विषय वस्तु

शुक्रवार, 14 अक्तूबर 2011

बिहार के देहात में शोषण पर समझदारी: एक नोट

वित्त और भूमंडलीकरण के युग में भी देहाती भूस्वामीत्व भारत के राजनीतिक अर्थशास्त्रा में केंद्रीय बिंदु बना हुआ है। सोमपेटा हो या नारायणपटना, सुरक्षित भूस्वामीत्व की आकांक्षा ही जनप्रतिरोध का मुख्य पहलु बना हुआ है। दूसरी तरफ, बिहार में काश्तकारी सुधार का विरोध ओर लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार की जांच कर रहे अमीर दास आयोग को भंग करना दर्शाता है कि बड़ा भूस्वामी अपने विशेषाधिकारों को बनाने रखने के लिए कितना व्यग्र है। भारतीय जनता का तकरीबन 60 फीसदी हिस्सा गांवों में रहता हैं और भारत के कुल श्रमबल का तकरीबन साठ फीसदी हिस्सा कृषि कार्य में लगा हैं। यह शायद साफतौर पर दिखाई देता है कि भारत के राजनैतिक अर्थशास्त्रा के ढांचे और गति को सुनिश्चित करते समय जमीन के सवाल की अनदेखी नहीं की जा सकती। 70 के दशक से भारतीय राजनीतिक अर्थशास्त्रिायों में बड़ा सवाल रहा है देहाती भारत में शोषण की प्रकृति क्या है? शिक्षाविदों और कार्यकर्ताओं के बीच सबसे बड़ा सवाल यह रहा है कि ग्रामीण भारत में शोषण का स्वरूप क्या है? खासतौर से औपनिवेशिक समय से भारत में चले आ रहे अर्धसामंती शोषण को पूंजीवादी उत्पादण प्रणाली ने किस हद तक बदला किया है। शोषण के ढ़ांचे में परिवर्तन कीे वास्तविक संभावनाएं हैं क्योंकि विगत चालीस सालों के दौरान भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ और ज्यादा एकीकृत हुई है। पहली बड़ी लहर सत्तर के दशक में हरित क्रंाति के रूप में आई और बाद में उससे भी बड़ी लहर नब्बे की दशक में उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरणके जरिए आई। अब हमारे पास यह दर्शाने के लिए पर्याप्त साक्ष्य हैं कि हरितक्रंाति भारत के पिछवाड़े में शोषण के तरीकों में बदलाव करने में असफल रही।( विशेष्षतौर पर ग्रामीण बिहार के संदर्भ में देखें - केडब्लू, और एसी को )

लेकिन हम सुधार की दूसरे लहर के बारे में क्या कह सकते हैं। क्या इसने वास्तव में ग्रामीण परिदृश्य में शोषण के ढंाचें में महत्वपूर्ण परिवर्तन कर दिया है। यहां दो बातों का ध्यान रखना है। पहला, इस नोट की इच्छा उपरोक्त सवालों का जवाब देने की नहीं हैं, जिसके लिए अन्य बातों के अलावा व्यापक और सघन मैकरोइकानामिक विशलेषण और केस अध्ययन की जरूरत है (उदाहरण के लिए क्रमशः बीबी और एस; दोनों ही पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली के पक्ष में तर्क करते हैं)। जबकि हाल के विगत कुछ सालों में भस्वामीत्व से संबंधित कुछ तथ्यों पर व्यापक स्तर पर बहस हुई हैं (देखे बीबी और वीकेआर) जैसे कि भूमि के टुकड़े होने में बढ़ोतरी, कृषि अतिरिक्त (सरप्लस) में घटोतरी, और एक गतिरूद्ध श्रमबल का कृषि कार्य में लगे रहना। कुछ अन्य हमारा ध्यान से हट गया है। इस छोटे से नोट में मैनंे कुछ अन्य तथ्यों को उजागर करने का प्रयास किया है। दूसरा यह नोट मुख्यतः बिहार से मिले तथ्यों पर आधारित होगा और भारत के असमान विकास के मद्देनजर मै अपने दावें को सर्वमान्य बनाने को कोई प्रस्ताव नहीं रखुंगा।

प्रस्तावना के रूप में, मैं भारत के राजनीतिक अर्थशास्त्रा के संदर्भ में भूमि के प्रश्न की महत्ता चर्चा करूंगा।

उत्पादन संबध् बहस: एक रूपरेखा

शोषण की अर्धसामंती और पूंजीवादी प्रणाली के बीच मुख्य अंतर को मैं दोहराने का जोखिम उठाकर चिन्हित कर रहा हुॅं। (मैं अर्धसामंती की जगह पूर्व पूंजीवादी शब्द का प्रयोग भी करूंगा)

1. पूंजीवादी समाज उत्पादन के साधनों के सुरक्षित स्वामित्व के साथ-साथ पूंजी के स्वामी और मजदूरों के बीच सुरक्षित अनुंबध को सुनिश्चित करते हैं। स्वामीत्व और अनुंबध राज्य मशीनरी द्वारा लागू किए जाते हैं। जबकि अर्धसामंती समाज में अस्पष्ट स्वामित्व अधिक होता है जोकि पूर्व-पूंजीवाद में उपजे सामाजिक सोपान और नियमों द्वारा निर्देशित अनौपचारिक अनुबंधों पर आधारित होता है। भारत के संदर्भ में जाति-प्रथा एक महत्वपूर्ण निर्धारक है। पूर्व पूंजीवादी अनुबंध को स्थानीय ताकत के ढांचे पर निर्भर विभिन्न तरीकों से लागू किया जाता है। स्थानीय ताकत के ढांचे में निजी सेनाओं, स्थानीय सरकारी एजेंटों आदि शामिल हैं।

