करने के लिए सीआरपीपी जैसे मंचों को बदनाम करे और उसे आपराधिक घोषित करे। यह सीआरपीपी की ताकत को भी दिखाता है कि उसमें उपमहाद्वीप में उन सभी सम्भव आवाजों को एक साथ लाया गया है जो भारतीय राज्य की जनविरोधी और गैरकानूनी कार्रवाईयों के खिलाफ बोलते हैं।
सीआरपीपी को इस बात भी ऐतराज है कि मिडिया ने इस रिपोर्ट को जिस तरह से पेश किया, वह रिपोर्ट करने से ज्यादा संकेत करना था। इस खबर को उन्होनें सनसनीखेज खबरों की चक्की में शामिल कर दिया।
हम उपमहाद्वीप के सभी जनवादी और आजादी पसन्द लोगों को आह्वान करते हैं कि वो सामने आएं और राज्य के इन कोशिशों की एक स्वर में निंदा करें जो राज्य की इच्छा से भिन्न राजनैतिक मतों को बदनाम करने और अपराधी ठहराना चाहती हैं। राज्य मंत्राी का पूरा वक्तव्य कि सीपीआई (एमएल)न्यू डेमोक्रेसी, आरडीएफ, पीडीएफआई, डीएसयू, सीपीआई(एमएल)नक्सलबारी और अन्य जनसंगठनों पर सरकार अपने आंखों और कानों के जरिए ‘तीखी नजर’ रख रही है, आम जनता में भय पैदा करने के लिए दिया गया है। राज्य की ऐसी फासीवादी मंशा का पुरजोर तरीके से विरोध करने की जरूरत है साथ ही जनता की जिंदगियों के लिए खतरा बन चुकी राज्य की जनविरोधी नीतियों का वापिस लेने की आवश्यकता पर बल देने की जरूरत है।

जनसंस्कृतिकर्मी जीतन मरांडी और अन्य लोगों के बरी करवाने के लिए चलाया गया संयुक्त जनसंघर्ष जिन्दाबाद


मांग करें कि जीतन मरांडी के खिलाफ झूठे सबूत बनाने वाले पुलिस और राजनीतिज्ञ पर केस दर्ज किया जाए।

(जीतन मरांडी व अन्य साथियों की फांसी की सजा रद्ध होने के संदर्भ में दिल्ली में फांसी की सजा के खिलाफ हुई गोष्ठी में परित प्रस्ताव)
जनवादी और प्रगतिशील लोगों द्वारा तीन माह आठ महिने और तीन दिन तक निरन्तर अभियान चलाने के बाद ही जीतन मरांडी और तीन अन्य लोग बरी हुए। जीतन मरांडी पर केस लगाना और मौत की सजा देना अपराधी बनाने का ऐसा तरीका है, जिसे कानून के तथाकथित रखवाले इस पूरे उपमहाद्विप में अघोषित आपातकाल लागू करने के लिए प्रयोग कर रहे हैं, जहां गरीबों में से सबसे गरीब अपनी सम्पदा, जिंदगी और आजीविका की लूट के खिलाफ लड़ रहे हैं।
ऐसे समय में हम मांग करते हैं कि उन लोगों पर केस दर्ज किया जाना चाहिए, जो ऐसे दुर्भावनापूर्ण कृत्यों के लिए उत्तरदायी है। जीतन को बरी करवाने के लिए इस महाद्वीप में सशक्त तरीके से गोलबंद हुए लोगों का गुस्सा और विरोध दिखाता है कि जीतन एक ऐसे सांस्कृतिक कर्मी हैं जो जनता के दुखों और सपनों को अपने गानों के माध्यम से सामने ला सकता था। और इससे जागृत जनता की सामूहिक इच्छाशक्ति सत्ता की उस असहनशील कार्रवाई को चुनौती दे सकती थी जिसके तहत उपमहाद्विप के कई हिस्सों में झूठे केस बनाए जा रहे हैं, सिलसिलेवार गिरफतारी की जा रही हैं, बगैर किसी उचित कारण के लम्बे समय तक कोर्ट में पेश नहीं किया जाता है, यातनाएं देने, गायब करने, झूठी मुठभेड़ों में मारने, बलात्कार करने जैसे घनघोर कृत्य किए जा रहे हैं।
दुर्भावनापूर्ण कार्रवाई के अन्य मामलो की तरह इसमें भी हमें असहमतियों के सभी रूपों को अपराधी ठहराने का राज्य का बढ़ता रूझान दिखाई देता है, जबकि आरोपियों के अधिकारों और सुरक्षा करने के लिए बनाई गई प्रक्रियाओं और नियमों को विशेषतः राजनैतिक बंदियों के मामले में तरोड़ने मरोडने के पुलिस-राजनैतिज्ञों-न्यायिक प्रणाली के अपराधिक गठजोड़ की तो बात न ही की जाए तो अच्छा है। न्यायालय के फैसले से भी अधिक साफ तरीके से तो जीतन के वकील ने कहा है- ‘देवरी पुलिस स्टेशन ने नियमघाट पुलिस स्टेशने के इंचार्ज को 21 फरवरी 2008 को लिखे पत्रा न. 205/08 में कहा था कि नियमघाट के रहने वाले आरोपी जीतन मरांडी उर्फ श्यामलाल किसकु के नाम में तलाशी और गिरफतारी वारंट जारी किए जाएं। इससे साफ है कि पुलिस जिस जीतन मरांडी को खोज रही थी, उसकी बजाय उन्होंने किसी और जीतन मरांडी को गिरफतार कर लिया।
हम मांग करते हें कि पूरे झारखंड में जनकलाकार के बतौर विख्यात जीतन मरांडी को जानबुझकर गिरफतार करने वाले मुरारी लाल मीणा सहित अन्य पुलिसकर्मीयों पर केस दर्ज किया जाए, जिन्होंने आपराधिक पृष्ठभूमि वाले अपराधियों को कानून के न्यायालय में जीतन मरांडी की पहचान करने वाले झूठे गवाह बना दिये। कानून की अदालत में शपथ लेकर झूठ बोलना अवहेलना करने के समान है और ऐसे पुलिस अधिकारियों के खिलाफ अपराध करने की कार्रवाई शुरू की जाए, अन्यथा राज्य की यह दुर्भावना पूर्ण कार्रवाई बेलगाम जारी रहेगी।

मौत की सजा के पूर्ण खात्मे के लिए


(जीतन मरांडी व अन्य साथियों की फांसी की सजा रद्ध होने के संदर्भ में दिल्ली में फांसी की सजा के खिलाफ हुई गोष्ठी में परित प्रस्ताव)

यह गोष्ठी मानती है कि मौत की सजा सामाजिक असमानता को दिखाती है। यह इस बात को भी दिखाती है कि यह राज्य की सोचा समझी चाल है। भारतीय उपमहाद्वीप में वर्ग से गुथी हुई जातीय व्यवस्था से बने सामंती ढांचे की ताकत में, और मुस्लिम अल्पसंख्यकों व राष्ट्रीयताओं के प्रति साम्प्रदायिक पूर्वाग्रहों में इस पक्षपात की झलक साफ दिखाई देती है। साम्राज्यवादी बुर्जआ और उसके स्थानीय एजेंटों के मुनाफे को अधिकतम करने के लिए लाई गई उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण की नीतियों के बढ़ते हमले के साथ राज्य ने खुद को दमनकारी कानूनों से भी लैस कर लिया है, ताकि जनता के बढ़ते गुस्से के ज्वार को रोका जा सके। दमनकारी कानूनों का सहारा लेकर राज्य एक ‘राष्ट्रीय सुरक्षा राज्य’ बनाने की आवश्यकता को वैचारिक स्वीकृति देने की कोशिश कर रहा है। यह कोशिश अमेरिका के नेतृत्व में जारी तथाकथित आतंक के विरूद्ध युद्ध को प्रोत्साहित करेगा। इसके कारण मौत की सजा की पूर्ण समाप्ति की लड़ाई तीखी और जटिल बन गई है, क्योंकि मौत की सजा जनविरोधी कानूनों से लैस राष्ट्रीय सुरक्षा राज्य के साथ घुलमिल गई है। ऐसी स्थिति ने फांसी की सजा को लोगों के बढ़ते गुस्से पर रोक लगाने के लिए प्रयोग करना आसान बना दिया है। हमारे देश में राज्य द्वारा दी जानी वाली मौत की सजा देने के मामलों में वृद्धि के कारण, और मौत की सजा में असमानता को मुख्यतः चिन्हित करके यह गोष्ठी उस मौत की सजा की वैधता पर प्रश्नचिन्ह लगाती है क्योंकि मौत की सजा को राज्य न्याय की खंडित सोच को वैध ठहराने के लिए प्रयोग कर रहा है।
जब तक भारतीय उपमहाद्विप में लोग विभिन्न सरकारों की गलत नीतियों से उपजे असमानता के जीवंत यर्थाथ को भोगेंगें, तब तक इस यथार्थ को इसके कानूनी तन्त्रा के परिणाम के रूप में देखा जा सकता है जिसे लोगों के नाम पर लागू किया जाता है। यदि भारतीय राज्य फांसी की सजा को प्रतिकार या उपयोगी मूल्य के रूप में मानना जारी रखेगा, तो असमानता सरकार और नीति निर्धारकों, जोकि उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण के दौर में लालच और अनिष्ट संचय पर आधारित व्यवस्था का खुला समर्थन करते हैं, के लिए एक ‘सहन करने वाली’ चीज नही रहेगी। असमानना एक ऐसे मूल्य के बतौर रहती है जिसे सरकार मौत की सजा को प्रयोग करने की हठधर्मिता के जरिए लागू करती है और इसे पेचिदा तरीके से संरक्षित करती है।
आधे से अधिक एशियाई देशों में मौत की सजा खत्म कर दी गई है या फिर पिछले दस सालों से किसी को फांसी नहीं दी गई है। युरोप के अधिकतर देशों में इस बर्बर और अमानवीय कार्रवाई का अन्त करने के लिए कानून पारित किए गए हैं। इस संदर्भ में भारत, जोकि विश्व की सबसे बड़े लोकतन्त्रा होने का दम्भ भरता है, में राज्य की स्वीकृति का सुनिश्चित करने के लिए ऐसे बर्बर और अमानवीय तरीके जारी रखने का कोई कारण नहीं है। यह गोष्ठी राज्य द्वारा सजा के रूप में मौत की सजा के पूर्ण खात्मे की मांग करती है।


गुरुवार, 15 दिसंबर 2011

जनांदोलन को कुचलने की साजिश बंद करो!


