दिल्ली विश्वविद्यालय, जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय और इग्नू में डीएसयू से जुड़े हुए छात्रों का एक दल ने 11 अप्रैल से 16 अप्रैल 2011 तक उड़ीसा के कोरापुट जिले के नारायणपट्टना प्रखंड़ का दौरा किया। इस दौरे का उद्देश्य इस क्षेत्रा की जमीनी हकीकत का अध्ययन करना था। वहां कई सालों से जुझारू जनसंघर्ष चल रहा है और मीड़िया में छपी खबरों के अनुसार यह जन संघर्ष भयंकर राजकीय दमन का सामना कर रहा है। इसका उद्देश्य नारायणपट्टना क्षेत्रा की सामाजिक जिन्दगी के सामाजिक-आर्थिक पहलुओं का अध्ययन करने के साथ साथ समकालिन दक्षिण एशिया में महत्वपूर्ण किसान संघर्षों के उभार को बढ़ावा देने वाले विभिन्न कारकों की जांच पड़ताल करना भी था।
नारायणपट्टना में कुई, परिजा, जोरका, माटिया, ड़ोरिया सहित 16 आदिवासी समुदाय वास करते हैं जिनमें कुई की संख्या सबसे ज्यादा है। नारायणपट्टना प्रखंड़ के 45,000 लोगों में 90 प्रतिशत से अधिक आदिवासी हैं जोकि दलित समुदायों जैसे कि माली, ड़ोमबो, फोरगा, पाइको, रिल्ली आदि के साथ मिलजुल कर रहते हैं। प्रभुत्वशाली जातियों जैसे कि सुंड़ी और ब्राहम्णों की संख्या कम है परन्तु वे ताकतवार और प्रभावशील हैं। यद्यपि इस इलाके पर गैर-आदिवासियों का हमला सदियों पहले नारायणपट्टना राज की स्थापना के समय से चला आ रहा है, परन्तु सुंडी 1960 में श्रीकाकुलम हथियारबंद आन्दोलन के दौरान तटीय आंध्रा से खदेड़ दिये जाने के बाद ही इस जिले में आए हैं। सुंडीयों ने और ड़ोम्बो व रिल्ली जाति के दलितों के एक छोटे से हिस्से ने आदिवासीयों का शोषण करके और उन्हें शराब बेचकर पैसा बनाया है। गैर आदिवासियों की संख्या 5000 के लगभग है, नारायणपट्टना का शासकीय अभिजात वर्ग इसी समुह से है। हमारा नजरिया इस बात में भी एकदम साफ है कि जमींदार, शराब व्यापारी, सूदखोर और राजनीतिज्ञ अलग-अलग या एकदम विलग वर्ग नहीं है, परन्तु ये सभी इस क्षेत्रा के प्रभुत्वशाली वर्ग के सदस्यों में ही आमतौर पर सहअस्तित्व में है।
पिछले कुछ सालों से नारायणपट्टना, बंधुगांव, सिमलीगुड़ा आदि के गरीब और भूमिहीन किसान ‘चासी मुलिया आदिवासी संघ’ (सीएमएएस) के बैनर तले एकजुट हुए, और अपने पीड़क सुंड़ी-साहुकार-सरकार के गठजोड़ के खिलाफ लड़े। यद्यपि सीएमएएस इस क्षेत्रा में पिछले 15 साल से कार्यरत है, परन्तु पिछले तीन-चार सालों के दौरान ही इसके शराब के खिलाफ आन्दोलन ने एक निर्णायक रूख लिया है। यह चिंगारी जनवरी 2009 में उस समय भड़क उठी जब नारायणपट्टना की देहाती जनता ने शराब व्यापारीयों को न केवल गांव से ही खदेड़ा बल्कि हजारों की संख्या में गोलबंद होकर उनके गढ़ यानि शहरों तक उनका पीछा किया। चार हजार लोग नारायणपट्टना शहर में गए और शराब के कारखानों और विदेशी शराब की दुकान सहित सभी शराब की दुकानों को तोड़ दिया। 