2. पूंजीवादी शोषण प्रणाली में मजदूर सामाजिक राजनीतिक तौर पर स्वतंत्रा होते हैं। इसका मतलब है कि संबंधों में व्यक्तिगत निर्भरता और पितृसत्तात्मकता के सभी रूप गायब हो जाते हैं। (लेनिन, रूस में पूंजीवाद का विकास) यानि पूंजी के स्वामी पर मजदूर की निर्भरता एकदम आर्थिक होती है। अर्धसामंती ढांचे में शोषित निचला हिस्सा कुलीन वर्ग पर सामाजिक-राजनीतिक और आर्थिक दोनों ही रूप से अधीन होता है।

व्यापक राजनीतिक-आर्थिक संरचना में जमीन की स्थिति कहां है? शुरूआत में, पूर्व-पूंजीवादी ग्रामीण समाज में आर्थिक प्रभुत्व उत्पादक निवेश पर नियंत्राण करके कायम किया जाता है। उत्पादक निवेश में जमीन मुख्य होती है।(परन्तु वही एकमात्रा मुख्य नहीं होती। भूजल, कर्ज, व्यापार आदि भी इसके अन्य उदाहरण हैं) वास्तविक स्वामी यानि शोषक कुलीन इन उत्पादक निवेश को चयनित रूप से उपलब्ध करवा कर आसामी बनाता है। अतिरिक्त यानि सरपल्स लगान, ब्याज भूगतान, अर्ध-बंधक किस्म के निश्चित श्रम आदि के रूप में लिया जाता है। प्रत्यक्ष दबाव एक बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह सरप्लस शोषक को हस्तांतरित करने में प्रत्यक्ष दबाव कोई छोटी भूमिका अदा नहीं करता। इसके साथ ही इससे दबे-कुचले वर्गों की सामाजिक-राजनीतिक निर्भरता और पराधीनता में भी बढ़ोतरी होती है। इस तरह सरप्लस का दोहन स्थानीय आर्थिक और राजनैतिक प्रभूत्व का इस्तेमाल करके किया जाता है। पूंजीवादी संरचना में आर्थिक स्तर पर, सुरक्षित भूस्वामीत्व और सुरक्षित काश्तकारी अधिकार उत्पादकता और भू-संरक्षण में बढ़ोतरी के लिए दूरगामी निवेश को बढ़ावा देते हैं जैसा कि असुरक्षित अधिकारों में नहीं होता। इस तरह उपजा हुआ सरप्लस दूसरे मालों के लिए ही नया बाजार पैदा नहीं करता बल्कि यह इसके एक हिस्से को उत्पादक निवेश में भी लगाता है। इसतरह वह पूंजीवाद की प्रसिद्ध गतिशीलता एक घटक को भी पैदा करता है। सामाजिक-राजनीतिक आयाम में, सुरक्षित और कानूनी स्वामीत्व और उत्पादक निवेश की उपलब्धता, प्रत्यक्ष दबाव की प्रसांगकिता को खत्म करते हुए, जनसंख्या के व्यापक हिस्सों में जनतान्त्रिाक अधिकारों का बोध भी विकसित करता है। यह सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य में ग्रामीण कुलीनों की दबे-कुचले वर्गों पर पकड़ ढीली कर देता है।

य़द्यपि उपरोक्त विभेद एक मार्गदर्श हो सकता है परन्तु वास्तविकता उपरोक्त वर्णित नमूना गुणों के एकदम समरूप नहीं भी हो सकती हैं। (यहीं क्षेत्रिय विशेषताओं को गौर करने के लिए व्यापक विशलेषण करेन की महत्ता है, जैसा कि पहले भी जिक्र किया गया है) इस चौखटे का आधार बनाकर मैं तर्क दूंगा कि बिहार के संदर्भ में पूर्व-पूंजीवादी शोषण प्रणाली के अभी भी मौजूद है।

पूंजीवादी शोषण प्रणाली के पक्ष में तर्क

मै यहां इस मुद्दे पर पुरे साहित्य को पेश करने का इच्छुक नहीं हुं। मै अपने नोट से संबंधित पूंजीवादी प्रणाली की परिकल्पना के समर्थन में दिए गए कुछ बड़े तर्कों तक अपने को सीमित रखुंगा। पूर्ण विश्लेषण के लिए बीबी, यूपी, आरआरएस और दीपांकर बसु का लेख देखें।

1. भूमि मालिकाना:

पिछले कुछ दशाब्दियों में भूमि का विखंडण हुआ है। 1982 में स्वामीत्व का औसतन साईज तीन एकड़ था, जोकि सन 2003 में घटकर मात्रा दो एकड़ से भी कम रह गया। इसी दौरान भूमिहीन परिवारों की संख्या(जिनके पास एक एकड़ से कम जमीन है) कुल ग्रामीण परिवारों में 48 प्रतिशत से बढ़कर 60 प्रतिशत हो गई है। बीबी की रपट के अनुसार-

