सेवा में,
मुख्यमंत्री महोदया,
पश्चिम बंगाल सरकार
कोलकाता।
मैडम,
पिछले सप्ताह इस पत्र पर हस्ताक्षर करने वाले हम में से कुछ लोगों ने आपको एक खुली अपील भेजकर प्रार्थना की थी कि आप व्यक्तिगत पहलकदमी लेकर माओवादियों के साथ बातचीत की प्रक्रिया शुरू करें। क्योंकि हमारा मत है कि केवल इसी तरीके से हम उन लोगों से मतभेदों को हल कर सकते हैं जोकि इसी धरती के बेटें और बेटियां हैं, और हमारे दुश्मन नहीं हैं। हम इस पर भी जोर देते हैं कि मुद्दा केवल कानून और अर्थव्यवस्था से ही जुड़ा हुआ नहीं है, बल्कि इसकी जड़ें सामाजिक-आर्थिक तंगहाली में है और इसलिए यह एक पूर्णतया अलग तरह की मांग करता है। माओवादी की तरफ से हथियारबंद कार्रवाई पर रोक लगाने के बारे में आपके द्वारा बनाए गए मध्यस्थों के समूह ने भी 30 सितम्बर, 2011 को माओवादियों की राज्य नेतृत्व के साथ एक संयुक्त घोषणा की थी जिसकी शर्त यह थी कि आपकी सरकार भी ऐसा ही करेगी।
इस संदर्भ में, आपके द्वारा सम्बोधित की गई झारग्राम जनसभा का विशेष महत्व था। ऐसी आशा की जा रही थी कि आप संयुक्त बलों की वापिसी, राजनैतिक बंदियों की रिहाई और निसंदेह माओवादियों से बातचीत की जरूरत के बारे में कुछ घोषणा करेंगी। परन्तु सभा में जो तमाशा लफ्फाजी, ढोंग हुआ, वह उस पूर्व के निश्चय के साथ विश्वासघात था जो आपने जंगलमहल के लोगों के साथ होने वाले अन्याय की गंभीरता की तरफदारी करने में दिखाई थी। विश्वास का यह संकट उन सबके लिए अपमान के समान है जो जंगलमहल के लोगों द्वारा उठाए गए सवालों को सुलझाने के लिए न्याय के सिद्धांत को मुख्य आधार बनाकर नई रोशनी में इस मुद्दे को हल करने के उद्देश्य से पहलकदमी ले रहे थे।
माओवादियों द्वारा साफतौर पर की गई युद्धविराम की पेशकश के केन्द्रीय मुद्दे को एक तरफ करके माओवादियों को ‘सुपारीकिलर’ और ‘जंगलमाफिया’ के रूप में आरोपित करना गैर-जरूरी है। ममता बनर्जी ने उस गंभीरता और समझ से विश्वासघात करके मामले को ज्यादा खराब किया है जिसके तहत एक मुख्यमंत्री के रूप में वह हरेक को यह विश्वास दिलाना चाहती थी कि उसकी सरकार माओवादियों द्वारा सामने लाए गए मुद्दों को हल करने में सक्षम है। ऐसे कथनों की निंदा ही की जा सकती है। इसके साथ इस पूरे मामले को ऐतिहासिक रूप से देखना भी प्रसांगिक होगा कि नक्सलवादी आन्दोलन ही पहली बार विकास के सवाल को केन्द्र बिन्दू में लाया था। और इसी विरासत के तौर पर माओवादी आन्दोलन ही तंगहाल आदिवासियों, दलितों और अन्य वंचित अल्पसंख्यकों को विकास पर बहस के केन्द्र में खींच कर लाया था जोकि आपकी सरकार द्वारा प्रस्तावित विजिन के एकदम विपरित रूख रखता है। माओवादियों ने बार बार साफतौर पर कहा है कि यदि सारा विकास आदिवासियों, दलितों और अन्य उत्पीड़ित व वंचित तबकों के हितों को केन्द्र में रखता है तो वे स्वतः विकसित हो जाएंगें और शेष उपमहाद्विप उनका अनुसरण करेगा।