2010 के अन्त तक इस पूरे क्षेत्रा मे शराब की केवल दो दुकानें चल रही थी और ये दोनों नारायणपट्टना और बंधुगांव के प्रखंड़ हैडक्वार्टर मे थी जहां पर राज्य के सशस्त्रा बल ठहरे हुए हैं। जनवरी 2011 में 3000 से ज्यादा सीएमएएस सदस्यों ने बंधुगांव शहर की दुकान भी तोड़ डाली। बालियापुट जैसे गांव में महुआ के पेड़ को सीएएमएस और बिप्पलवी आदिवासी महिला संघ(बीएएमएस) के राजनैतिक कार्यक्रम के तहत तोड़ ड़ाला। इससे सस्ती शराब बनती है। आज नारायणपट्टना के गांवों में एक भी महुआ का पेड़ दिखाई नहीं देता। 2009 तक शराब की बिक्री और उपभोग एकदम बंद थी। इस जन उभार के कारण जमींदार और शराब व्यापारी इस क्षेत्रा से भाग गए। इससे यह परजीवी व्यापार समाप्त हो गया। ग्रामीणों ने बताया कि कोरापुट से बीजू जनता दल का वर्तमान सांसद जयराम पांगी ने लोगों को शराब विरोधी आन्दोलन से भटकाने का प्रयास के तहत कहा कि यह आदिवासी संस्कृति, रीतिरिवाज और पूजा का हिस्सा है। इसके प्रत्युत्तर में लोगों ने कहा कि ऐसी चीजें जिसनें हमारी जिन्दगीयों को नष्ट किया, भलाई के लिए की जाने वाली हमारी भक्ति और बलिदान का हिस्सा नहीं हो सकती।
शराब विरोधी आन्दोलन की सफलता से उत्साहित होकर जनता ने जमीन के लिए संघर्ष को तीखा कर दिया। सीएएमएस जमींदारों और साहुकारों से कृषि भूमि पर पूनः काबिज होने लगा। इस जमीन को धोखाधड़ी करके आदिवासीयों से छीना गया था। जनसंघर्षो के इस ज्वार की प्रतिक्रिया में जमींदारों और शराब व्यापारियों ने राज्य प्रशासन के सक्रिय समर्थन से चार मई 2009 को ‘शांति सेना’ का निर्माण किया। 2009 में शराब विरोधी आन्दोलन के सफलतापूर्वक समापन व जमीन के लिए संघर्ष के तीखे होने के बाद, और विशेष रूप से उसी साल के अप्रैल में माओवादीयों की नाल्कों पर हमले के बाद जनता और उसके आन्दोलन पर राजकीय दमन ओर भी बढ़ गया। वेड़ेका सिंघन्ना और नाचिका एन्दरू को नारायणपट्टना के पुलिस थाना में 20 नवम्बर 2009 की हत्या राजकीय दमन की ऐसी ही एक घटना है। इस घटना को क्षेत्रा में नाजायज हमलों, छापामारी और काम्बींग आपरेशन की ही कड़ी में अंजनाम दिया गया, और इस क्षेत्रा में राजकीय आतंक कायम किया गया। सभी ग्रामीण जंगलों और पहाड़ी इलाकों में शरणार्थी के रूप में वास करने पर मजबूर हो गए। सरकार ने बीएसएफ, आईआरबी, सीआरपीएफ के 5000 अर्धसैन्य बल और सैंकड़ों स्पैशल आपरेशन ग्रुप कमाण्ड़ो, उड़ीसा पुलिस और शान्ती सेना जैसे निजी गुंडा गिरोह को तैनात करके और नारायणपट्टना के सभी महत्वपूर्ण प्रवेश द्वारों और बाहर जाने के रास्तों को बंद करके नारायणपट्टना की घेराबंदी की हुई है। जनता की मांगों का सुनने की बजाए सरकार आन्दोलन को कुचलने के लिए ओर ज्यादा बल को तैनात कर रही है।