‘1992 से 2000 के मध्य हुए पूर्नसर्वेक्षण के अनुसार बिहार में भूस्वामीत्व के वितरण में बदलाव जमीन गवांने के रूप में चिन्हित किया गया जोकि सभी श्रेणियों और जातिय समूहों की औसत स्वामीत्व जोत के साईज से नापा गया था। जमीन का गवांना जमींदारों, बडे़ किसानों और खेतीहर मजदूरों में तेजी से हुआ; किसानों की मध्यम श्रेणी में सबसे कम जमीन गवाई गई।

2. मजदूर अनुबंध्

1981 से 1999 के बीच किए गए जमीनी अध्ययन के आधार पर आरआर ने बिहार के पुर्णिया जिले में श्रम अनुबंधों की तुलता की है। उन्होंने 1981 से तुलना कर देखा कि सबसे बड़ा बदलाव स्थायी श्रम में गिरावट है। हकीकत में सभी खेतीहर मजदूर अब अस्थाई दिहाड़ीदार हैं। बहुत से स्थाई हलवाहे 1981 के बाद गायब हो गए। बटाईदारी (शेयर काश्तकारी) के मामले में भी मैकरो आंकड़े यही रूझान दिखाते हैं। पाया गया है कि पट्टे पर जमीन लेने वाले परिवारों का प्रतिशत 1971-72 के 25 फीसदी से कम होकर 2003 में 12 प्रतिशत रह गया। और इन सालों में सभी काश्तकारी अनुबंधों में बटाईदारी का अनुपात लगभग एक जैसा रहा जोकि तकरीबन 40 फीसदी था।

इन रूझानों पर आधार करके यह तर्क किया जा सकता है कि पुराने जमींदारों पकड़ तेजी से ढ़ीली पड़ती जा रही है और अमीर और मध्य वर्गीय किसान उनकी जगह ले रहे हैं (पहला बिंदू)। जमींदारों के विपरित, जोकि राजनीतिक-आर्थिक दबाव बनाने के कई प्रत्यक्ष तरीकों से सरप्लस का दोहन करता था, धनी किसानों के सरप्लस दोहन की प्रधान प्रणाली मुक्तउजरती-श्रम की संस्था के जरिए काम करती है (दूसरा बिंदू), जोकि पूंजीवाद का विशेष गुण है। दूसरे कारक जैसे कि गैर-भूमि निवेश पर नियंत्राण, कर्ज, पूंजी निर्माण, निवेश, पलायन इस विश्लेषण से जुड़ंे है और इनमें से कुछ उपरोक्त संदर्भों में प्रयोग किए गए हैं।

मैं तुलनात्मक से नए आंकडों का प्रयोग कर पूर्न-परीक्षण करूंगा।

आंकडों का स्रोत

मैंने भूमिहीनता और सामाजिक न्याय: भूमि वितरण में असमानता का मूल्यांकन और भूमि सुधार का परिपेक्ष्यपुस्तिका जोकि बिहार में भूमि मापन पर आधारित है, से ज्यादातर तथ्य लिए हैं।

क्योंकि मेरे पास सारे आकंडें नहीं हैं (अधिक सूक्ष्म विश्लेषण सम्पूर्ण आंकड़ों के साथ सम्भव है), मेरा विश्लेषण पुस्तिका से मिले तथ्यों तक सीमित है। इसके साथ अन्य गौण स्त्रोतों संपुरक के रूप में प्रयोग किए जाएंगें।

मैं तथ्य जुटाने की प्रक्रिया पर को कुछ विस्तार से चर्चा करूंगा क्योंकि मैं मानता हूं कि निम्नलिखित कारणों से यह आंकडें गुणवत्ता में मेक्रो तथ्यों से और कुछ मैकेनिकल केस स्टडी से अधिक अच्छे हैं।

1. यद्यपि इसकी राजनीति मूलतः सुधारवादी है1, आंकड़ें एकत्रा का उद्देश्य सामूहिक कार्रवाई का आधारबनाना है, न कि आधिकारिक या एकेडमिक कार्य के लिए इसका इस्तेमाल करना।

2. आंकड़ा एकत्राीकरण और संकलन की प्रक्रिया में भूमिहीन ग्रामीणों ने बढ़़़चढ़ कर हिस्सा लिया है।

2007 में एकता परिषद और प्रेक्सिस ने निम्नलिखित पांच जिलों में भूमि-मापन का काम किया था।

जमूई में सिकंदरा प्रखंड के 14 गांव, नवादा के काउवाकोल प्रखंड के सात गांव, गया के बांकेबाजार प्रखंड के छह गांव, पश्चिम चंपारण के बाघा प्रखंड के दस गांव, पटना के पालीगंज प्रखंड के एक गांव। लेकिन पुस्तिका में पटना के आंकड़ों का कोई उल्लेख नहीं मिला। प्रत्येक गांव के तीन या चार ग्रामीणों के सामूहिक ज्ञान के आधार पर गांव का व्यापक भूमि-मापन किया गया। जमीन के प्रत्येक टूकड़े या प्लाट से जुड़ी सभी महत्वपूर्ण सूचनाओं जैसे - प्लाट के वर्तमान नियंत्राक का नाम और जाति; नियंत्राण का अन्तराल और आधार, प्लाट की गुणवत्ता और सिंचाई की स्थिति, कानूनी मालिक का नाम आदि का एकत्रा किया गया। इस तरह तैयार किए गए नक्शे को सत्यापित करने के लिए ग्रामीणों के जुटान के सामने रखा गया। अंतिम रिकार्ड को संकलित करने से पहले सरकारी नक्शों से मिलान किया गया।