दूसरे शब्दों में, यदि किसी भी गंभीर व्यक्ति को चालीस सालों से अस्तित्वमान इस महत्वपूर्ण सवाल को हल करने के लिए राजनैतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है। सरकारी नौकरशाहों और अधिकारियों, केन्द्र और विभिन्न सरकारों द्वारा नियुक्त विभिन्न कमेटियों की रिपोर्टांे सहित कई लोगों ने इस बात की पुष्टि की है। लोगों की वास्तविक मांगों को दरकिनार कर आपने जिस तरीके से जंगलमहल के विकास का आश्वासन दिया है उसे सरकार के बतौर उपयुक्त और पर्याप्त समझ नहीं माना जा सकता। हम आपसे आग्रह करते हैं कि जंगल महल के दृढ़निश्चयी लोगों द्वारा सरकार की और किए गए सवालों का निड़रता से हल करें। हाल में दो खबरों ने इस बिंदु पर जोर दिया है।
17 अक्टूबर, 2011 को द हिंदु में छपी रिपोर्ट के अनुसार - ‘मध्यस्थों की छः सदस्यों की टीम के मुखिया सुजातो भद्रों ने कहा कि मुख्यमंत्री को ‘‘शब्दों का प्रयोग करने में ज्यादा सावधानी बरतनी चाहिए। यह सच है कि सरकार और माओवादियों में अभी भी तनाव कायम है। परन्तु ऐसी टिप्पणी राजनैतिक दूरी ही बनाएंगी।’’ यह उन्होंने एक प्रेस वार्ता में कहे। वह शनिवार को पश्चिमी मिदनापुर के झारग्राम में हुई रैली में सुश्री बनर्जी द्वारा प्रयोग किए गए ‘सुपारीकिलर’ और ‘जंगलमाफिया’ जैसे शब्दों के संदर्भ में यह बात कह रहे थे। 17 अक्टूबर, 2011 को ही हिंदूस्तान टाईम्स में छपा - ‘एक मध्यस्थ ने कहा है कि ‘‘...ऐसे समय में जब शान्ति प्रक्रिया जारी है, उनकी भावना और शरीर की हरकतें इतनी खराब थी कि अब से शान्ति प्रक्रिया को आगे बढ़ाना निरर्थक है..। शीर्ष माओवादी नेता आकाश ने इसी साल के तीन अक्तुबर से एक माह के युद्धविराम की पेशकश की थी। तब से वे अपने वचन पर कायम रहे हैं। परन्तु राज्य सरकार इसके ठीक विपरित चलती नजर आ रही है। ऐसे में क्यों आगे बढ़ें? इससे अच्छा होगा कि हमें मध्यस्थता करने के कार्यभार से मुक्त कर दिया जाए।’’ इन शब्दों के प्रयोग को नियंत्रित करना, और इससे भी महत्वपूर्ण, इन राजनैतिक ताकतों के प्रति दृष्टिकोण को बदलना समय की मांग है।
आपने भाषण में कहा कि माओवादी हिंसा में लिप्त हो रहे हैं। उन्होनें तीन लोगों को मार दिया है। जबकि संयुक्त सैन्य बल कोई सैन्य अभियान नहीं चला रहे हैं। यह अधुरा सच नहीं है। पिछले कई दशको सहित चुनाव पूर्व और बाद के दौर में हुई कितने लोगों की हत्याओं में मुख्यधारा की राजनैतिक पार्टीयां संलिप्त रही हैं? सच यह है कि 30 सितम्बर, 2011 को आपके मध्यस्थों द्वारा संयुक्त घोषणा किए जाने के बाद से एक हत्या में भी माओवादियों का हाथ नहीं है। यह आपके अपने मध्यस्थों ने ही उस समय चिन्हित किया है जब केन्द्र सरकार और केन्द्र व राज्य की नौकरशाही व शीर्ष पुलिस अधिकारी जंगलमहल में अपने ही देशवासियों, जिसमें माओवादी भी शामिल हैं, के खिलाफ युद्ध के नगाड़े बजा रहे हैं। दूसरी