विस्थापन विरोधी जनविकास आन्दोलन
कार्यालय: सरईटांड, पोस्ट: मोहराबादी, रांची

जनांदोलन को कुचलने की साजिश बंद करो!
पोस्को परियोजना रद्ध करो!!
गत दिवस उडिसा के पारादीप में पोस्को प्रतिरोध संग्राम समिति के बनैर तले प्रदर्शन कर रहे लोगों पर पोस्को कम्पनी के निजी मिलिशिया ने हमला कर दिया। लगभग 2000 लोग पोस्को कम्पनी के लिए तटिय इलाके में बनाई जा रही सड़क का विरोध कर रहे थे। इस हमले में कम्पनी के गुंडों ने बम्ब भी फैंका। इस लड़ाई में 7-8 प्रदर्शन कारी घायल हो गए।
भारत की सबसे बड़े साम्राज्यवादी पूंजी निवेश को जनता ने अपने प्रतिरोध के जरिए पिछले छः सालों से रोका हुआ है। जनता ने अपनी जान देकर भी इस निवेश को रोककर अपनी जमीन बचाने की लड़ाई लड़ रही है। परन्तु केन्द्र सरकार की शह पर उडिसा का मुख्यमंत्री जनआकांक्षा को नकार कर हर कीमत पर इस परियोजना के निर्माण की कोशिश कर रहा है। प्रदर्शनकारियों पर इस ताजा हमले से पूर्व उडिसा की सरकार ने पोस्को प्रतिरोध संग्राम समिति के नेता अभय साहू को हाल ही में गिरफ्तार कर फर्जी केस दर्ज कर दिए। इस ताजा हमले की आड़ में सरकार समिति के अन्य नेताओं को भी जेल की सलाखों के पीछे भेजने की तैयारी कर रही है।
20 जून 2008 को भी कम्पनी के गुंडों ने गोबिन्दपुर गांव में बम्बों से हमला किया था, जिसमें पोस्को प्रतिरोध संग्राम समिति का साथी तपन मंडल शहीद हो गया था। इस भिडंत के बहाने सरकार ने कई नेताओं को गिरफ्तार कर लिया था तथा उन्हें कई महीनों तक जेल में कैद रखा था। इस हमलें में भी एक गुंडे के खुद के बम्ब में ही मारे जाने का बहाना बनाकर सरकार आन्दोलन को कुचलने की साजिश रच रही है।
सरकार जनआकांक्षा का आदर कर परियोजना को रद्ध करने की बजाय बार बार गुंडो, पुलिस और आम जनता के बीच विवाद पैदा करवा रही है और लोगों पर जुल्मों-सितम ड़हा रही है। सरकार को जनांदोलन को कुचलने की साजिश करने की बजाय जनता की आवाज की कद्र करते हुए पोस्को परियोजना का काम बंद करना चाहिए और पोस्को कम्पनी के साथ किए गए एमओयू को तुरंत रद्ध करना चाहिए।

के एन पंडित अजय
संयोजक सहसंयोजक

लड़ाई जारी है....

3 साल 8 माह 3 दिन पहले जीतन मरांडी पर दर्ज किए गए चिलखारी केस में झारखंड उच्च न्यायालय उसे निर्दोष करार देते हुए फांसी की सजा रद्ध कर दी। इस केस के जरिए प्रशासन और राजनीतिज्ञों के गठजोड़ ने 3 साल 8 माह तक जीतन मरांडी के गले के स्वर को शोषितों-उत्पीड़ितों के पक्ष में उठने से रोके रखा। जीतन को फांसी के तख्ते पर चढ़ाकर उसकी आवाज को हमेशा के लिए खामोश करने की जुल्मी सरकार की कोशिश तो नाकाम हो गई। जनता के संघर्ष के बदौलत आज जीतन मरांडी को फांसी की दहलीज से वापिस खींच लिया गया। परन्तु सब जानते हैं कि जीतन मरांडी की आवाज को खामोश करने के लिए सरकार ने उसपर अनेकों फर्जी केस लादे थे। झारखंड सरकार के जुल्मों-सितम का शिकार बना जीतन मरांडी अभी भी जेल में रहने के लिए मजबूर है। जीतन मरांडी को फांसी के पंजे से मुक्त कराने पर संघर्ष खत्म नहीं हुआ है। जीतन मरांडी पर देशद्रोह जैसे केस अभी तक भी जारी हैं और जीतन मरांडी जैसे ही हजारों कार्यकर्ताओं को भी जेलों की सलाखों में कैद कर समाज बदलाव के सपनों को सच्चाई में बदलने से रोकने की कोशिश की जा रही है। राजद्रोह, यूएपीए, पोटा, सीएलए, टाड़ा जैसे कानूनों के जरिए उनकी आकांक्षाओं को कुचला जा रहा है।

जीतन मरांडी के उपर दर्ज किए गए सभी मुकदमें वापिस लिए जाएं तथा उन्हें तत्काल बरी किया जाए।
जीतन मरांडी को फर्जी केसों में फंसाने वाले पुलिस अधिकारियों और राजनीतिज्ञों को सजा दी जाए।
तमाम राजनैतिक बंदियों को तुरन्त बगैर शर्त रिहा किया जाए।
भारत के कानूनों से फांसी की सजा का प्रावधान खत्म किया जाए।
यूएपीए, राजद्रोह जैसे दमनकारी कानून और कानूनी प्रावधान तुरन्त निरस्त किए जाएं।

मंगलवार, 6 दिसंबर 2011

किशन जी: केवल एक और शहीद नहीं


सरोज गिरी

किशन जी उत्पीड़न के खिलाफ लड़ने वाले योद्धा, एक निड़र और साहसी व्यक्ति मात्रा नहीं हैं। वह हमारे देश की प्रतिरोध आन्दोलनों के इतिहास में एक खास शख्सियत की हैसियत रखते हैं। वह शायद इस बारे में जागरूक भी नहीं होंगें। उनके नेतृत्व में प्रतिरोध के कई तरीके एक साथ दिखाई देते हैं - जनता के सशस्त्रा लड़ाकू बलों का खुली रैलियों, प्रदर्शनों और धरनों से समन्वय आदि। डेमोक्रेटिक जनउभार के प्रति गम्भीर कोई भी व्यक्ति ‘रणनीति’, ‘बल प्रयोग’ या ‘हथियारबंद प्रतिरोध’ की अवहेलना नहीं कर सकता। जनसंघर्ष की जीवन-रेखा हथियारबंद प्रतिरोध के जोन तक विस्तारित होती है - लेनिन की यह पुरानी उक्ति किशन जी की जिन्दगी और कार्रवाई में हमेशा दोहराई जाती रही, उभरती रही और नए तरीके से दिखलाई दी।

इस मायने में किशन जी ने जनान्दोलन और ‘सैन्य रणनीति’ दोनों को वाम के भीतर जिन्दा रखा। आज के वाम में अनुशासन और सेना को खारिज करने का रूझान है, मानों ये एक तरह की दक्षिणपंथी-फासीवादी सोच है। दार्शनिक साल्वेज जिजेक कहते हैं कि ‘आज्ञा मानकर सुखवादी होने’(हॅडोनिस्टिक परमिसिविटी) की शासकीय विचारधारा के खिलाफ वाम को ‘अनुशासन और त्याग को (दोबारा) अपनाना चाहिए: इन मूल्यों में कोई अन्तर्निहित फासीवाद नहीं होता।’

यही किशन जी का योगदान है कि उनका शिकार कर मार डालने वाले शासक वर्ग को उन्होनें भयभीत और चौकना कर दिया था। यह बेहतरीन योगदान ऐसे समय में किया गया जब वाम ‘रणनीति की कमी’ से जुझ रहा है, जब तहरीर चौक या वाल स्टरीट घेरो जैसे जनप्रदर्शन खुद ब खुद थकने या राजकीय दमन को झेलने में अक्षम होने के कारण खत्म होते प्रतीत हो रहे हैं। कुछ लोग कह सकते हैं कि जगलमहल में लड़ाकू जनप्रदर्शन जून, 2009 में माओवादियों के ‘काबिज होने’ के बाद खत्म हो गया था। यह ‘कब्जा’ जनान्दोलन की रीढ़ के अलावा कुछ नहीं था जो आज रणनीति वाली संगठित ताकत के रूप में खुद को अभिव्यक्त करने में सक्षम है।

यह राज्य की हथियारबंद ताकत का सामना करने में सक्षम होने के अलावा वर्ग संघर्ष के बारे में सही समझ बनाने के लिए पहला कदम है जिसे मार्क्स ने कम्यूनिस्ट मैनिफैस्टो में सारे आन्दोलन के लिए ‘अभियान की दिशा’(लाईन ऑफ मार्च) कहा है। यहां केवल माओवादियों को बड़ी सफलता ही नहीं मिली है बल्कि वे कुछ आधारभूत अधिकार भी पा सके हैं। इसलिए जनउभार और रैली के आरम्भिक उभार के बाद खत्म होने की आम कहानी यहां खुद को दोहरा नहीं पाई। जनांदोलन कई अन्य रूपों में चलता रहा। वास्तव में एक नए महिला जनसंगठन नारी इज्जत बचाओ कमेटी ने उतनी ही बड़ी रैलिया आयोजित की जितनी बड़ी रैलियों को ममता और अग्निवेश ने सम्बोधित किया था। सरकार द्वारा प्रतिबंधित या ‘अनुमति देने से इंकार’ करने से पहले यह सिलसिला जारी रहा।