शोषण की प्रणाली को समझना: आंकड़ों के आधर पर विशेषताओं का विश्लेषण

क. भूमि का अध्ग्रिहण

यद्यपि जमींदारी को कानूनन तौर पर 1952 में खत्म कर दिया गया था, परन्तु बिहार की प्रभूत्वशाली जातियों ने कानूनी छिद्रों और लागू करने में कमजोरी का फायदा उठाकर जमीन पर नियत्रांण कायम रखा। इस प्रक्रिया में जमींदारों के मध्यस्थों और स्थायी काश्तकार (ओक्यूपैंसी टिन्नैट), जोकि मुख्यतः उ$ंची जातियों के थे, मध्य जातियों की उ$परी परत में से कुछ को फायदा मिला। (उदाहरण के लिए देखें - बीएन) बाद में लिबरेशन (सितंबर 2002, में पश्चिम चम्पारण में भूमि संघर्ष एक नए मुकाम पर) ने पश्चिम चंपारण के बड़े भूस्वामीयों सूची दी।

इसका एक अंश यहा है -

उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले का निवासी मारकंडे पांडेय एक खूंखार भू-माफिया है, जिसने चिउताहन गंाव में 250 एकड़ भूमि पर गैरकानूनी तरीके से कब्जा किया हुआ है। उसके पास केवल 6.5 एकड जमीन का कानूनी कागजात हैं.... दिलीप वर्मा, मधु वर्मा, ओम वर्मा और उनके पारिवार कायस्थ समुदाय के हैं। वह भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद के रिश्तेदार हैं। उनके कब्जे में लगभग 5,000 एकड़ जमीन हैं, जोकि जिले के शिकारपुर, गउनाहा, मेंनातअनर और रामगढ़ प्रखंड में फैली हुई है।

जमीन का नक्शा बनाते समय देखा गया कि समाज के प्रभावशाली वर्ग के लोगों ने जमीन के एक बडे हिस्से पर कब्जा किया हुआ है। इस वर्ग द्वारा गैर-कानूनी तरीके से कब्जाई गई जमीन के औसतन आकार 2.4 एकड है जोकि कुल अतिक्रमित जमीन का दस फीसदी है। यदि हम उच्च जाति की औसतन कानूनी जोतों (गया में 4.44 एकड़ और जमूई में 3 एकड़) से इसकी तुलना करें तो पता लगता है कि गैर-कानूनी कब्जे का आकार कानूनी जोत के बराबर ही बड़ा है। इसके विपरीत, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं पिछडे़ वर्गो का औसत कब्जा क्रमशः 0.46, 0.85, 0.98 एकड़ है। ईपी ने दिखाया कि निचली जातियों के कब्जा करने के उदाहरण आजीविका कमाने की मजबूरी के कारण मिलते हैं, जोकि उनकी बेतहाशा भूमिहीनता से साफ जाहिर होता है। हालांकि दस्तावेजीकरण नहीं किया गया है परन्तु यह साफ है कि निचली जातियों के कब्जाधारी अतिक्रमित जमीन पर गैर-कानूनी कब्जा केवल तभी बनाए रख सकते हैं जब वे इलाके के जमींदारों और बड़े किसानों के साथ संरक्षक-आसामी के संबंध बनाए रखें।

$ंची जातियां कैसे नई जमीनों पर कब्जा करती हैं और अपने कब्जे को बनाए रखती हैं। इपी ने इसका एक मुख्य स्रोत चिन्हित किया है कि सरकार द्वारा भूमिहीनों को आवंटित जमीन पर वे प्रभावशाली नियंत्राण कायम करने में अक्षम हैं। धनी किसानों और जमींदारों ने प्रशासन, पुलिस और न्याय पालिका के साथ मिलकर उन जमीनों पर कब्जा कर लिया है। ऐसे मामलों में सरकारी दस्तावेजों में और इसलिए मैक्रो आंकड़ों में भी भूमिहीन परिवारों को भूमि के नए स्वामी के रूप में दिखाया गया है जबकि जमीन पर प्रभावशाली नियंत्राण अभी भी जमींदार/ धनी फार्मर का हैं। कई मामलों में दाखिल-खारिज’(जमीन आवंटन की रसीद) अभी तक कानूनी मालिकों केे पास नहीं मिली। इपी ने एक खास मामले का जिक्र किया है। भू हदबंदी कानून की घोषणा के बाद महंत रामधन के 81 एकड़ को विभाजित कर भूमिहीनों में बीच बांट दिया गया। हालांकि सरकार ने जमीन लेने वालों को आज तक किसी प्रकार प्राप्ति रसीद जारी नहीं की है। जहां लोगों को जमीन के कागज मिले हैं वहां धनी किसान और जमींदारों ने ताकत के दम पर गैर-कानूनी कब्जा कायम रखा है। लिबरेशन ने अप्रैल 2004 में यूपी के सोनभद्र जिले पर जांच रपट प्रकाशित की।