तरफ, आपकी पुलिस और संयुक्त बल हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठें हैं, चाहे आप और आपके शीर्ष अधिकारी कितनी ही उची आवाज में बोलकर जनता को इसका विश्वास दिलाने की कोशिश क्यों न कर रहे हों। मीडिया, भुक्तभोगियों और उनके रिश्तेदारों के जरिए पुलिस और संयुक्त बलों द्वारा गिरफ्तार करने, बलात्कार करने और छापामारी करने की खबरें सामने आ रहे हैं। वे गांवों में छापामारी कर रहे हैं, ग्रामीणों को भगा रहंे हैं और तंग कर रहे हैं, गुजारा चलाने के लिए साल पत्तों और जलावन को इक्ठ्ठा करने से भी रोक रहे हैं। हमें नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं के जरिए यह जानकारी मिली है कि सालबोनी के बांकीसोल की हालिया मुठभेड़ की कहानी झूठी थी। दस्ता सदस्यों के रूप में गिरफ्तार दिखाए गए तीन लोग वास्तव में साधारण ग्रामीण थे जो जलावन इक्ठ्ठा करने गए थे। इसके साथ, जिला प्रशासन ने जनवादी सभा करने और अभिव्यक्ति व आलोचना की स्वतंत्राता के जनता के संवैधानिक अधिकारों पर अलिखित प्रतिबंध लगा दिया है। अभी तक आपके बलों ने लगभग 80 लोगों को गिरफ्तार किया है, जिसमें वो आठ लोग भी शामिल हैं जिन्हें बेलपहाड़ी से गिरफ्तार किया गया था और बाद में पड़ोसी राज्य में यूएपीए में केस दर्ज करने के लिए झारखंड पुलिस को सौंप दिया गया। व्यापक जनमत से बनी नवनिर्मित सरकार तथ्यों को दबाकर गैरकानूनी चीजें कैसे कर सकती है? 21 अक्टूबर को लोधा-शबर कल्याण समिति ने पश्चिमी मिदनापुर जिला मजिस्ट्रेट को शिकायत की कि तलाशी अभियान के नाम पर पुलिस और संयुक्त सैन्य बल निरिह लोगों को यातनाएं दे रहे हैं और इस कारण अल्गेरिया गांव के 16 शबर परिवारों को गांव छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा। (आनन्द बाजार पत्रिका, 22 सितम्बर, 2011)। 26 अक्टुबर को हमें नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं ने बताया की कि गोलटोर इलाके के पटासोल गांव में भैरव वाहिनी ने गोपाल पांडे के घर को लूट लिया। हालांकि गोपाल बच गया, परन्तु उसकी 62 साल की मां अरूणा पांडे, 30 वर्षीय पत्नी सरिता पांडे और 9 साल की बेटी छोटी को उठा ले गए। अभी तक पुलिस ने कोई कार्रवाई नहीं की। एक मुख्यमंत्राी सह पुलिस मंत्राी होने के नाते इतनी ठोस वास्तविकताओं को आप नजरंदाज नहीं कर सकते। जंगलमहल में ‘भैरव वाहिनी’ के बतौर प्रसिद्ध नए दमनकारी गुंडा बल के बारे में आपको बताने की जरूरत नहीं है, क्योंकि आप इसके बारे में जानती ही होंगी। लोगों को कहना है कि यह बल आपके अपने टीएमसी के लोगों ने ही बनाया है जो सीपीएम के ‘हरमदों’ की जगह ले रहा है और जंगल माफिया की तरह काम कर रहा है और लोगों को मार रहा है। वे सादी वर्दी वाले बलों के साथ आधुनिक हथियार लेकर घूम रहा है और उनसे उसी प्रकार संरक्षण प्राप्त कर रहा है जिस तरह पुराने शासन के तहत सीपीएम हरमदों को संरक्षण देती थी।