यह किशन जी का असल योगदान था, न कि एक ऐसा बेस्वाद ‘त्याग’ या ‘शहादत’, जिसकी माओवादी प्रायः महिमामंडन करते रहते हैं। माओवादियों को ऐसी गहरे पैठी आदतों से बचना चाहिए, जिसमें वे अपने नेतृत्व की किसी विशिष्टता या असल योगदान को नहीं देखते और उन्हें एक बंजर धारावाहिकता में ‘एक और शहीद के रूप में चित्रित करते हैं जिसने क्रान्ति के लिए एक बहादूर की तरह जिंदगी कुर्बान कर दी’। अन्यथा आन्दोलन एक घेरे में गोल गोल घुमता रहेगा और ठोस व्यवहार से गतिशील बनने की बजाय गतिरूद्ध हो जाएगा।

शायद हम इस बात को माओवादी आन्दोलन के ‘जंगलमहल मॉडल या रास्ते’ के रूप में देखें या ‘छत्तीसगढ़ मॉडल या रास्ते’ से इसकी तुलना करें। ‘मॉडल’ की शब्दावली में बात करने में कई समस्याएं हैं। फिर भी विशेष इलाके में आन्दोलन की विशिष्टताओं पर भी पकड़ बनानी चाहिए ताकि हम सभी अनुभवों और रूपों को एक ही तरह का न माने। अन्यथा हम कुछ भी नया नहीं सिख पाएंगें, संश्लेषन नहीं कर पाएंगें, व्यवहार से नहीं सिख पाएंगें, बल्कि एक तयशुदा सूत्रा को दोहराते रहेंगें। किशन जी इस दायरे में नहीं आते थे। हम नहीं जानते कि उन्होनें भी जंगलमहल मॉडल (हुनान रिपोर्ट की तरह) में आन्दोलन की विशिष्टताओं का सचेतन सूत्राीकरण किया था, परन्तु उनके ठोस व्यवहार ने शानदार तरीके से आगे का मार्ग रोशन किया।

सितम्बर माह में वरवरा राव, मैं और कोलकाता से एक कामरेड ने जंगलमहल में एक ‘तथ्य अन्वेशन’ (एक बेहतर शब्द की चाह में) दौरा किया। हम किशन जी से नहीं मिल सके, परन्तु हमनें सुरक्षा बलों और निजी सेनाओं (भैरव वाहिनी) द्वारा किए गए अत्याचारों को देखा। मैनें झारग्राम कस्बे से दूर गहन जंगल में एक नौजवान आदिवासी कामरेड से बातचीत की: जोकि एक हथियारबंद दस्ते का सदस्य था। मैनें उससे पूछा कि क्या वो किशनजी से मिला था। उसने जवाब में हां कहा। इसके बाद उसने कहा कि वह मिटिंग के दौरान किशनजी द्वारा कही जानी वाली सारी बातों को नहीं समझ पाता। तब मैंने पूछा कि क्या उसने किशन जी से मार्क्सवाद के बारे में सुना है। (मैं बहुत जिज्ञासु था) ‘हां, किशनजी मार्क्सवाद के बारे में बात करते हैं, परन्तु इसे समझना बहुत मुश्किल लगता है।’ तब मैनें उससे पूछा कि क्या तुम मार्क्सवाद के बारे में क्या सोचते हो कि यह क्या है? मैनें सोचा कि वह खुद को हाशिए पर महसूस कर रहा है। परन्तु कुछ क्षण बाद जवाब मिला: यह कोई अच्छी चीज है परन्तु कुछ लोग इसे बर्बाद और विकृत कर देते हैं। ‘हम गुरिल्ला ऐसे लोगों से लड़ रहे हैं।’

किशन जी की तरह के लोग मार्क्सवाद को जनता में ले गए हैं। और ऐसा करने का मतलब है ‘संगठित करना’, योजना बनाना, रणनीति बनाना, संघर्ष को आगे ले जाना और अपने आपको आग में झोंक देना। किशनजी की निडरता उत्तरआधुनिक जैपटिस्मों तरीके से ‘सत्ता को सत्य बताना’ नहीं है, बल्कि इसके झूठों, दिखावों और हिंसा, हमारे लोग जिसमें अक्सर फंस जाते हैं, का पर्दाफाश कर इसके जनवादी लिबास में से सत्ता निर्माण करना था। मैं हमेशा उलझ जाता था कि किशन जी कैमरे के सामने कभी भी अपनी बंदूक नहीं उतारते थे- कोई भी इसे साफतौर पर देख सकता है और इसलिए वह डेमोक्रेटिक, शान्तिप्रिय आदि दिखने के लिए डेमोक्रेटिक कार्ड खेलने की परवाह नहीं करते थे। उन्होनें बंदूक के बारे में कभी चर्चा नहीं की, हिंसा का कभी महिमामंडन नहीं किया, जिसकी उम्मीद कुछ लोग दयनीय तरीके से करते होंगें। इसकी अपेक्षा उन्होनें हमेशा एक सही डेमोक्रेसी और जनता की सत्ता लाने के लिए सतर्क धैर्यवान लड़ाई की बात की।

एकदम साफ दिखने वाली कंधों पर लटकती बंदूक के साथ ही वो अपने कैम्प में उत्सुक पत्राकारों से घिरे रहते थे। इसका एक ही अर्थ हो सकता है कि वे उदार बुर्जआ नेताओं, जोकि विशाल नियमित सेना की अध्यक्षता करते हैं, की तरह छिपकर अहिंसक और जनवादी होने का ढोंग नहीं करते थे।

इसमें हम मार्क्सवाद की एक कुंजीगत अंतर्दृष्टि को देखते हैं - कि सत्ता का सवाल हमेशा सामने रहना चाहिए और कभी भी ऐसा खेल नहीं खेलना चाहिए कि समाज में कोई सत्ता नहीं है, कोई वर्ग सत्ता नहीं है, कोई हथियारबंद सत्ता नहीं है, सर्वस्व डेमोक्रेसी और खुली होड़ है। इसलिए लेनिन कहते हैं कि समाजवाद कोई बेहतर और वास्तविक रैडिकल जनवाद नहीं है (इसे सभी सम्मान देते होगें और स्वीकारते होंगें), अपितु यह सर्वहारा की तानाशाही है- यह कहना कि वास्तविक वर्गीय तानाशाही के बावजूद वहां सबके लिए डेमोक्रेसी होगी, सच्चाई से दूर भागना होगा। यदि आप बंदूक की वजह से किशन जी को तहे दिल से समर्थन करने में असहज महसूस करते हैं तो आप मार्क्सवाद की कुंजीगत अंतर्दृष्टि से भी असहज हो सकते हैं।- इस दोहरे बंधन में उन्होनें हमें फंसा दिया है।

किशन जी ‘हवा में उड़ने वाले’ व्यक्ति नहीं थे बल्कि सम्भवतः दूसरे बाब दिलेन गीत थे। वह उस समय के व्यक्ति हैं जब जहाज अन्दर आ रहे हैं, एक ऐसे व्यक्ति जिसने अवश्य ही कल्पना की होगी की कि वह इस महान समय में प्रवेशक के रूप में लड़ रहे हैं, शायद उस समय भी जब ‘जवाब हवा में नहीं तैर रहे हों।’:

समुंद्र के बंधन
रात में तोड़े जाएंगे
और समुंद्र की तलहटी में गाड़ दिए जाएंगें
.....
ओह, दूश्मन उठेगा
अभी भी आखों में नींद होगी
और वे अपने बिस्तर से झटके से उठेंगें और सोचेंगें कि वे सपने में हैं
परन्तु वे खुद को चकौटी काटेंगें और चिल्लाएगें
और जान जाएगें कि यह सब वास्तविक है
उस समय जब जहाज अन्दर आ रहे हैं
......
तब वो अपने हाथ उठाएंगें
कहेंगें कि हम तुम्हारी सारी मांगे मान लेगें
परन्तु हम जहाज के अग्रभाग से चिल्लाएगें कि तुम्हारे दिन गिनती के रह गए हैं.......

सोमवार, 5 दिसंबर 2011

सीपीआई (माओवादी) के पोलित ब्यूरो सदस्य किशन जी की हत्या पर सीडीआरओ की तथ्य अन्वेषक रपट

कॉरडिनेशन ऑफ डेमोक्रेटिक राइट आर्गेनाईजेशन (सीडीआरओ) के घटक एसोशिएशन ऑफ प्रोटेक्शन ऑफ डेमोक्रेटिक राइट, आंध्र प्रदेश सिविल लिबर्टी कमेटी, बंदी मुक्ति कमेटी और पीपुल्स यूनियन ऑफ डेमोक्रेटिक राइट, दिल्ली की 22 सदस्ययी टीम ने 1 दिसम्बर, 2011 को मोलाजुला कोटेश्वर राव उर्फ किशन जी की तथाकथित मुठभेड़ में हुई हत्या की जांच पड़ताल की। टीम ने पश्चिम मेदिनीपुर के बुरीसोल की गावड़ी सोराकट्टा और गोसाईबंध गांव का दौरा किया। टीम ने दोनों गांव के लोगों से, जामबोनी पुलिस स्टेशन के सबइंस्पेक्टर और एएसआई से बात की और उस स्थल का मुआयना किया, जहां 24 नवम्बर को तथाकथित मुठभेड़ हुई थी।