इन गांवों के हमारे दौरे और लोगों से बातचीत के बाद पता लगा कि यहां भूमिहीनों और भूस्वामियों के बीच विवाद की मुख्य वजह सिंचाई के जमीन पर कब्जा बनाए रखने को लेकर है जिसे एक दशक पूर्व गरीब भूमिहीनों को बांटा गया था। उनके पास दिए गए कागजों के अनुसार जमीन पर कानूनी अधिकार दिया गया, लेकिन भूस्वामियों ने नंगे रूप में ताकत का प्रयोग कर व अपराधियों की मदद लेकर गरीबों को जमीन में घुसने से रोक रखा है।

इपी ने यह भी पाया कि भूमिहीनता और प्रभावशाली तरीके से जमीन पर मालिकाना हक कायम करना खासतौर से अनुसुचित जाति और अनुसुचित जनजातियों के परिवारों के लिए बहुत कठिन है। मैं इस मुददे को अगले भाग में उठाउंगा। लेकिन इस भाग के तथ्य दिखाते हैं कि किस तरह जमीन पर नियंत्राण अभी भी ग्रामीण बिहार में गैर-पूंजीवादी तरीके से शोषण के मुख्य आधार बना हुआ है।

ख. दलितों और आदिवासियों में भूमि हीनता

ग्रामीण वर्गीय संरचना को समझने के लिए भूमिहीनता महत्वपूर्ण कारक है क्योंकि भूमिहीन भूमिहीन परिवार खेतीहर मजदूर वर्ग का कोर बनने की उम्मीद की जाती है। उनके पास अपनी श्रम-शक्ति के अलावा किसी भी उत्पादन के साधन का मालिकाना नहीं होता है। और इसलिए वे ही सबसे ज्यादा धनी तयशुदा भूस्वामियों के साथ उजरती श्रम का अनुबंध करते हैं। वे ही अच्छी मजदूरी की खोज में सबसे अधिक पलायन करते हैं, जिसके कारण राजनीतिक नियंत्राण की पकड़ ढ़ीली पड़ जाती है (देंखें आरआर केस स्टडी ) मैक्रो आंकड़ें दर्शाते हैं कि कुछ दशकों में भूमिहीनता (एक एकड़ से कम वाले भूस्वामीत्व) बहुत तेजी से बढ़ी है और इनके परिवार में आय का एक बड़ा हिस्सा मजदूरी के रूप में आ रहा है।

हालांकि यह पूंजीवादी शोषण के रूप में दिखने वाला बदलाव इसमें अंतर्निहित गैर-पूंजीवादी नियंत्राण कई चैनलों को छुपा लेता हैं। उदाहरण के लिए, 1991 जनगणना के अनुसार बिहार में महिला खेतीहर कार्यबल में 33 प्रतिशत कृषक थी, जबकि 60 प्रतिशत खेतीहर मजदूर थी। लेकिन क्या इसे उजरती श्रम संबंधों के निशान के रूप में माना जाए। इसके विपरीत, महिला खेतीहर मजदूरों का शोषण जाति-वर्ग उत्पीड़न की कसौटी बन गया है।(इसका काफी दस्तावेजीकरण हुआ है, उदाहरण के लिए जीके देखें) 90 के दशक की शुरूआत में मध्य बिहार में जनसंहार पर पीयूडीआर की शानदार जांच रिपोर्ट का एक गद्य दे रहा हूं।

ज्यादातर लोगों की नजरों में उत्पीड़क वो है जोे मजदूरी कम लेने का दबाव बनाकर, भूमि पर कब्जा देने से इन्कार करके, और अपमानजनक व्यवहार करके अपने मजदूरों के आत्मसम्मान को रौंदता हो। मजूदर का नियोक्ता जो इस प्रकार का घृणित चरित्रा का होता है, उसे अन्य नियोक्ताओं से अलग चिन्हित किया जाता है और स्थानीय तौर पर जमींदार या सामंत कहा जाता है। एक आदमी के जमींदार या सांमत के रूप में पहचान केवल एकमात्रा जोत के आकार से ही नहीं जुड़ी होती। सार में, यह पहचान श्रम को भाड़े पर उठाने की क्षमता रखने वाले एक विशेष किस्म की आक्रामक मानसिकता पर टिकी है, जिसे कि सामंती विचार माना जा सकता है, जोकि आमतौर पर श्रम और विशेष रूप से महिलाओं के आत्मसम्मानके प्रति निर्दयी, व धमकाने वाले रवैये में झलकता है।

इसलिए, शोषण की प्रणाली का निर्धारण करने के लिए केवल सांख्यिकी आंकड़ों में खेतीहर मजदूरों के अनुपात, ‘औपचारिकमजदूरी अनुबंध के फैलाव आदि पूरी तरीके से भ्रमित कर सकती हैं।