स्थानीय लोगों, स्थानीय जन संगठनों से बातचीत करना ज्यादा सार्थक होता जोकि आपसे मिलकर लिखित में अपनी शिकायतें देना चाहते थे। और निश्चित रूप से एक राजनैतिक नेता के बतौर जमीनी स्थिति का सीधे अनुभव लेते जब लोग मुख्यमंत्राी से मिलकर बात करने की इच्छा जाहिर कर रहे थे। यह दुर्भाग्य है कि आपने अपने खुफिया अधिकारियों, नौकरशाहों और अपनी पार्टी के एक हिस्से से बात कर जमीनी स्थिति को जानने का निर्णय लिया।
अपने भाषण में, आपने उन टीएमसी सदस्यों के परिवार के सदस्यों को मुआवजा देने की घोषणा की जो आपके अनुसार माओवादियों द्वारा मारे गए थे। सभी मौतें- विशेषतः हमारी धरती के बेटे-बेटियों की मौंतें- दर्दनाक होती हैं। तब संयुक्त बलों, पुलिस और हरमद की गोलियों से मारे गए लोगों को मुआवजा क्यों नहीं दिया जाना चाहिए? लालमोहन टुड्डु, सिद्धु सोरेन और उमाकांत महतो जैसे बड़ी संख्या में झूठी मुठभेडों में मारे गए आदिवासियों और अन्य गरीब लोगों का क्या किया होगा? उन महिलाओं का क्या होगा जिनके साथ राज्य बलों और हरमदों ने बलात्कार किया था जिन्हें उत्पीड़ित किया था? क्या वे मुआवजे के योग्य नहीं हैं? क्या वे हमारी धरती की बेटे-बेटियां नहीं हैं? क्या आपको दिल से महसूस नहीं होता कि उनके साथ गंभीर अन्याय हुआ है और आतंक व निर्ममता के लिए जिम्मेवार लोगों पर भी केस दर्ज होने चाहिए? आपकी और पालानिआपन चिदम्बरम की सशस्त्रा बलों के दोषियों की सूची बहुत लम्बी है। क्यों आप स्वतंत्रा जांच करवाने के लिए तैयार नहीं हो और क्यों आप लोगों के खिलाफ खुंखार अपराध करने वाले पुलिस और संयुक्त बलों पर कार्रवाई नहीं कर रही है? ऐसा नहीं करके क्या आप ‘हम’ और ‘वे’ का उसी तरह का भेद पैदा नहीं कर रही है जैसाकि आपके पूर्व के लोगों ने किया था और उसके परिणामस्वरूप तबाह हो गए थे?
अपने भाषण में एक बार फिर आपने ‘कुछ लोगों’ को चेतावनी दी है जो जंगलमहल के लोगों को उकसाने के लिए कोलकाता से आते हैं। यह बात अलिमुद्धिन स्ट्रीट के उस्तादों द्वारा पहले के दिनों में उठाई गई ‘बाहरी लोगों’ के बहाने का स्मरण कराती है। आपको यह याद दिलाना प्रसांगिक होगा कि नंदीग्राम और सिंगुर के संघर्षरत् लोगों के साथ एकजुटता में गए अन्य लोगों के साथ आप भी ‘बाहरी’ ही थे। यह अजीब है कि आप भी अपने आलोचकों के खिलाफ वही बहाना बना रही हैं। कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति इसे केवल एक तरीके से ही समझ सकता है कि पहले आप सत्ता में नहीं थी और अब आप सत्ता में हैं।