स्थल: किशन जी का शव बुरीसोल गांव के सोराकट्टा गावड़ी से 300 मीटर दूरी पर मिला था। यह जगह गांव के फुटबाल मैदान से मात्र 50 मीटर की दूरी पर है और साल पेड़ों के हल्के से आवरण से आच्छादित है। शव मिलने की जगह से थोड़ी ही दूरी पर एक दीमकों वाली पहाड़ी है। इसके चारो और थोड़े से साल पेड़ हैं जो हल्का सा आवरण है। दीमकों की पहाड़ी को तथाकथित गोलीबारी से कोई नुक्सान नहीं पहुंचा। शव वाली जगह पर जहां सिर और धड़ था, वहां खुन जमा हुआ है। परन्तु टांगों की ओर खुन का कोई थक्का दिखाई नहीं दिया। जिन पेड़ों पर गोली के निशान दिखाए जा रहे हैं, वहां गोली से जले के निशान दिखाई नहीं दिए। मृतक के बुरी तरह विक्षिप्त शव की अगर शव मिलने वाली जगह के अबाधित स्थल से तुलना करें तो कई संदेह पैदा होते हैं। यदि भारी गोलाबारी हुई थी तो चारो और उसके निशान दिखाई देने चाहिए। सबसे ज्यादा दिलचस्प बात यह है कि शव के कुछ ईंच दूर स्थित दीमकों की पहाड़ी का कुछ भी नुक्सान नहीं हुआ, जैसाकि चारों ओर से होने वाली गोलाबारी के दौरान होना चाहिए। सुखे पत्तों पर गोली चलने से पैदा होने वाली चिंगारी का कोई चिन्ह नजर नहीं आया। टीम सदस्य पेड़ों व दीमकों की पहाड़ी पर गोलियों के निशान या अन्य चिन्ह देखने के लिए खुद चारों ओर घुमे, परन्तु केवल कुछ पेड़ों पर कटाव के निशान है परन्तु एक भी दीमक की पहाड़ी नष्ट नहीं हुई और भारी राईफल और मोर्टार के कारण जलने या आग लगने का कोई साफ चिन्ह नजर नहीं आया।

ग्रामीणों के वक्तव्य: सोराकट्टा गावड़ी में हमें बताया गया कि घटना के दो दिन पूर्व से ही सुरक्षा बलों की आवाजाही हुई थी और यह 24 नवम्बर को यह आवाजाही बहुत ज्यादा बढ़ गई और सुबह 10 से 11 बजे के दौरान पुलिस बलों ने ग्रामीणों को घर के अन्दर रहने और बाहर नहीं निकलने को कहा। ग्रामीणों के अनुसार इन दिनों में सुरक्षा बलों की भारी तैनाती के दौरान उन्होंने कोई उद्घोषणा तक नहीं सुनी, पुलिस द्वारा किशन जी को आत्मसमर्पण करने के लिए कहने की बात तो छोड़ ही दिजिए। 24 तारीख शाम के 4-5 बजे उन्होंने ऊंची-ऊंची आवाजें सुनी और उसके बाद 15 से 30 मिन्ट तक गोलीबारी की आवाजें सुनाई दी। यह बात महत्वपूर्ण है कि एक स्थानीय नीम हकीम डाक्टर बुधेव महतो और 20 साल के छात्र ताराचंद टुडु को उठाया गया था और उन दोनों पर केस नम्बर. 46/11, तिथी 25/11/2011 दर्ज किया गया और भारतीय दंड संहिता की धारा 307 व अन्य धाराओं के तहत उन पर आरोप लगाए गए।

बुरीसोल से 5 किलोमीटर दूर गोसाईबंध में स्थानीय कालेज में भूगोल स्नातक में तीसरे साल के छात्र धर्मन्द्र को किशन जी को आश्रय देने के आरोप में उठाया गया और पुलिस का दावा है कि उससे एक लैपटॉप बरामद हुआ है। परिजनों का कहना है कि वो बैग धर्मेन्द्र का है और उसमें कोई लैपटाप नहीं था, बल्कि उसमें 20,000 रूपये थे जिन्हें चुरा लिया गया है और साथ ही राशन कार्ड, सर्टिफिकेट और ओबीसी कार्ड भी जब्त कर लिए गए हैं।
पुलिस स्टेशन जामबोनी: टीम सदस्यों ने एसआई सब्यासाची बोधक से बात की और उनसे पूछा कि उन्हें मुठभेड़ की सुचना कब मिली, यह सूचना उन्हें किसने दी और साथ ही एफआईआर किसने दर्ज की क्योंकि यह उसका अधिकार क्षेत्र है। उसके अनुसार उन्हें यह सूचना रात को 10.30 बजे जंगलमहल के अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक आलोकनाथ राजौरी ने दी। और इसी अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक ने एफआईआर दर्ज की। यह गौर करने लायक है कि जांच की जिम्मेवारी उपपुलिस अधीक्षक सीबी-सीआईडी को दी गई है जबकि शिकायतकर्ता उच्चाधिकारी है। यह प्राकृतिक न्याय के उस सिद्धांत का उल्लंघन है जिसके तहत शिकायतकर्ता अधिकारी से उच्च अधिकारी ही अपराध की जांच पड़ताल करता है।

हम किशन जी के शव पर मिली चोटों की प्रकृति के बारे में याद करना चाहते हैं। इसमें गोलियां थी, नुकिले घाव थे और जली हुई चोटें थी। आश्चर्यजनक रूप से उनकी कमीज और पैंट पर उनके शरीर के हिस्सों के जख्मों के अनुरूप जख्म के कोई निशान नहीं थे।

1. सिर पर चोट
दांयी आंख गोलक में से लटक रही थी।
निचला जबड़ा गायब था इसकी बजाय वहां जलने के निशान थे।
सिर के पिछले हिस्से खोपड़ी के हिस्से गायब थे।
चेहरे पर चार जगह संगीन जैसे चाकू के निशान थे।
गले के एक तिहाई हिस्से पर चीरे के निशान थे।
2. दांयी बाजू की हड्डी टुटी हुई थी जबकि त्वचा पर कोई बाहरी चोट नहीं थी।
3. दांयी बाजू पर गोलियों से जख्म के तीन निशान थे।
4. बांयी तलवे की त्वचा गायब थी और जली हुई थी।
5. बांये हाथ के दूसरी उंगली का एक तिहाई हिस्सा टुटा हुआ था।
6. शव की छाती की ओर 30 से ज्यादा संगीन जैसे घाव के निशान थे।

हम कार्यकारी मजिस्ट्रेट द्वारा बनाई गई जांच रपट और पोस्टमार्टम की रपट लेने में नाकामयाब रहे। फिर भी टीम सदस्यों ने इसे पढ़ा और इसमें से नोटस बनाए। आश्चर्यजनक रूप से गोली घुसने और बाहर निकलने से होने वाले जख्मों के अलावा उपरोक्त किसी भी जख्म को रिकार्ड नहीं किया गया।

हमारी छानबीन: शव को हुए नुक्सान के स्तर को शव मिलने वाले स्थल के चारो तरफ की अबाधित जगह से मिलाने पर हमारे मन में सरकार की कहानी पर संदेह उपजता है। रिपोर्ट हुई सरकार की कहानी में विसंगतियां भी हैं। उदाहरण के तौर पर, मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का दावा है कि किशन जी और उनके साथियों की घेराबंदी तीन दिन चली और उन्हें आत्मसमर्पण के लिए कहा गया, परन्तु ग्रामीणों ने लाउडस्पीकर से होने वाली किसी भी तरह की सार्वजनिक उदघोषणा को सुनने से इन्कार किया है, किशन जी को आत्मसमर्पण की कहना तो दूर की बात है। सीआरपीएफ की महानिदेशक विजय कुमार ने 25 नवम्बर को कहा कि मुठभेड़ में किशन जी तीन अन्यों लोगों के साथ मारे गए, जबकि केवल एक ही शव बरामद हुआ! 15-20 मिन्ट चली मुठभेड़ में सैंकडों गोलियां चलने की बात शव मिलने वाले स्थल के अनुरूप नहीं है।

किशनजी की हत्या पश्चिम बंगा सरकार और सीपीआई(माओवादी) के बीच बातचीत शुरू करवाने की शुरूआती कोशिशों की पृष्ठभूमि में की गई है। उनकी मौत से इन प्रयासों का बहुत धक्का लगेगा। हमें आश्चर्य है कि यह उसी बात का दोहराव है, जो पिछले साल की 1-2 जूलाई को चेरूकूरी राजकुमार उर्फ आजाद की झूठी मुठभेड़ में हत्या के दौरान घटित हुई थी।

हम हथियारबंद विवाद के इलाकों में घटित अपराध के संदर्भ में प्रशासन की एक शाखा द्वारा दूसरी शाखा के कामकाज की जांच के बारे में बात करना चाहते हैं, इस केस में सीबी-सीआईडी द्वारा संयुक्त बलों की भूमिका की जांच को निष्पक्ष और तटस्थ नहीं माना जा सकता। हम मानते हैं कि एक स्वतंत्र जांच जैसे एसआईटी के जरिए ही सच को सामने लाया जा सकता है।

इसी से हमारा संदेह पुख्ता होगा कि यह हिरासत में मौत का मामला प्रतीत होता है। इसलिए हम मांग करते हैं कि:

1. सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट के सेवारत या सेवानिवृत न्यायाधीश की अगुआई में किशन जी की मौत की परिस्थितियों के बारे में स्वतंत्र न्यायिक जांच की जाए।
2. भारतीय दंड संहिता की धारा 302 के तहत आपराधिक केस दर्ज किया जाए।

देबाप्रसाद रायचौधरी (महासचिव, एपीडीआर)
सी एच चन्द्रशेखर (महासचिव, एपीसीएलसी)
भानू सरकार (सकेट्रीयेट सदस्य, बीएमएस)
गौतम नौलखा (सदस्य, पीयूडीआर)

रविवार, 4 दिसंबर 2011

Indian 'Republic Killing Its Own Children' -- Kishenji Fought for a Better World

by Bernard D'Mello

India's Union Home Minister P Chidambaram, West Bengal Chief Minister (also in charge of the province's home affairs) Mamata Banerjee, Union Home Secretary R K Singh, and the top bosses of the security forces involved in the operation have all been bent on establishing one point: that the alleged encounter in the Burishol forest in West Midnapore district, 10 km from the West Bengal-Jharkhand border, in which Mallojula Koteswara Rao, popularly known by his nom de guerre Kishenji, a member of the politburo of the Communist Party of India (Maoist) [CPI (Maoist)], was supposedly killed was "real". Frankly, given the complicity of the media bosses and the journalistic profession (the latter, at the higher levels) with official mendacity, we must admit that the circumstances of his death are as yet unknown. A press statement from Abhay, spokesperson of the Central Committee of the Party, dated 25 November 2011, unambiguously states that Kishenji was killed "after capturing him alive in a well planned conspiracy".1

The renowned radical Telugu poet Varavara Rao, who accompanied Kishenji's niece Deepika to bring the body back to Kishenji's hometown of Peddapalli in Karimnagar district of Andhra Pradesh, is reported to have said: "In the last 43 years, I have seen so many bodies killed in so-called encounters but have not seen a body like this one. . . There is no place on the body where there is no injury."2 Indeed, according to CDRO (Coordination of Democratic Rights' Organisations) activists who saw the body before the commencement of the postmortem, "on the back side of the head, part of [the] skull [and] brain [was] missing"; the right eye had come out of the socket; the lower jaw was "missing"; there were four stab wounds on the face; knife injuries were observed on the throat; there were hand fractures and two bullet injuries under one of the arms; "one-third of the left hand index finger was removed"; there were signs of enrooted bullets through the lungs; the right knee was hacked; the foot of the left leg was "totally burnt"; in all, "there were more than 30 bayonet-like cut injuries on the front of the body". And, while there were "bullet, sharp cuts and burn injuries", "surprisingly" there were "no injury marks on his [Kishenji's] shirt and pant corresponding to [those on] his body parts". (The postmortem report is yet to be handed over to Kishenji's relatives.)