इसलिए भूमिहीनों के आंकडे़ देखना ही पर्याप्त नहीं है। भूमिहीनता के कारणों को जानना भी जरूरी है। इस संदर्भ में भूमिहीन परिवारों की जातिय संरचना को समझना लाभदायक होगा। जैसा कि पहले बताया गया है ईपी ने जाति के आधार पर जोतों के आंकडे एकत्रित किए हैं। देखा गया है कि प्रभावी भूमिहीनता जातिय सोपान से बहुत ज्यादा जुड़ी हुई है। उदाहरण के लिए पश्चिम चंपारण में 96 प्रतिशत एससी एकदम भूमिहीन हैं, जबकि एसटी में 80 प्रतिशत, ओबीसी में 64 प्रतिशत और उच्च जातियों में केवल 26 प्रतिशत ही भूमिहीनता की शिकार हैं। इसी तरह से गया जिले में 70 प्रतिशत एससी परिवार भूमिहीन हैं, जबकि उच्च जातियों में 40 प्रतिशत भूमिहीन है। यह आंकडे बमुश्किल चौंकाते हैं क्योकि जमीन हमेशा उ$ंची जातियों के नियंत्राण में रही है। लेकिन यह दर्शाता है कि उजरती श्रम का मतलब पूंजीवादी अनुबधं की जरूरी नहीं है। धनी किसान और भूमिहीन मजदूर के मध्य एक औपचारिक श्रम अनुबंध में उच्च जातिय भूस्वामी और दलित भूमिहीन के बीच उत्पादन संबंध निहित होता है। इस संबंध की उत्पत्ति गैर-पूंजीवादी हैं और इस ऐतिहासिक तौर पर आर्थिक और गैर-आर्थिक नियंत्राण के तौर पर साथ साथ व्याख्यायित किया जा चुका है। इसलिए यह माना जा सकता है कि अर्धसामंती जातिय उत्पीड़न शोषण के पूंजीवादी उजरती श्रम के दिखावटी रूप के पीछे छिप सकता है।

क्योंकि मेरा विश्लेषण आंकडों की उपलब्धता के कारण सीमित है। यहां मैं कुछ प्रश्न रखता हूं जिसका और अधिक विश्लेषण करने की जरूरत है। भूमि विखंडण के अलावा भूमिहीनता का मुख्य कारण क्या है? बढ़ती भूमिहीनता में दलित और आदिवासी परिवारों का योगदान कितना है? क्या ऐसा हुआ है कि उच्च जातिय भूमिहीनों में बढ़ोतरी मुख्यतः किसानों/जमींदारों का ठेकेदार, व्यापारी आदि तब्दिल होकर व्यवसायिक विविद्यीकरण का परिणाम है, न कि कृषक से खेतीहर मजदूर बनने के कारण ऐसा हुआ है? किस हद तक पलायन ने उच्च जातियों की दलित/आदिवासियों मजदूरों/ कृषकों पर सामाजिक-राजनीतिक पकड़ ढ़ीली की है?

ग. छिपी काश्तकारी

बिहार के बंटाईदारों के फैलाव को कई अध्ययनों ने देखा हैं। डी. बंधोपाध्याय, जिन्होनें बिहार काश्तकारी सुधार कानून (जिसे अस्वीकार कर दिया गया) का निर्माण किया था, ने माना कि बटाईदारी व्यवस्था पर कोई विस्तृत आंकडों उपलब्ध नहीं हैं। एक संकीर्ण अनुमान के अनुसार बिहार में करीब बोने योग्य जमीन का 35 फीसदी हिस्सा बटाईदारी व्यवस्था के तहत है। यह आंकड़े एनएसएसओ के अनुमान के उलट हैं जिसके 2003 के अनुमान के अनुसार कुल भूस्वामित्व का में से मात्रा 7 प्रतिशत ही पट्टे पर लिया गया और कुल भूस्वामित्व का मात्रा 3 फीसदी ही पट्टे पर दिया गया।

ईपी की भूमि खाके के अनुसार इस असंगता का मुख्य कारण काश्तकारी की रिपोर्ट बहुत कम होना है। देखा गया है कि अध्ययन किए गए सभी जिलों में बटाईदारी एक सामान्य परिघटना है। उदाहरण स्वरूप पुस्तिका में जमुई जिले के लाचूर गांव की जमीन का खाका उपलब्ध है। इस गांव के कुल क्षेत्राफल 717 एकड़ में से 295 एकड़ यानी तकरीबन 40 प्रतिशत बटाईदारी के तहत बोया जाता है। यद्यपि इन प्लाटों का आकार-वर्ग के हिसाब से वितरण नहीं दिया गया है, लेकिन यह बताया गया है कि यह 295 एकड़ जमीन 56 परिवारों में सीमित है। इसमें से 33 उच्च जाति और मध्य जाति से हैं, जबकि 18 पिछड़े जाति के हैं।

निम्नलिखित गद्य में बटाईदारी पर तथ्यों को पुस्तिका ने सार दिया है। यह गद्य खुद ही सारी कहानी कह देता है और बटाईदारी के माध्यम से होने वाले क्लासिक अर्धसामंती शोषण प्रणाली की अटलता को साफतौर पर दर्शाता है।