11 अप्रैल से 16 अप्रैल 2011 तक चले छः दिन के दौरे के दौरान हम नारायणपट्टना, बंधुगांव, सिमलीगुड़ा, लख्मीपुर और पोटांगी प्रखंड़ों में फैले 20 से अधिक गांवों के निवासीयों से मिले। सबसे पहले हम बंधुगांव प्रखंड़ की अलामंड़ा पंचायत के दिमतीगुड़ा गांव में ठहरे। हम कबरीबारी पंचायत के जागरी वालसा गांव के अन्दर से गुजरे। वहां हम कोंड़ाहारा कासी के परिवार से मिले। कोड़ाहारा कासी को 2010 में माओवादी होने का आरोप में गिरफ्तार किया गया था। उसकी पत्नी द्वारा बार बार याचिका देने के बावजुद जेल में उससे मिलने नहीं दिया जा रहा है। अकेले इसी गांव के सीएमएएस से जुड़े 14 लोग अभी भी जेल में है। हमारे दौरे का अगला गांव सिलपालमांडा था। वहां हमें बताया गया कि रतनाल माधवा को बंधुगांव पुलिस ने मार्च 2011 को गिरफ्तार किया और उस पर अपहरण का एक झुठा मुकदमा लाद दिया। बोरगी पंचायत का करका इटकी गांव, जोकि नारायणपटना में आता है, का हमने दौरा किया। वहां हमने जमींदारों, शराब व्यापारीयों, पुलिस और अब शान्ति सेना द्वारा ढ़हाए जा रहे जुल्मों की कहानियां सुनी। वहीं हमें ग्रामीणों ने बताया कि मसारीमुंड़ा गांव के तीस घरों में से आठ घरों को सीआरपीएफ ने जनवरी 2011 को माओवादीयों के साथ हुई मुठभेड़ के बाद जला दिया था। मुठभेड़ गांव के पास ही हुई थी। इससे एक माह पूर्व सीआरपीएफ बलों ने गोलोकनीमा गांव में भी माओवादी के साथ हुई लड़ाई के बाद घरों को तोड़ दिया था, और ग्रामीणों के 8000 रूपये लूट लिए थे।
दल जांगरी वालसा गांव के ग्रामीणों से भी बात कर सका। मदन मेरिका, पोआला मालती, पोल्ला भीमा और सीना मांदान्गी ने शान्ती सेना और सीपीआई एमएल(कानू सान्याल) पार्टी के कदरूका अर्जुन के नेतृत्व वाले बंधुगांव सीएएमएस द्वारा 2009 में किए गए हमले के बारे में बताया। उन्होंने पुलिस की वर्दी में हथियार से लैस होकर हजारों की संख्या में उनके गांव पर हमला किया। उन्हें संदेह था कि ग्रामीण नाचिका लिंगा की अध्यक्षता में चलने वाली सीएएमएस नारायणपट्टना इलाका कमेटी के साथ जुड़ रहे हैं। इसी गांव के नारिगा पोआला, आशु पिरीका, भीमा केदरका, कासी कोन्ड़ागारी, मुगा पोआला, पेंटा कोन्ड़ागारी, अच्चहान्ना पोआला और ऐंकान्ना पोआला को पुलिस ने उसी साल के अन्त में माओवादी होने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया और उन्हें लगभग ड़ेढ़ साल तक जेल में कैद रखा। इनमें से कई तो किशोर हैं। हाल ही में उन्हें जमानत पर रिहा किया गया है। बंधुगांव प्रखंड़ के केशभद्रा गांव के के. सुभाष और के. रमन ने भी पुलिस, शान्ति सेना और अर्जुन के नेतृत्व वाली सीपीआईएमएल(कानू सान्याल) द्वारा ढ़हाए गए जुल्मों की पुष्टी की।