A press release ("Killing the Talks and Faking an Encounter", Kolkata, 2 December 2011) by the CDRO -- based on the observations of a CDRO fact-finding team who visited the spot in Burishol forest where the alleged encounter took place on 24 November -- states that "the extent of the damage caused to the body against the rather undisturbed surrounding of the spot where the body lay raises our suspicion about the official version". Indeed, "right next to where his [Kishenji's] body lay on the ground is a termite hill" that "remains undamaged by all the alleged exchange of fire". Indeed, even nearby, "not a single termite hill was damaged and [there was] no visible sign of burn or fire due to heavy rifle and mortar firing!" Clearly, the veracity of the official story must be seriously doubted (actually, there are now versions of it that are contradicting each other!) and it is high time that an independent judicial inquiry headed by a sitting or retired Supreme Court or High Court judge into the circumstances surrounding Kishenji's death is constituted at the earliest.

You Couldn't Have Remained Unmoved by His Spirit

The Indian public knew Kishenji from the media's cameras that showed his cotton-clothed back with a scarf around his head, a gun draped over his shoulder. Those who loved him were the ones who were to lose the most from the private expropriation and exploitation of jal-jangal-zameen (water-forests-land), part of the natural resource base of India's eastern and central states, by multinationals, Indian and foreign. Those who detested him -- and considered him and his party, the CPI (Maoist), the biggest internal security threat for the power elite and the ruling classes -- had, in the name of peace, declared war -- "Operation Green Hunt" -- on the very people who backed him.

Born in 1954 in Peddapally town (in Karimnagar district, north Telangana), Kishenji was raised by his father Venkataiah (a "freedom fighter", he called him) and his progressive mother Madhuramma. Inspired by the Naxalbari and Srikakulam movements,3 he became an active member of the Andhra State unit of the Communist Party of India (Marxist-Leninist) [CPI (ML)] in 1974 and played a prominent part in the peasant struggles in Sircilla and Jagtial taluks of his home district of Karimnagar that were declared 'disturbed areas" in October 1978. It was in the course of the struggle in Jagtial that both Mupalla Laxman Rao ("Ganapathy"), the present General Secretary of the CPI (Maoist), and Kishenji came to the fore in the Andhra Pradesh unit of the Party because of their excellent organising abilities. Indeed, it was in Karimnagar and Adilabad districts of north Telangana that the first seeds of the fresh tactical line called "Road to Revolution" -- formulated by Kondapalli Sitaramaiah and his close comrades after a thorough, critical review of the strategy and tactics of the CPI (ML) since 1967 -- began to sprout in the peasant movement there, soon after the Emergency was lifted. Thus, the CPI (ML) (People's War) [CPI (ML) (PW)], formed on 22 April 1980, was, so to say, the result of the actions of peasants, workers, and revolutionary intellectuals at the base.

The immediate aim was to build guerrilla zones in north Telangana and Dandakaranya (as per the Party's "Perspective for a Guerrilla Zone") by the early 1990s, and in this, Kishenji played no small part. Under the leadership of the CPI (ML) (PW), a section of the workers, the poor peasants and landless labourers, dalits, the backward castes, and adivasis (indigenous people), stood up, with a voice of their own, the courage to speak out against oppression and exploitation and resist political domination. Kishenji was a member of the Andhra Pradesh State Committee of the Party when he was transferred to Dandakaranya in 1986 to expand and strengthen the movement there, parts of which emerged as a guerrilla zone where the Party and its mass organisations exercised power as long as the guerrillas had the upper hand over the state's forces, the zone reverting to the state when the guerrillas were forced to retreat. In such a context, and now in the midst of Operation Green Hunt, the Party, the People's Liberation Guerrilla Army (PLGA), the mass organisations and the Area Revolutionary People's Committees are still not able to assure the tribal peasants a modicum of security by preventing the Indian big bourgeoisie and the transnational corporations from destroying the adivasis' human and natural environment. Indeed, such security seems a long way off, and the Party still has to work towards removing jal-jangal-zameen, labour and money from regulation by the market forces of neo-liberal globalisation. Besides physical security, there is also the question of assuring the habitability of the natural environment as well as the security of the tribal peasantry in their socio-cultural environment. Without the formation of base areas, all this will remain a far cry.

From the mid-1990s, Kishenji, now a member of the Central Committee of the Party, worked to bring unity among the revolutionary forces (those who had safeguarded the essential legacy of Naxalbari in the post-Emergency period) and to revive the Naxalite movement in West Bengal. In the Jangalmahal area of West Bengal, it was Kishenji and his close comrades, the late Sasadhar Mahato (killed by the security forces in an encounter in March this year) among them, who undertook -- what Ho Chi Minh would have called -- the long, patient organisational work which precedes the firing of the first shots. The unity of the CPI (ML) (PW) with the CPI (ML) (Party Unity) in August 1998 and later, in September 2004, of the CPI (ML) (PW) with the Maoist Communist Centre of India to form the CPI (Maoist) alarmed the Indian ruling classes; the revival of the movement in West Bengal in November 2008 unnerved the reformist CPI (M)-led government there.

Now in his mid-50s, Kishenji showed that he can still rough it out like a young guerrilla, inspiring his junior colleagues, those in the springtime of their lives. The energy and conviction with which he was imbued in the struggle for a better world led him to live a simple life, almost like that of an ascetic. The source of this morality came from, we think, the spirit and passion with which he went about the vocation of organising the class struggle. He lived what he advocated -- that all comrades must care for each other, love and help each other, that the basic attitude of the "officers" in the PLGA should be one of sharing weal and woe with the "soldier"-guerrillas; the relationship with the latter had to be one of mutual respect; and respect for the human dignity of the "prisoners of war" once they had surrendered their arms had to be part of the guerrillas' ingrained attitude. (The fair treatment of the former Sankrail police station Officer-in-Charge Atindranath Dutta, who was taken hostage by the Maoists in October 2009, might bear the latter out.) Kishenji built good relations with the people -- he was always concerned about them and helped them overcome many of their difficulties -- all through his long march from Jagtial to Jangalmahal. The PLGA had to become one with the people so that the latter see the guerrillas as their own.

Revival of the Combative Spirit of Naxalbari in West Bengal

This brings us to the Lalgarh movement, which was led by Kishenji on behalf of the CPI (Maoist). The West Bengal government had handed over some 4500 acres of forest land to the Sajjan Jindal business group at Salboni in the district of West Midnapore even as the government's land reform programme of allotting pattas (formal rights) for cultivable forest land and forest land under cultivation to poor tribal peasants was kept in cold storage. The reign of terror let loose on the adivasis -- in the wake of the detonation of a landmine that narrowly missed the cavalcade of the then West Bengal Chief Minister Buddhadev Bhattacharjee on 2 November 2008 on the way from after a foundation stone-laying ceremony at the site of the Jindal project -- was actively resisted, for, with Maoist backing led by Kishenji, their dignity could no longer be crushed. By mid-November, the Pulishi Atyachar-er Birudhhe Janasadharan-er Committee (People's Committee against Police Atrocities, the PCAPA) was formed to lead the mass struggle in Lalgarh and the adjoining areas.

From December 2008 to June 2009, as long as Maoist politics was in command, what was really heartening were the direct forms of people's democracy in practice: each village now had a gram (village) committee with five women and five men on it; two persons, a man and a woman from each village, were a part of the central coordinating committee; the manner of taking and ratifying decisions was utterly democratic; officials were made to sit on the ground on handwoven mats on equal terms to negotiate with the committees. And, with the meagre resources at its command, the PCAPA-led mass movement was able to run health posts with doctors from Kolkata coming in once a week, construct and repair embankments, dig ponds, set up tube wells, teach the local language in some schools, a lot of all this through shramdaan (voluntary labour).4

Spring, it seemed, was truly in the air. As long as it lasted, for seven months the PCAPA and the CPI (Maoist), led by Kishenji, together seemed to have struck an astute balance between political mobilisation, armed actions, and social welfare/"development" activity. But when they destroyed the "White House", a symbol of the "ancient regime", the palatial house of Anuj Pandey, the Communist Party of India (Marxist) [CPI(M)] zonal secretary, at Dharampur on 14 June 2009, that was the last straw. The Joint Forces (JF) of the central and state governments moved in like an occupation army, with the CPI (M) harmads acting as their local collaborators. The Maoist tactics of successfully combining mass political mobilisation and armed struggle suffered a setback. Moreover, Kishenji erred in handling the contradictions between the CPI (M), then the ruling party, and the Trinamool Congress (TMC), led by Mamata Banerjee, then the main opposition party. And, his aggressive sectarian and ultra-left adventurist tactics cost the Party and the mass movement dearly, for these acts brought on state repression a multiple of what it would have otherwise been. The contradictions between the Maoist revolutionaries and the social-democratic CPI (M) at the local level need not have been escalated to the point of becoming intensely antagonistic. And, some of the (excessive) killings -- were the Maoists really annihilating class enemies? Ultimately, it was the Trinamool Congress who took advantage of the situation to defeat the CPI (M) candidates in the area in the assembly elections in April-May this year.