14 अक्टूबर को झारग्राम में आपके भाषण से सिर्फ एक दिन पहले संयुक्त बल और पुलिस बल बेलपहाड़ी थाना के अंतर्गत शिमुलपाल इलाके के सुसनीजोबी गांव के निवासी सुजन सिंहा के घर में उसे गिरफ्तार करने गए। उस समय सुजन घर में नहीं था। पुलिस और संयुक्त बलों को घर में उसकी पत्नी शिबानी मिली जिसके साथ उन्होनें कुकर्म और बलात्कार किया। आत्मसम्मान को पहुंची इस ठेस को वो सहन नहीं कर पाई और उसने अपनी जिंदगी खत्म करने के लिए जहर खा लिया। उसे सबसे पहले बेलपहाडी प्रखंड के स्वास्थय केन्द्र में ले जाया गया और उसके बाद अचेतन अवस्था में ही उसे झारग्राम अस्पाताल में भर्ती करवाया गया। झारग्राम के एसपी गौरव शर्मा ने उसके परिवार के सदस्यों को मैडिकल रिपोर्ट देने से इन्कार कर दिया। डाक्टर के प्रयासों का शुक्रिया जिसके कारण शिबानी की चेतना लौट आई और उसकी शिकायत पर उसके परिवार के सदस्यों ने बेलपहाड़ी थाने द्वारा अविश्वसनीय कारणों के आधार पर प्राथमिकी दर्ज करने से मना करने के बाद झारग्राम के एसपी के आफिस में प्राथमिकी दर्ज करवाई। यह खबर मीडिया में उसी दिन आई थी जिस दिन आपने झारग्राम का दौरा किया था। क्या आपको याद है कि आपने सार्वजनिक तौर पर क्या कहा था? आपने कहा था कि जब भी पुलिसवाले गांवों में जांच के लिए घुसते हैं जो उन पर बलात्कार के आरोप लगा दिए जाते हैं। इसका क्या मतलब निकाला जाए? इसका मतलब है कि आपके पुलिस बल जैसा चाहे वैसा कर सकते हैं और यदि वे यौन उत्पीड़न या बलात्कार भी करेंगें तो उन्हें आपकी और से सुरक्षा दी जाएगी। यह बलात्कार का लाईसैंस देने के बराबर है। क्या आप उन दिनों को पूरी तरह भूल गई हैं जब पुराने शासन के दौरान चापला सरदार के बलात्कार का केस सामने लाने के कारण आपकों पुलिस बलों ने राईटर बिल्ड़िंग से घसीटते हुए बाहर निकाल दिया था?
युद्धभेरी बजाने में किसका हित है? निसंदेह हरेक केन्द्रीय सत्ता अपने ही लोगों के खिलाफ युद्ध छेड़ने वाले युद्ध पिपासु बन गए हैं। राज्य नौकरशाहों और शीर्ष पुलिस अधिकारियों का एक हिस्सा खुफिया गुप्तचर नेटवर्क बनाने के नाम पर लाखों रूपये छाप रहा है। उन्होंने पुराने शासन के दौरान सार्वजनिक धन का नाश किया है। पश्चिम मेदनीपुर के पुराने एसपी मनोज वर्मा, जो बदमाश के रूप में जाना जाता है, इनमें से एक है। नकदी की कमी वाले राज्य में इतना भारी खर्च क्यों किया जाए? क्या आप इसे दमन अभियानों पर खर्च करने की बजाए सार्वजनिक जनसुविधाओं के काम पर खर्च करना बुद्धिमानी नहीं समझती?
आपने दो कमेटिया बनाई - एक राजनैतिक बंदियों के केसों की समीक्षा के लिए और दूसरी माओवादियों से बात करने वाले सरकारी मध्यस्थों की। परन्तु समीक्षा कमेटी की शक्तियां क्या हैं? समीक्षा कमेटी ने पहले दौर में 78 राजनैतिक बंदियों को रिहा करने का अनुशंसा की। आपने उस सूची में से कुछ नाम हटा दिए, जोकि सभी माओवादी बंदी थे, और इस घटाकर 52 कर दिया। इन्हें 15 अगस्त को रिहा किया जाना था। उसके बाद आपने दो अन्य नामों का हटा दिया, इस बार भी माओवादी कैदियों के नाम हटाए गए। और अभी तक किसी को केस वापिस लेकर रिहा नहीं किया गया है। हम चकित हैं कि क्या चुनाव पूर्व के वायदे सिर्फ तोड़ने के लिए और लोगों को धोखा देने के लिए किए गए थे!