उपार इटकी गांव में हमें बताया गया कि जनता सीएमएएस के नेतृत्व में सामूहिक तौर पर विकास कार्य चला रही है, तथा सरकार की परियोजनाओं को नकार रही है। हालांकि राजकीय दमन के कारण बाद के दौर में जमीन के संघर्ष की गति में कमी आई, परन्तु ग्रामीण खुद की पहलकदमी पर विकास कार्य कर रहे हैं। उन्होनें पिछले दो साल में सात बड़ी सिंचाई परियोजना पूरी की हैं और अन्य तीन में निर्माण कार्य जारी है। इनमें से एक परियोजना हमनें बारीपुत गांव में देखी। प्रखंड़ विकास अधिकारी (बीड़ीओ) ने ये कार्य करने के ऐवज में ग्रामीणों में धन वितरित करने की कोशिश की, परन्तु जनता ने इसे लेने से इन्कार कर दिया। इस साल के फरवरी और मार्च माह में सीएमएएस ने राज्य बलों द्वारा ढ़हाए जा रहे जुल्मों, गिरफ्तारीयों, यातनाएं देने, जबरन हिरासत में रखने आदि के विरोध में और आपरेशन ग्रीन हंट को रोकने और सशस्त्रा बलों को हटाने की मांग करते हुए नारायणपट्टना में सभी सरकारी परियोजनाएं पर रोक लगाने का आह्वान किया था। इस आह्वान के परिणामस्वरूप दो माह तक पुरे क्षेत्रा में नरेगा, सार्वजनिक वितरण प्रणाली, इन्दिरा आवास योजनाओं का कार्य रूक गया था। गैर सरकारी संगठनों का प्रभाव भी काफी हद तक कम हो गया है जबकि सीएमएएस के आन्दोलन के विख्यात होने से पहले ये काफी फैला हुआ था। नारायणपट्टना प्रखंड़ में उनकी उपस्थिति बहुत कम हो गई है।
बोगरी पंचायत के मंजारीगुड़ा गांव में सीएमएएस द्वारा जोती गई जमीन हमें दिखाई गई। वहां ग्रामीणों ने सामूहिक रूप से 14 एकड़ सिंचित जमीन पर सामूहिक रूप से पैदावार की थी। हमें बताया गया कि इस गांव में अभी तक भूमिहीन किसानों को व्यक्तिगत तौर पर प्लाट वितरित नहीं किए गए हैं, परन्तु इसे निकट भविष्य में किया जाएगा। लांगलबेरा गांव में दोम्बों दलित जाति के सुब्बाराव सोमू, सिताला और कांटा ने इस बात की पुष्टि की कि शराब के खिलाफ और जमीन के कब्जा करने के जनसंघर्षों से आदिवासी और दलित दोनों समुदायों के गरीब लोगों को फायदा मिला है। उसने बताया कि नारायणपट्टना की नौ पंचायतों में से बोरगी और लांगलबेड़ा नामक दो पंचायतों में दलित रहते हैं। उन्होनें बताया कि इस दुष्प्रचार अभियान में कोई सच्चाई नहीं है कि इस संघर्ष से दलितों को नुक्सान हुआ है और आन्दोलन के कारण गांवों से दलितों का पलायन हुआ है। सोमू ने बताया कि केवल दो गांव गुमांड़ी और पोदारादर के लगभग 50 परिवार जमीन संघर्ष शुरू होने के बाद चले गए। उसके अनुसार उनमें से अधिकतर शराब का व्यापार करते थे और आदिवासियों के हित के खिलाफ काम करते थे। बोरगी गांव के दीनाबन्धु और सिमाद्री ने बतलाया कि उनके गांव में छः भूमिहीन दलित परिवारों को सीएमएएस ने मार्च 2011 में तीन एकड़ जमीन दी है, और उन्होंने जमीन की सिंचाई सामुदायिक श्रम से की है। सिमाद्री ने कहा,‘‘सम्पदा एकत्रा करने वाले और राजनीतिज्ञ बनने वाले दलितों में से कुछ ने आदिवासीयों और दलितों में मतभेद पैदा करने की कोशिश की, परन्तु गरीबों में कोई मतभेद नहीं है। समस्त नारायणपट्टना के गरीब दलित सीएमएएस का समर्थन करते हैं और संघर्ष में शामिल हैं।’’ गुम्पा विदिका, जोकि एक दलित मजदूर है, वर्तमान में सीएमएएस के प्रवक्ता है और गिरफ्तारी के भय से राज्य से छुपा हुए हैं, ने भी कहा कि आदिवासियों और दलितों को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा करने के तमाम प्रयासों के बावजूद इस संघर्ष ने आदिवासियों और दलितों में वर्गीय एकता पैदा की है।