As part of her promise of ushering in parivartan (change), Mamata Banerjee pledged the withdrawal of the JF that, for the adivasis, has been an occupying force since mid-June 2009, the unconditional release of all political prisoners, especially the hundreds of adivasis arrested and dumped into jail in the course of the JF operations, and a dialogue with the Maoists; but, on assuming power, she has now reneged on all of these pledges. Instead, the recruitment of some 10,000 special police havildars(constables), on the lines of the Salwa Judum in Chhattisgarh, is on the anvil. And, the TMC's own Bhairav Bahini has been assisting the JF just like the CPI (M)'s harmads did as collaborators of that occupational force. Indeed, many of the harmads have shifted allegiance to the TMC's Bhairav Bahini. A "development package" with "surrender" sops, the re-deployment of the JF with the Commando Battalions for Resolute Action, the so-called COBRA, at its core, the stepping up of training of the state's armed police in jungle warfare, a strengthening of the Naxalite section of the Intelligence Bureau on the lines of the Special Intelligence Bureau of Andhra Pradesh (APSIB), and the state's Counter Insurgency Force along the lines of the Greyhounds, all these are seen to have yielded results -- a mood of triumphalism now prevails after the "hunting" down of Kishenji.

Now, while much of the credit for the revival of the Maoist movement in the Jangalmahal area of West Bengal must go to Kishenji and his close comrades, like the late Sasadhar Mahato, they will have to bear much of the responsibility for the present setback there too.

'Encounters Are Murders'

"Encountering" (extra-judicial killing) of Maoist leaders is not new; neither is the main component of the Indian state's counterinsurgency strategy of killing the top leadership of the revolutionary movement in order to wipe out the Party. Vempatapu Satyanarayana (popularly known as 'Gappa Guru') and Adibhatla Kailasham -- school teachers who organised the Girijan peasants of Srikakulam since 1955, launched an armed struggle in 1967-68, and joined the CPI (ML) in 1969 -- were "encountered" by the police in July 1970. Subbrao Panigrahi -- known for Jamukulakatha (theatrical rendering of songs in a folk idiom) -- who played a major role in extending the Srikakulam movement into the province of Orissa, was captured and murdered by the police in December 1969. Indeed, one recalls with horror the encounter killings in Andhra Pradesh prior to and during the dark days of the Emergency period, a few of which were investigated in detail by the committee (set up by Jayaprakash Narayan, as president of the Citizens for Democracy) headed by V M Tarkunde, due mainly to the painstaking work done by K G Kannabiran as member-secretary and a group of committed civil liberties activists.

More recently, and again, much of it related to tragic happenings in Andhra Pradesh, at the core of the target of the counterinsurgency operation was the Party leadership -- to be physically eliminated. We list here the killing, in cold blood, of some members of the core of the leadership of the Andhra Pradesh unit or the Central Committee of the CPI (Maoist), among the most outstanding the Party had nurtured and developed over the years.

  • Settiraju Papaiah (alias Somanna), a member of the Special Zonal Committee of north Telangana, was abducted by the APSIB in Bangalore (the capital of the province of Karnataka) on 29 June 2006, brutally tortured, and killed on 1 July; and his body was thrown in the forests of Warangal in Andhra Pradesh.
  • Burra Chinnayya, alias Madhav, state secretary of the Party, and seven of his comrades were killed on 23 July 2006 when the Greyhounds and a special police force of a battalion size attacked the headquarters of the AP State Committee in the Nallamala forests. The attackers had precise information; it is said that they even knew the exact tent of which Madhav was an occupant.
  • Raghaulu -- a member of the A P State Committee of the Party who came from a poor peasant family and grew up as a cattle-herd boy -- and eight of his comrades were killed on 8 November 2006 in a forest area in Cuddapah district.
  • Chandramouli, a Central Committee member of the Party and a member of its Central Military Commission, and his wife Karuna, a barefoot doctor, were cold-bloodedly murdered in the Eastern Ghats on the Andhra-Orissa border on 29 December 2006, when they were on their way to the Party Congress.
  • Patel Sudhakar Reddy (alias Suryam, Vikas), a Central Committee member, and his comrade Venkatayya were picked up in Nasik (in the province of Maharashtra) on 23 May 2007, airlifted to Warangal, brutally tortured, and murdered the next day; and their bodies were thrown in the Lavvala forests there.

So Kishenji's killing is very much part and parcel of the established criminal practice of state terrorism.

Can this utter contempt for the law go unchallenged? These state-sponsored terrorists have to be stripped of their impunity and brought to justice. Early this year, a bench of justices Aftab Alam and R M Lodha of the Supreme Court said, responding to two public interest litigations related to the fake encounter in which Cherukuri Rajkumar ("Azad"), CPI (Maoist) politburo member and party spokesperson, and journalist Hemchandra Pandey were shot dead in Adilabad district on the night of 1-2 July 2010 by the Andhra Pradesh police after being picked up at or near Nagpur: "We cannot allow the republic killing its own children". Like the Azad fake encounter case, the Kishenji one too seems to be part of the genre where "impunity breeds contempt for the law". Such scorn for the legal code is by now ingrained in the wielders of repressive power -- recidivists in the coercive apparatus of the Indian state. Kishenji's elimination is really vendetta killing by such recidivists, for he, above all, combated state terror to the very end.

Raise the Red Flag, Sing the Internationale

No doubt, as the Central Committee of the CPI (Maoist) puts it, "the martyrdom of comrade Koteswara Rao is a great loss to the Indian revolutionary movement", but it is that very movement -- with all the ups and downs, blunders and triumphs -- that still holds out hope for a better world. The unprecedented deployment of police on 27 November in Kishenji's hometown of Peddapalli couldn't deter the thousands upon thousands of mourners, a multitude, who came to pay homage to the memory of the Maoist revolutionary on the day of his funeral. His mother Madhuramma, now in her mid-80s, was inconsolable; she hadn't seen her son for more than three decades, and now, it was his dead body. The anguish Madhuramma felt must have been unbearable. The day after her son was killed, she put it poignantly:5

My son believed in something and he was murdered for that. I want to know how and who are the people behind his killing. I will go to the Calcutta High Court and, if necessary, to the Supreme Court to find out why they killed him like that. . . . I have not seen my son for 37 years. Now I cannot bear to see his body. I waited all these years to see him once before I die. I hope I die before his body arrives, I cannot live anymore.

Meanwhile, the songs that the balladeer Gaddar rendered brought tears to the eyes of those who had gathered there. Madhuramma was not alone, for there were thousands of saddened admirers of the son she had raised, who had gathered to form the multitude. Kishenji's memory, his life, his work belongs to those who want to create a better world. Cries of "Amar raheKishenji", "Johar Amarajeevi Kishenji" and "Comrade Kishenji, Lal Salaam" filled the air -- his heritage truly belongs to the poor peasants, the workers, the revolutionary intellectuals. No doubt, Kishenji will hold an important place in Maoist revolutionary history for he truly brought to bear on his practice the Maoist adage that "revolutionary war . . . can be waged only by mobilizing the masses and relying on them".

1 <www.bannedthought.net/India/CPI-Maoist-Docs/Statements-2011/111125-CC-KishenjiMartyrdom-Eng.doc>

2 Shiv Sahay Singh, "Kishenji's Body Handed Over to Niece" (The Hindu, 27 November 2011).

3 Sumanta Banerjee's In the Wake of Naxalbari (Kolkata: Sahitya Samsad, 2008) -- first published by the Calcutta publisher Subarnarekha in 1980, and then by Zed Press, London in 1984 under the title India's Simmering Revolution: The Naxalite Uprising -- is an authentic and moving account of the Naxalbari (chapter 4) and Srikakulam (chapter 5) movements.

4 For a "blow-by-blow" account of the Lalgarh movement, see Sanhati's Lalgarh Movement Archives at <sanhati.com/front-page/1083/>.

5 "Not Seen Son for 37 Yrs . . . Can't Bear to See His Body: Kishenji's Mother" (Indian Express, 27 November 2011).


Bernard D'Mello is deputy editor, Economic & Political Weekly, and a member of the Committee for the Protection of Democratic Rights, Mumbai.

शनिवार, 3 दिसंबर 2011


कमेटी फॉर द रिलिज ऑफ पॉलिटिकल परिजर्न्स (सीआरपीपी)
185/3ए चौथी मंजिल, जाकिर नगर, नई दिल्ली- 110025

जनकलाकार जीतन मरांडी और अन्यों को मौत की सजा देने का विरोध करो!
राज्य द्वारा मौत की सजा देने का विरोध करो!