बटाईदारी के अधिकतर मामलों में, भूस्वामीयों और बटाईदारों के बीच अनुबंध बिहार काश्तकारी अधिनियम, 1985 के प्रावधानों का उल्लंघन करते प्रतीत होते हैं। सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात है कि राज्य में बटाईदारी से जुड़े अधिकतर मामलों में मौखिक अनुबंध किया गया है और कोई भी भूस्वामी लिखित अनुबंध नहीं करना चाहता और या इस अनुबंध का औपचारिक रूप देना चाहता है। प्रचलित परम्पराओं के अनुसार बटाईदार बोई गई जमीन की उपज का आधा हिस्सा भूस्वामी को देता है, जोकि इसके लिए प्रस्तावित कानूनी सीमा का उल्लंघन है। इससे भी ज्यादा, भूस्वामी यह सुनिश्चित करता है कि बटाईदार जमीन के किसी टुकड़े यानि प्लाट को निरन्तर लम्बे समय तक ने बोए ताकि बटाईदार के नाम में भूस्वामित्व के कानूनी हस्तांतरण की सम्भावनाओं को पहले ही खत्म किया जा सके।

इसी संदर्भ में एसी ने एक महत्वपूर्ण अवलोकन किया है-

छोटे कृषक (परिवारों का तकरीबन उन्नीस फीसदी) , जोकि मुख्यतः दलित हैं, भी जमीन नियंत्राण की संरचना में हाशिए पर हैं। छोटे कृषक के परिवार के मेहनत करने वाले सदस्य खेतीहर मजदूर के रूप में खुद को भाड़े पर देने के लिए मजबूर हैं। क्योंकि उनकी बोने योग्य जमीन की मात्रा उनका जीवन चलाने के लिए अपर्याप्त है। इस प्रकार यद्यपि इस वर्ग के कुछ सदस्य खुद को छोटा किसानबताते हैं, कुछ बटाईदार बताते हैं और अन्य साधारण रूप से खुद को मजदूरी करने वाला बताते हैं।

इस प्रकार ऐसा लगता है कि कम से कम ग्रामीण बिहार में कृषक और बटाईदार की श्रेणीयां अपनी प्रकृति में काफी बदलती रहती हैं। वास्तव में यह माना जा सकता है कि इन श्रेणियों के मामले में एक परिवार की स्थिति साल दर साल बदलती रहती है। हालांकि यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि एक समाज में शोषण की प्रणाली एक मूलभूत श्रेणी है और यह आधिकारिक श्रेणियोंकी तरह नहीं बदल सकती है। इसलिए यदि ग्रामीण बिहार में बटाईदार अर्ध सामंती शोषण का शिकार होता है तो यह खेतीहर मजदूरों के लिए बहुत भिन्न नहीं हो सकता है।

घ. अनुबंध् पर अमल

जमीन के गैर-कानूनी तरीके से कब्जे और अनौपचारिक बटाईदारी का प्रसार हमारे सामने अनुबंध के अमल के महत्वपूर्ण मुद्दे को हमारे सामने लाता है। ऐसे दिखता है कि ऐसे अनौपचारिक अनुबंधों में राज्य मशीनरी जैसे कि प्रशासन, पुलिस व न्यायालय के माध्यम से लागू नहीं किए जा सकते, जोकि पूंजीवादी शोषण प्रणाली की विशेषता है। इसकी अपेक्षा ये अनुबंध जमींदारों/धनी किसानों राज्य मशीनरी से संरक्षक-आसामी के संबंध विकसित करके लागू किए जाते हैं। पूंजीवादी अमल के विपरीत, इसके लिए दोहन किए गए श्रम के सरप्लस (अतिरिक्त) के हिस्से को राज्य की एजेंसीयों के साथ निजी तौर पर बांटना होता है। (ऐसी एजेंसीयों की राज्य फंडिंग सबसे ज्यादा होती है। ये राज्य-एजेंट प्रत्यक्ष दबाव से सरप्लस दोहन के अपने खुद के परजीवी रूप भी रखते हैं, परन्तु यह इस अध्ययन के क्षेत्रा में नहीं आता है)

इस तरह का निष्कर्ष पहले हुए अन्य अध्ययनों ने भी निकाले हैं। एसी ने लिखा है

इस प्रकार के उदाहरण पुष्टि करते हैं कि कि गांवों में प्रभावशाली वर्ग और राज्य के स्थानीय अंगों के बीच एक सहजीवी संबंध है। वास्तत में, गांव के कुलीन द्वारा हड़पे की जाने के कारण बिहार में राजसत्ता वास्तव में जमीनी स्तर के ताकत में सन्निहित है।

इपी में इस प्रकृति की कई घटनाओं का दस्तावेजीकरण किया है। निम्निलिखित केस इसका एक ठेठ उदाहरण है। पश्चिम चंपारण के नया गांव और काथफोड़ गांवांे शारदा देवी की 5.75 एकड़ हदबंदी सरप्लस के तहत 12 अनुसूचित जाति के परिवारों को बांटी गई थी, लेकिन पारसनाथ यादव ने बंाटी गई जमीन पर कब्जा कर लिया। य़द्यपि सर्किल कोर्ट ने गरीब परिवारों के पक्ष में फैसला सुनाया, लेकिन पिछले 12 सालों में कोर्ट के आदेश का पालन करने केे लिए कोई आधिकारिक कार्रवाई नहीं की गई।

निष्कर्ष

मेरा जोर है कि इस लेख का उद्देश्य किसी निश्चित निष्कर्ष पर पहुंचना नहीं था। मै इन मुख्य बिन्दूओं का सार निकालना चाहता हूं।