हमें बताया गया कि समस्त उड़िसा की जेल में बन्द 637 आदिवासी राजनैतिक बंदियों में से 171 सीएएमएस के हैं। क्षेत्रा में तैनात अर्धसैन्य बलों और पुलिस बलों द्वारा ग्रामीणों पर हाल ही में किए गए हमले की कहानी भी बताई गई। पुलिस 4 अप्रैल 2011 की रात्राी में दकरापारा गांव में घुसी और ग्रामीणों की पिटाई की। पिटने वालों में शामिल सिरका सिक्का और सिरका रूपाया ने भी हमसे बातचीत की। दोनों ग्रामीणों से क्रमशः पांच हजार और अढ़ाई हजार रूपये लुट लिए। एक जनवरी 2011 को सरकारी बलों ने सिरका बीना के घर पर भी हमला किया था, उसे हिरासत में लिया और जबरन पुलिस शिविर में ले गए, उसे कई घंटे यातना दी गई और अगले दिन रिहा किया। उसकी पत्नी के सोने के जेवर भी वे ले गए। दल के सदस्यों ने दुमसिली गांव के सोनाई हकोका से बातचीत की। उसके पति सितन्ना हकोका को लख्मीपुर पुलिस थाने के पुलिसकर्मी नवम्बर 2010 को दो अन्य लोगों के साथ पकड़ कर ले गए थे। अन्य दो ग्रामीणों कैला तारिंग और सोदन्ना हिम्बरेका को पुलिस ने रिहा कर दिया परन्तु सितन्ना का अभी तक कोई अता पता नहीं है। पुलिस ने इन्कार किया कि उन्होनें उसे गिरफ्तार किया था। उसने उड़ीसा उच्च न्यायालय में हबियस कार्पस की याचिका दायर की, परन्तु हाल ही में न्यायालय ने पुलिस द्वारा दिए गए शपथपत्रा पर पुरा भरोसा करते हुए उसकी याचिका को खारिज कर दिया। सोनाई ने कहा कि उसकी फसल, अनाज और जानवर शान्ति कमेटी के गुंड़ों ने उस समय लूट लिए जब वह कोर्ट सुनवाई के लिए गई हुई थी। हमने बालियापुट गांव का दौरा किया। वहां हमने नाचिका लिंगा और नाचिका एंदरू के क्षरित घरों को देखा जिसे शान्ति सेना के गुंड़ों ने जला दिया था और तोड़ दिया था। हम नाचिका तमन से मिले जिसने माओवादी होने के आरोप में एक साल जेल काटी, और एक सप्ताह पूर्व ही जमानत पर रिहा हुआ था। उसके गांव का नाचिका संजीवा अभी भी जेल में बन्द है। इसके अलावा दो विचाराधीन बन्दियों को पुलिस ने थर्ड़ ड़िग्री टार्चर करके मार ड़ाला, और बाद में यह दावा किया कि उन्होनें आत्महत्या की है। बाकि बन्दियों को भी नियमित रूप से पीटा जाता है व उन्हें तंग किया जाता है, और कईयों को पुलिस और अर्धसैन्यबलों ने गम्भीर चोट पहुंचाई हैं। ये तो केवल कुछेक घटनाएं हैं जो छः दिन के दौरान ग्रामीणों से हुई बातचीत के दौरान हमें बताई गई।