कन्वेंशन के लिए आमंत्रण
इंटरनेशनल इंडिया सेंटर, 40, मैक्स मूलर मार्ग, (नजदीक खान मार्किट मेट्रो स्टेशन,) दिल्ली,
20 दिसम्बर 2011, 10 बजे सुबह से 8 बजे शाम तक

30/11/11
प्यारे दोस्तों,

हम सीआरपीपी की तरफ से आप सबका अभिनंदन करते हैं।
उदारीरकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण की नीति के तहत जनता पर राज्य के रोजाना बढ़ रहे हमलों के कारण उपजे विस्थापन, विनाश, वंचना और मौत का प्रतिरोध करने के अलावा जनता के पास कोई विकल्प नहीं है। जवाब में राज्य मौत की सजा का प्रयोग इसलिए करता है ताकि जनता के प्रतिरोध को कुचला जा सके। तथाकथित ‘आतंक पर युद्ध’ भी एक ऐसा आसान बहाना है जिसके जरिए राज्य सभी तरीके के राजनैतिक असहमतियों को आपराधिक घोषित कर देता है और उपमहाद्विप में अल्पसंख्यक समुदायों को निशाना बनाता है। सीआरपीपी ने एक दिन की कन्वेंशन करने का निर्णय लिया है जिसमें भारतीय राज्य द्वारा मौत की सजा को जनता के खिलाफ प्रयोग करने का विरोध किया जाएगा।

इस संदर्भ में झारखंड के सांस्कृतिककर्मी जीतन मरांडी और अन्यों को दी गई फांसी की सजा का अति महत्व है। जीतन मरांडी सीआरपीपी का सचिव भी है। दिल्ली में होने वाली कन्वेंशन में जनकलाकार जीतन मरांडी और अन्यों को दी गई मौत की सजा के फैसले पर केंद्रीत करते हुए मौत की सजा का विरोध करने पर बल दिया जाएगा। कन्वेंशन 20 दिसम्बर, 2011 की सुबह 10 बजे से सांय 8 बजे तक इंडिया इंटेरनेशनल सेन्टर में होगी।

ऐसे दौर में इस गोष्टी का होना बहुत महत्वपूर्ण है जब राज्य सभी तरह की असहमतियों को दबाने के लिए उन्हें आपराधिक घोषित कर रहा है। यह भी महत्वपूर्ण है कि एक गरीब किसान परिवार में जन्में जीतन मरांडी अपनी सामाजिक स्थिति के कारण और जनता के कठिन जिंदगी को देखकर गीतों के माध्यम से राज्य के बढ़ते दमनकारी रूझान का पर्दाफाश करने की कोशिश कर रहे थे और उत्पीड़न और शोषण के सभी तरीकों के खिलाफ व्यापक जनता को गोलबंद होने की आवश्यकता पर बल दे रहे थे। झारखंड के शोषित और उत्पीड़ित आदिवासियों के सांस्कृतिक मंच ‘झारखंड एभेन’ का हिस्सा बनकर जीतन मरांडी ने लोगों की आकांक्षा और दुःख-दर्द को अभिव्यक्ति दी। इसी प्रक्रिया में उनकी आवाज झारखंड के उत्पीड़ितों और शोषितों तक ही सीमित नहीं रही, बल्कि उन सभी की आवाज बन गई जो इस उपमहाद्विप में अमानवीय अस्तित्व के खात्में को सपना देखते हैं। वो उन सभी प्रकार के प्रतिरोधों के प्रतिनिधि बन गए जो सबसे वंचित, उत्पीड़ित और शोषित जनता के दुःख दर्द और गुस्से को आवाज देते हैं। ऐसा पहली बार हुआ है कि एक जनकलाकार कार्यकर्ता को केवल इस कारण से मौत की सजा सुनाई गई, क्योंकि उन्होनें सरकार की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ मेहनतकश जनता की भयावह स्थिति को गुंजायमान किया।

चिलखारी केस कानून के रखवालों की आपराधिक मिलीभगत के लिए कुख्यात है- जिसमें जीतन के खिलाफ झूठे गवाह खड़े करके सारी प्रक्रिया को फर्जी साक्ष्यों के जरिए तोड़-मरोड़ दिया गया; जिसमें कानून बैक सीट पर पहुंच गया और झारखंड की राजनीति में सत्ताधारियों की मिलीभगत से घृणा और बदला हावी हो गया। ऐसे में जीतन मरांडी को न्याय दिलाने के लिए आवाज बुलंद करना बहुत महत्वपूर्ण है।

समय की मांग है कि सभी तबके एकमत से फांसी की सजा का खासतौर पर इस फैसले की खिलाफत करें ताकि इस फैसले के खिलाफ आवाज को सशक्त किया जा सके और जीतन मरांडी का बरी होना सुनिश्चित हो सके। सीआरपीपी कन्वेंशन में जीतन मरांडी की रिहाई को सुनिश्चित करने के लिए ‘बचाव कमेटी’ बनाने की प्रक्रिया की शुरूआत भी करेगा। हम जल्द ही कार्यक्रम की विस्तृत रूपरेखा और जीतन मरांडी के बारे में तथ्य पत्र जारी करेंगें।

इतिहास गवाह है कि जब भी लोग राज्य की इस तरह के जघन्य निर्णयों के खिलाफ इक्ठ्ठा हुए हैं, तो राज्य के पास जनता की सामूहिक इच्छा के समक्ष झुकने के अलावा कोई चारा नहीं बचता। हम सभी प्रगतिशील, जनवादी ताकतों से अपील करते हैं कि वे जीतन मरांडी को बरी कराने और इसी प्रक्रिया में सभी राजनैतिक बंदियों को बगैर शर्त रिहा कराने की मुहिम को सशक्त बनाने के लिए इस संघर्ष का हिस्सा बने।