1. गौण स्रोतों के आधार पर ऐसा लगता है कि ग्रामीण बिहार के कई हिस्सों में गैर-पूंजीवादी शोषण ही अभी भी प्रधान रूप है। हालांकि, इस लेख में भूस्वामीत्व से संबंधित कुछ प्रासंगिक कारकों पर ही चर्चा की गई है और इस अनुमानित अटकलों को स्थापित करने या (अस्वीकृत करने) के लिए आगे अध्ययन की आवश्यकता है।

2. सकल आंकडे़ (यही आलोचना मैकनिकल केस स्टडी पर लागू होती है) व्यापक परिपेक्ष्य देने में मददगार तो होते हैं, परन्तु शोषण की प्रणाली को निर्धारित करने के लिए विश्वसनीय नहीं हैं। चूंकि मैक्रो आंकड़े सरकारी उद्देश्य के लिए एकत्रा किए जाते हैं (जो क्रांतिकारी तरीके से समाज के बदलाव की जरूरत के ठीक विपरित होते हैं) वे अनौपचारिक स्वामित्व, अनुबंध और जमीनी स्तर पर उनके अमल की बारीकियों को पकड़ने में असफल रहते हैं जोकि संरक्षक-आसामी के सम्बन्ध के अंतर्निहित घटक हैं और इस प्रकार गैर-पूंजीवादी शोषण हैं।

3. क्योंकि अर्धसामंती शोषण के पर्याप्त हिस्सा गैर-आर्थिक चैनल के जरिए निर्मित होता है, जोकि शुद्ध आर्थिक अंग से अतिरिक्त होता है, इसमें शोषण की संरचना को पूर्ण रूप से समझने के लिए संबंधित ग्रामीण समाज के गैर-आर्थिक सामाजिक सोपान, विकास के ऐतिहासिक रास्ते, और क्षेत्रिय विशिष्टताओं जैसे कारकों को देखना अत्यंत महत्वपूर्ण है।

टिप्पणी

1. शोषण के पूरे महल को गिराए बगैर जमीन सुधार व काश्तकारी सुधार की सीमाओं को पश्चिम बंगाल के उदाहरण से सबसे अच्छी तरह समझा जा सकता है। यह सीपीआई (एम) के लिए राजनीतिक एवं आर्थिक नियंत्राण का हथियार बन गया।

2. अतिक्रमण का आकार वर्ग के अनुसार वितरण ज्यादा कारगर रहता, लेकिन बुकलेट में इस तरह के आंकडे उपलब्ध नहीं हैैं।

23, जून 2011

अनिरबन कर

संदर्भ:

1. एसी- आनंद चक्रवर्ती, जाति और कृषि वर्ग: बिहार का अवलोकन, ईपीडब्लू, अप्रैल 2001.

2. एएस- एएन शर्मा, बिहार में कृषि संबंध और सामाजिक आर्थिक बदलाव, ईपीडब्लू, मार्च 2005.

3. बीबी - बसोले और बसु, भारत में उत्पादन संबंध और अतिरिक्त उगाहने के तरीके: भाग एक - कृषि, ईपीडब्लू, अप्रैल 2011.

4. बीएन - डी बनर्जी, व्यक्तिगत उत्पादन: जमीन सुधार के महत्वपूर्ण मुद्दे, बीएन: युगांधर एवं के गोपाल अययर, 1993.

5. डीबी - डी बंद्योपाध्याय, बिहार में आखिरी अवसर, वर्ग संघर्ष और इसके अंतर्विरोध, ईपीडब्लू, 2006

6. ईपी - भूमिहीनता और सामाजिक न्याय: भूमि वितरण में असमानता का एक मूल्यांकन और भूमि सुधार का परिपेक्ष्य, एकता परिषद और प्रेसिक्स, इंस्टीट्यूट आफ पार्टिसिपेटरी प्रेक्टिस, 2009.

7. जीके - जार्ज जे कुनाथः ग्रामीण बिहार में नक्सलवादी बनना, वर्ग संघर्ष और इसके अंतर्विरोध, जरनल आफ पीजेंट स्टडी, 2006

8. केडब्लू - कल्पना विल्सन, बिहार में छोटे कृषक और नईतकनीक, ईपीडब्लू, मार्च 2002.

9. पीयू - तीखी फसल: बिहार में जनसंहार की जड़, पीयूडीआर, 1992.

10. आरआर - रोडगर्स एंड रोडगर्स, समय से आगे की छलांग: ग्रामीण पुर्णिया में जब अर्धसामंतवाद की बाजार से मुलाकात हुई, ईपीडब्लू, जून 2001.

11. आरआरएस - आंध्र प्रदेश के तीन गांवों का सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण: कृष्षि संबंधों पर अध्ययन, सम्पादकः वीके रामचंद्रन, विकास रावल और एम स्वामीनाथम, 2010.

12. यूपी - उत्सा पटनाएक, भारतीय कृषि में पूंजीवाद के बंधक विकास के नए आंकड़े, सोशल साइंटिस्ट, जुलाई-अगस्त 2007.

13. वीकेआर - वीके रामचंद्रन, आज के भारत में कृषि संबंधों की स्थिति, द मार्सिस्ट, जनवरी-जून 2011.

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