दल ने सीएमएएस नारायणपट्टना इलाका कमेटी के अध्यक्ष और वर्तमान में पुलिस की सूची में ‘सर्वाधिक वांछित’ व्यक्ति नाचिका लिंगा का साक्षात्कार लिया। उसने हमें बताया कि आन्दोलन आर्थिक मांगों की संकीर्ण सीमाओं से आगे बढ़़ गया है, और आदिवासी और गरीब किसानों के हाशियाकरण के लिए वर्तमान राजनैतिक व्यवस्था को जिम्मेवार मानता है। हमें बताया गया कि 2009 के विधानसभा चुनावों के दौरान संघ द्वारा किए गए चुनाव बहिष्कार का आह्वान नारायणपट्टना मे बहुत ज्यादा सफल रहा था। वहां कुछ वोट ही ड़ाले गए थे। उसने हमें सुचित किया कि सीएमएएस नारायणपट्टना प्रखंड के हर गांव मे संगठन बनाने मे सक्षम है, और साथ ही सटे हुए प्रखंड़ों में भी अपने आधार का विस्तार कर रहा है। लिंगा ने बताया कि तीखे दमन के बावजूद जनता अपनी सामूहिक ताकत पर दृढ़तापूर्वक निर्भर करते हुए, सीएएमएस की जनमिलिशिया घेनुआ बाहिनी का निर्माण कर आत्मरक्षा तन्त्रा को मजबूत करके, और जनता को राजनैतिक संघर्ष में शिक्षित करते हुए आन्दोलन के फलों की रक्षा करने मे सक्षम है।
हमने बीएएमएस की अध्यक्षा और सचिव से भी बातचीत की। उन्होंनें हमें बताया कि सीएमएएस द्वारा चलाए गए शराब विरोधी संघर्ष को क्षेत्रा की महिलाओं ने व्यापक समर्थन दिया था, जिसनें उन्हें एक अलग महिला संगठन बनाने के लिए प्रेरित किया। बीएएमएस ने आदिवासियों में प्रचलित पितृसत्तात्मक सम्बन्धों और रिवाजों, जैसे कि दो पत्नी रखना, के खिलाफ लड़ाई की है, और उन्हें इस प्रयास में काफी सफलता भी मिली है।
नारायणपट्टना में माओवादी की उपस्थिति और उनकी भूमिका के बारे में मिड़िया में काफी चर्चा हुई है। यह एक अन्य पहलू था जिसकी हम जांच पड़ताल करना चाहते थे। क्षेत्रा के विभिन्न राजनैतिक कार्यकर्ताओं से बातचीत के बाद हमें पता लगा कि कोरापुट में माओवादी आन्दोलन 2003 से शुरू हुआ, और जल्दी ही जिले के गरीब किसानों ने उनका समर्थन किया। हमें बताया गया कि यह आन्दोलन लोकसत्ता के भ्रूण रूप को स्वरूप देने की हद तक पहुंच गया है। इसका मतलब है: नारायणपट्टना के दो पंचायत इलाकों में क्रान्तिकारी जन कमेटी (आरपीसी) बनाकर शोषक राजसत्ता का स्थान लेना। वर्तमान में क्रान्तिकारी जन कमेटी (आरपीसी) अपनी ताकत तीन हिस्सों में केन्द्रीत किए हुए है: आत्मरक्षा, कृषि विकास, और स्वास्थय एवं शिक्षा। ऐसा लगता है कि माओवादी पार्टी की जड़ें मेहनतकश जनता में है, और अभी तक राज्य के हथियारबंद हमलों का मुकाबला करने मंे वे सफल रहे हैं। आन्दोलन के फैलाव से चिंतित राज्य अपने क्रूर बलों का प्रयोग कर रहा है, और इस तरह खुद को जनता से ओर ज्यादा अलगाव में ड़ाल रहा है।