एकजुटता में,

एस ए आर गिलानी
कार्यकारी अध्यक्ष,

अमित भट्टाचार्य
महा सचिव,

रोना विल्सन
सचिव, जनसम्पर्क

गुरुवार, 1 दिसंबर 2011

शहर में वापसी

यह हमारा शहर है
दो नदियों के लपेटे में बसा यह शहर
कई कई नामों से जाना जाता है
यह प्यार का इजहार है
या इतिहास की करवटें
इस पर तयशुदा कुछ कह नहीं सकता
कभी इस पचड़े में गया नहीं
मेरे लिए तो यह शहर इलाहाबाद है।
यहां विशाल पार्क हैं
और विशाल मोहल्ले भी,
एक सीधी सड़क है
जो दारागंज से चौक होते बमरौली निकल जाती है
बीच में चौक पर नीम के पेड़ हैं कोतवाली के सामने
जहां मारे गए थे प्रथम स्वाधीनता सेनानी,
इसके ठीक सामने एक घुमावदार गली है
जो जोड़ती है राजाबाग को रानीबाग से
होली के दिन इन्हीं गलियों से जुलुस निकलता है
इसके पीछे उतार पर मीरगंज है
इस नाम में आज भी जादू है
इस पर बदनामियों के धूल की खूब आमद है
इसके नीचे दफन है आज भी कुछ मेहराब, थाप और राग
चौक के इस आशियानें पर कभी लगता था मजमा
और होता था शहर इलाहाबाद
अब तो यह बस नाम है बदनामी के संग
अब तो शहर कहीं और है
अब तो लोगों का आशियाना कहीं और है।
बैरहना में विशाल कब्रस्तान है अंग्रेजों का
पत्थरों के सिल्लों पर उनके मौत का आलेख है
मौत की नींद पाए लोगों पर ऊंची चाहरदीवारी है
और संड़क के उस पार पूरब में
कुंभ का विशाल मैदान है
जो उतरते हुए चला जाता है ठेठ संगम तक
यहीं अकबर का किला है
जो यमुना के जल को छूता है।
गंगा के इस पार हनुमान का प्राचीन मंदिर है
और उस पार पांडवों का मिट्टी का किला है
बाईं ओर बसा है दारागंज मोहल्ला
जिसके बासीन थे निराला
जो पैदल पैदल चले आते थे आनंद भवन तक
गेट पर खड़े हो पुकारते थे - अबे, ओबे गुलाब!
इस शहर का यह पुराना मिजाज है
जो चला आ रहा है अब भी ....
यह अलग बात है कि दूधनाथ सिंह इसी मिजाज के साथ
झूंसी में जा बसे हैं
निलाभ दिल्ली में।
कहते हैं अंग्रजों के जमाने में सिविल लाइंस की संड़कें भी
अंग्रेजों की गुलाम थीं
मेरे आने तक बसों का सारा जमावड़ा यहीं था
कॉफी हाउस और चर्च वाला चौराहा
शाम की तफरी के लिए सबसे मुफीद जगहें थीं
अब तो कॉफी हाउस के सामने खुल गया है विशाल मॉल
चर्च पहले से कहीं अधिक चमक उठा है
यह अपनी ही प्रतिकृति लगने लगा है,
सिविल लाइंस के फुटपाथ अब बेफिक्र नहीं रहे
वहां चढ़ आती हैं गाड़ियां
प्रेम में बेफिक्री की तासीर पर पड़ चुका है पूंजी का डाका
फिर भी इस शहर में पागलों से अधिक कवि हैं
और प्रेमियों से अधिक रकीब।
कहते हैं यह शहर बाढ़ में पूरा कभी नहीं डूबा
शहर के नए मोहल्ले जरूर डूबने को हो जाते हैं
इस दृृश्य का लोग मुरमुरे खाकर मजा लेते हैं,
यहां हर मुहल्ले में है एक शास्त्रीय संगीत घराना
हरएक मुहल्ले में कवि, कथाकार, आलोचक
हर एक का अपना अपना आंदोलन
अपना अपना तराना
पर क्या मजाल की भटक जाए कोई विसम स्वर से भी
लोग हैं कि सुर्ती की ठोंक पर ताल देते हैं
कोई पिनक कर छोड़ दे यह शहर
जा बसे मुंबई, भोपाल, ......, तो क्या!
यह शहर तो अपनों का ही बाशिंदा है,
क्या संगीत समिति, क्या हिन्दूस्तानी एकेडमी, .....
यह शहर रचनाकारों के घर घर में बसता है।
इस शहर के सबसे ऊॅचे पर इलाहाबाद विश्वविद्यालय है
गोथिक कला का नमूना
मौसम साफ हो तो शहर के हर कोने से दिखता है,
यहां मुहल्ला कटरा है
आरजू लिए यहां बसते है छात्र
और सड़क किनारें बिकती रहती हैं बेशुमार अर्जियां
यहां सबसे अधिक गांव के युवा आते है
हसरत से सराबोर दिन भर शहर घूमते हैं
चप्पल चटकाते हुए गली गली झांक आते हैं
वे गंगा के पाट की हवा जरूर खाते हैं
और भोजन में नमक इतना ही सही
प्यार जरूर करते हैं
किताब के पन्नों से अधिक सपने देखते हैं
यह अलग बात है कि समय के बेंत का
पीठ पर पड़ना कभी बंद नहीं होता
उम्र बढ़ने पर यही समय लउर हो जाता है
नौकरी की अर्जीयों में बंद होती जाती हैं चाहतें
कभी खुल भी गई अर्जियां
तो वे सरपट भागते चले जाते हैं नाक की सीध में,
जिनके पैरों में न जूते टिकते थे न ही चप्पलें
टूटे ही रहते थे उनके मियानी के धागे ....
वे पूरे के पूरे फाइलों की शक्ल होते जाते हैं
और उनकी आंखें जर्द कागज ।
यमुना पर पहले एक पुल था अब दो हैं
दोनों दो कालेजों के मुहाने पर खुलते हैं
और बाहर नैनी जेल के पास से गुजरते हैं
मैं इस जेल में से हो के आया हूॅं
इस जेल मंे हजारों कैदी हैं
गांव से, इसी शहर से, ....
रूलदार खाते में पुलिस मुंशी रोज ही दर्ज करता है नाम -
जो भी कैद है वह अपराधी हैं या अपराध का आरोपी,
सभ्यता की सबसे दागदार इमारत के बुर्ज पर
भारत सरकार ने गाड़ रखा है राष्ट्रध्वज
जिस पर न तो बसों के हार्न का असर पड़ता है
और न ही माताओं के श्राप का ....,
इसी में कैद हैं सीमा और विश्वविजय,
साइकिल चुराने के जुर्म में एक युवा,
खेत के झगड़े में फंस गए गरीब किसान
भठ्ठा मालिक के जाल में फंस गया मजूर
और सिपाही को भत्ता न देने वाला दुकानदार ....
सब के सब गुनाहगार
उन पर तैनात हैं संप्रभु राष्ट्र के होनहार सिपहसालार
यहां से होकर गुजरता है आधुनिक भारत का इतिहास....।
इस शहर में कई सारे पुल हैं
और कई सारे रेलवे फाटक
नैनी का का नया पुल मौज का अड्डा हो गया है
इसे पार करने पर खुलता है एक और पुल- मुलाकात
यहां नहीं है सुबह से शाम तक आनंद भवन सा मजमा
चंद मिनटों में यह बनता है
और फिर अरराता टूट जाता है
जब यह टूटता है
भीतर गुबार सा कुछ उठता है
शूल सा किलकता है, ....
इस पुल पर घर, गृहस्थी, यारी, दुनियादारी की ठांठें हैं
पुलिस, जज की बातें है
हुक्मरानों की कठदलीलों पर उसांसें हैं ....,
बात का बनना और टूटना है
आतुर आंख का भीगना और बिछड़ना है .....
आने के वादे पर वापसी करना है....
जिसे नहीं आना है इस पुल पर
इसी शहर में बेखबर मस्त है।
शहर में वापसी खींचकर ले जाता है लोहे के पुल पर
ट्रेन के गुजरने से जो अब भी थरथराता है
मैं इस शहर के भीतर उतरता जाता हूॅं
पांव पांव बाघंबरी बंधे तक चलता जाता हॅू
कछार के गहरे रंग पर तेजी से उतर रही है रात
मैं उतर आता हूॅ नियॉन लाइट से जगमग शहर के भीतर
आंख कबाड़ी सा खोजता निहारता है
सड़क, घर, इंसान, ...चाय की दुकान
पर नहीं मिलता है कुछ भी अनायास ही
अपने ही पांव के निशान ट्रकों से उठे गुबार में दब गए हैं।
इस शहर में बढ़ गया है शोरगुल, भीड़भड़क्का
अब कभी कभार ही दिखता है
राजापुर या संगम जाने को कोई इक्का
राह छोड़ चलने की इलहबादी लहकट आवाज
धकियाते हुए निकल जाती है बाइक या कार
यह शहर आपाधापी में लहूलुहान है अब
हम जो आदमी हैं अब भी, जाएं कहां
सहसों तक रियल स्टेट का कारोबार है।
यह शहर इलाहाबाद जो है
उस पर उग आए हैं धनिकों के टापुओं के दाग
मेरे लिए यह ककहरे की किताब है
इस शहर से मैंने शहरों को पढ़ना सीखा
अपने मिजाज में चलना सीखा
भाषण देने के पहले खड़ा होना सीखा
प्रेम के पहले प्रस्ताव पर दिल का टूटना सीखा
कविता से पहले अलाप लेने का सलीका सीखा।
इस शहर के चौराहे पर इंतहा अकेला नहीं हूं
इस शहर की गलियों मुहल्लों में मेरे दोस्त बसते हैं
जिनके दरवाजे मुकफ्फल बंद नहीं हैं
पर जितने हैं उससे कई गुना खो गए हैं
उनके बिना यह शहर पूरता ही नहीं है,
कुछ को सरकारी दफ्तरों ने खपा लिया है
कुछ को पद की दीमकों ने चाट लिया है
कुछ कुछ होने की श्राप में पाथर हो गए
कुछ गांव में हैं
कुछ गुरिल्ले बन गए हैं, ...
कुछ जेल में हैं
कुछ रिहा होकर गले मिले हैं अभी अभी
और अग्रिम जमानत की अर्जी देने निकल गए हैं ... ।
पहले पहल जब इस शहर में रोजान अखबार लगाया
पूरे अखबार में एक पृष्ठ होता था इलाहाबाद
अब तो अलग से छपता है कई पन्नों का इलाहाबाद शहर
पूरा शहर हो चुका है खबर
अलसुबह खुल जाती हैं कीटगंज, कटरा में चाय की दुकानें
चौक पर लग जाती है मजदूरों की मंडी
सब्जियों के टोकरे लादे हुए चलते चले आते हैं किसान
पीछे पीछे उनका परिवार ...।
मैं अलसुबह खड़ा हूं रसूलाबाद के घाट पर
लालिमा के विशाल कैनवास पर उठ रहा है सूरज
गंगा पर उतर आई है सुबह
चमक उठी है बहाव की सलवटें
धुंआ उगलते हुए गोमती मेल पार कर रही है फाफामऊ का पुल
उस पार से आ रही है एक डोंगी नाव....
यह सुबहे बनारस नहीं है
पर कुछ है जिसका लहू के रंग पर असर पड़ता है
कुछ है जहां खड़े होने पर सांस लेने का दयार खुलता है
कुछ है जो शहर में वापसी पर हर बार गुम रहता है
कुछ है जो शहर से वापसी पर साथ जाता है
कुछ है जो 99 डिग्री सेल्सियस ताप पर तपता रहता है।

---अंजनी कुमार, 20 अक्टूबर 2011, दिल्ली

बुधवार, 30 नवंबर 2011

JOINT PRESS RELEASE - strongly condemn the brutal and cold-blooded murder of Mallojula Koteshwara Rao


DELHI / 30.11.2011

We strongly condemn the brutal and cold-blooded murder of Mallojula Koteshwara Rao alias Kishanji by the security forces in the Burisole forest area of West Bengal.

Now it is very much clear from various sources that the Maoist leader Kishanji was first captured and severely tortured by security forces and then killed in a planned fake encounter under the connivance of both West Bengal and central governments. Mamata Banerjee government of WB has used almost the same weapon of ‘Peace Talk’ to eliminate the Maoist leader as by the R. S. Reddy government in AP.

It is a known fact that the central and various state governments are jointly conducting a special military operation Green to suppress Maoist activities. The unjustified and irrational killing of Kishanji is nothing but a part of state terror being unfettered under ‘Operation Green Hunt’, centrally controlled by the UPA government. It is a clear cut violation of not only the guidelines given by Supreme Court and National Human Rights Commission but also by different international institutions.

It is to note that the state is not only killing the Maoists and their supporters but also viciously suppressing all voices of dissent, especially of democratic and revolutionary forces. We strongly feel that Naxalism / Maoism cannot be suppressed by killing its propagators / leaders and organizing massacres of its supporters.

So, we demand that:

1. The central and state governments should immediately stop ‘Operation Green Hunt’ and physical elimination of Naxal /Maoist leaders and cadres.

2. The central government should set up a high level Judicial Enquiry Committee on the killing of Kishanji.

3. The government should register a case of culpable homicide under section 302 of IPC, so that the killers of Kishanji are forced to face the court trial, as directed by Supreme Court and National Human Rights Commission.

We call upon all the progressive, democratic and revolutionary forces to come together and oppose the killing of Kishanji and the suppression of people’s movements.

We, the undersigned have decided to organize a Protest Demonstration before the Bang Bhavan, 3, Hailey Road, New Delhi-110001 on 2nd Dec. 2011 at 12 AM to show our united anger against state oppression. We appeal to all the pro-people forces to make this Protest Demonstration successful by joining it in huge number.

Signed by:

1. Arjun Pd Singh, PDFI

2. P.K. Shahi, CPI(ML)

3. Narender, Peoples Front

4. Thomas Mathew, Bahujan Vam Manch

5. Shieo Mangal Sidhantkar, CPI(ML) New Proletariat

6. Ashish Gupta, PUDR

7. Anil Chamaria, Journalist

8. Amit, krantikari Nawjawan Sabha

9. G.N.Saibaba ,Revolutionary Democratic Front

10. Mrigank, Navajwan Bharat Sabha

11. Harish, Inquilabi Majdur Kendra

12. Alok Kumar. Krantikari Navajawan Sabha

13. Deepak Singh, NDPI

14. Mritunjay, CCON

15. Banojyotsna, Democratic Students Union

16. Kusumlata, Student For Resistance

17. Bijunayek, Lok Raj Sangathan

18. Ambrish Rai, Social Activist

Contact: 9868638682, 8800356565, 9873315447

सोमवार, 28 नवंबर 2011

‎‎1084 की माँ के नाम

कितनी महान है तूँ

माँ

कत्लगाह के दरवाजे पर

गिनती रही कलम होते सिर तूँ

1084 तक

पथराई हुई चीख को दबा कर सीने में

तूँ भेजती रही वीरों को

रण की ओर

कल एक और मरा है I

1084 वें के बाद

तूँ गिनती तो नहीं भूली

अभ उम्र की ढलती छाया

के साथ I

कल तूँ रोई थी किया

आँखों से छलकती गंगा को

कैसे रोका था तुने

नहीं तुम नहीं रोई होगी

पथराई आँखों में जलती ज्वाला को

लेकर तुने

दुहराया होगा परण

और पुत्रों को

जनम देने का

वह माँ !

तूँ महान जननी है !!

काश सारी माएं

1084 की माँ जैसी हों I

by Randeep Singh