18 अक्टूबर को आप अपने मध्यस्थतों के साथ शीर्ष पुलिस अधिकारियों, नौकरशाहों और कुछ मुठ्ठी-भर मंत्रियों सहित मिले और मीडिया में छपी खबरों से पता लगता है कि इस सोच में शायद ही कोई बदलाव आया है। यह सारा खेल ‘आपरेशन ग्रीन हंट’ का अभिन्न अंग है जिसे केन्द्र सरकार विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और घरेलू बड़े पूंजीपतियों के हित में अपने देश की जनता के खिलाफ ही चला रही है। इसका हिस्सा मत बनिए। अगर आप सात दिनों के बाद हमारे अपने लोगों के खिलाफ हर तरीका अपनाने के स्टैंड पर अडिग रहीं तो इसके परिणाम के बारे में भी थोड़ा सोचो कि यह कितने लोगों की बलि लेगा और इससे हमारे देशवासियों को कितनी परेशानी होगी। कितने आदमी और औरतें पुलिसवालों और संयुक्त बलों की गोलियों से मारे जाएंगें, कितने लोग जिंदगी भर के लिए अपंग हो जाएंगें, कितनी महिलाएं आपके बलों की वासना का शिकार बनेगीं? कितने लोग हमेशा के लिए गायब हो जाएंगें? कितनों को गिरफ्तार किया जाएगा और जेल भेजा जाएगा? जंगलमहल का लोगों को काफी मुसीबत झेलनी पड़ रही है। उन्हें इसलिए मुसीबत झेलनी पड़ रही है क्योंकि वे न्याय के लिए लड़ रहे हैं। आज तक उन्हें न्याय देने से इन्कार किया जाता रहा है। क्या आप उनकी मुसीबतों को बढ़ाना चाहती हैं और उन्हें न्याय देने से इन्कार करना चाहती हैं? या क्या आप अपने सबसे अच्छे प्रयास करके यह देखना चाहती हैं कि न्याय का प्रसार हो और अत्याचारियों को सजा दी जाए? पुराना घृणास्पद शासन अपने अहंकार और जनता से अलगाव के कारण तबाह हो गया। इस पर दोबारा विचार कीजिए।
हम आपसे एकबार फिर अपील करते हैं कि माओवादियों और विभिन्न जनवादी संगठनों के प्रतिनिधियों जोकि जंगलमहल में पूर्व और हाल में भी राजकीय दमन के शिकार बने हैं, के साथ बातचीत करने के लिए बैठें। हम संयुक्त बलों को वापिस बुलाने, सभी राजनैतिक बंदियों की बेशर्त रिहाई और बातचीत के लिए अनुकूल माहौल बनाने की मांगों को दोबारा दोहराते हैं।
हस्ताक्षरकर्ता:
तरूण सान्याल, एस ए आर गिलानी, जी एन साईंबाबा, मेहर इंजिनियर,अमित दियुति कुमार, हिमाद्री शंकर बनर्जी, रमेश राय, संमातानाथ घोष, कंचन कुमार, सुमन कल्याण मौलिक, वरवरा राव, गौतम नवलखा, अरूप दास गुप्ता, सुभेंदू दास गुप्ता, दीपांकर चक्रोबर्ती, कल्याण राय, देबाश्री दे, मुक्तेश घोष, प्रणब नायक, देबब्रत पांडा, नबारूण भट्टाचार्य, सरोज गिरी, रोना विल्सन, सुखेंदू भट्टाचार्य, रत्न दास गुप्ता, अनुराधा राय, गुरूप्रसाद कार, स्वाति घोष, पार्थो सारथी राय, अमित भट्टाचार्य।
(अमित भट्टाचार्य ने 27अक्टुबर, 2011 को हस्ताक्षरकर्ताओं की ओर से जारी किया गया पत्रा )
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