हम इस नतीजे पर पहुंचे कि नारायणपट्टना संघर्ष हमारे समय के सबसे महत्वपूर्ण, परन्तु सबसे कम जाने गए आन्दोलनों में से एक है। कारपोरेट मीड़िया के साथ साथ जड़ शिक्षाविदो ने इसे गलत तरीके से पेश किया है। हम मिड़िया, शिक्षाविदों और व्यापक जनता से अपील करते हैं कि वे नारायणपट्टना का दौरा करें और जमीन, आजीविका व आत्मसम्मान के अपने अविजातिय अधिकार के लिए लड़ रहे लोगों पर भारतीय राज्य द्वारा ढ़हाए जा रहे जुल्मों का पर्दाफाश करें। तथ्य जांच दल की चाहता है कि नारायणपट्टना के अपने अनुभवों की एक विस्तृत रिपोर्ट बनाए ताकि मिड़िया द्वारा किए गए दुष्प्रचार को सही किया जा सके, जनता की आकांक्षा को आवाज दी जा सके और उन वास्तविकताओं को सामने लाया जा सके जिन्हें भारतीय राजसत्ता पुरजोर तरीके से छुपाने चाहती है।
डीएसयू तथ्य जांच दल नारायणपट्टना जनान्दोलन के साथ अपनी एकजुटता जाहिर करता है, और भारत सरकार से निम्नलिखित मांग करता हैः
1. नारायणपट्टना संघर्ष से जुड़े सभी 171 बन्दियों को बगैर शर्त तुरन्त रिहा किया जाए। राज्य यह सुनिश्चित करे कि नारायणपट्टना में गैरकानूनी गिरफ्तारियों, यातनाओं और हिरासत में हत्याओं को रोका जाए।
2. सीएमएएस, बीएएमएस और अन्य जनसंगठनों के पदाधिकारियों, कार्यकर्ताओं, सदस्यों और शुभचिंतकों पर बनाए गए केस वापिस लिए जाएं, और इन संगठनों को हमले या तंग किए जाने के भय से मुक्त होकर स्वतन्त्रातापूर्वक काम करने की अनुमति दी जाए। पुलिस द्वारा नाचिका लिंगा के लिए जारी किए गए ‘सर्वाधिक वांछित’ के वारंट तुरन्त वापिस लिए जाए, तथा उसे धमकी और गिरफ्तारी के भय से मुक्त होकर स्वतन्त्रातापूर्वक सीएमएएस के अध्यक्ष के बतौर अपने कर्तव्य निभाने की अनुमति दी जाए।
3. नारायणपट्टना के लोगों को जिन्दगी और सम्पत्ति विहीन बनाने के लिए जिम्मेवार राज्य के सशस्त्रा बलों के कर्मीयों को सजा दी जाए, और इनके अत्याचार से पीड़ित जनता को सरकार द्वारा मुआवजा दिया जाए।
4. नारायणपट्टना में स्थित अर्धसैन्य बलों और पुलिस के शिविरों को तुरन्त बन्द किया जाए।
5. शान्ति सेना नामक निजि गुंड़ा गिरोह को खत्म किया जाए और उसके सदस्यों को उनके अपराधों के लिए सजा दी जाए।
6. नारायणपट्टना की आदिवासी जनता द्वारा सीएमएएस के नेतृत्व में जोती गई जमीन को सरकार स्वीकृति प्रदान करे।
7. जमीन, जल और जंगल व खनिजों पर आदिवासियों के अधिकार को सुनिश्चित किया जाए, और उनकी स्वास्थय, शिक्षा, पीने के साफ पानी की उपलब्ध्ता जैसी बुनियादी जरूरतों पूरा किया जाए।
8. नारायणपट्टना का दौरा करने और लोगों से मिलने के इच्छुक पत्राकारों, बुद्धिजीवियों, शिक्षाविदों, कार्यकर्ताओं और अन्य लोगों को सरकार द्वारा ना रोका जाए। नारायणपट्टना और कोरापुट में उनकी स्वतन्त्रातापूर्वक आवाजाही को सुनिश्चित किया जाए।
डीएसयू जांच दल के सदस्यः
कुलदीप, दिल्ली विश्वविद्यालय, कुंदन, इग्नू, मनुभंजन, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, रितुपन, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, सौरभ, दिल्ली विश्वविद्यालय
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