एक परम्परा के अनुसार सुरजाही पूजा बाहरी भगवान (भूतों) के लिए होता है। जंगल में महुआ एवं केंद पेड़, दीमक के बिल के पास सम्पन्न होता है। एक दिन इस पूजा के अवसरवत ही अपना नानी घर गए थे। पूजा सम्पन्न होने के बाद गाँव के बाहर जंगल में खाना बन रहा था। मुर्गा, सुआर, भेड़ा का पूजा हुआ था एक नियम के तहत जो भी मांस वगैरह है उसको वही खाकर खत्म करने का था सभी भाई गुतिया लोग अपने-अपने काम में लगे हुए थे। हम बच्चे लोग पत्ता तोड कर लाने का काम सौंपा गया। मांस बनने के बाद खूब खाए पिये। इसके बाद आराम करने लगे थे। कुछ बड़े लोग कहानी शुरू किए तो कुछ गीत गाने लगे। हम लोग केवल श्रोता के रूप में सुनते रहे। इसी बीच मेरे छोटे मामू ने एक गीत गाया। अफगनिस्तान रे बम बारूद साडे कान! भारत दिशोम रे साडे सेटेरना! अफगानिस्तान में बम बारूद का आवाज गुंज रहा है। भारत देश में आवाज पहुँच गया है। क्योंकि उस वक्त शायद अफगानिस्तान में अमेरिका हमला कर रहे थे। इस गीत को आगे और भी पंक्ति है। सुना इसके बाद मेरे एक चाचा ने इस गीत को पूरा लिखा! मैं याद करने का पूरा कोशिश किया। क्योंकि मुझे बहुत अच्छा लगा। चूँकि हर गीत से बिलकूल अलग था। यह गीत मुझे सामाजिक क्षेत्रों में कदम बढ़ाने के लिए प्रेरित किया। गाँव के एक शादी घर में सैकड़ों लोगों के बीच अपनी ही सुर में जब मैंने गाया तब लोग आश्चर्य हो गए। महिलाएं गाने लगी। लोग आनन्द उठाए। इसके बाद से मेरे अन्दर एक निडरता बढ़ता गया। ऐसे ही नये गीत गाने एवं सीखने के लिए मेरा उत्सुकता बना हुआ रहता था।
बारह तेरह साल का उम्र होगा। एक दिन मेरे एक चाचा ने कहा- तुम जो गीत गाता है वैसे ही गाने वाले एवं सिखाने वाले हमारे गाँव में आज दीदी लोग आयीं हैं। नक्सल दीदी लोग है। बहुत अच्छा से बात करते हैं और ऐसा ही गीत सुनाते हैं। गरीबों के बारे में बताते हैं। मैं बोला फिर दीदी लोग आने से मुझे बताया कीजिएगा। मैं भी वहां जाऊंगा। दीदी लोगों से मिलूंगा! गीत सिखूंगा। मुझे डर नहीं था। क्योंकि मेरे मामू घर में भी दीदी लोग जाती थी। और वही दीदी लोगों से ही मेरे मामू एवं भैया लोग इस गीत को सिखा था। तब फिर एक दिन बोला जो दीदी लोग गाना गाती है न वे झारखंड एभेन संस्था से जुड़े हुए हैं। मैं चाचा जी से पूछा क्या होता है झारखंड एभेन? जनता को जगाने वाला यह एक टीम है बताया। जनवरी फरवरी महिना था। शाम को करीब 6 बजे चाचा ने मुझे बुलाया और बताया कि आज परगना चाचा के पास दीदी लोग आयी है। तुम जाओगे? मैं तो सुनकर बहुत खूश हो गया! और बोला हाँ! क्यों नहीं! जबसे मैं सुना दीदी लोगों के बारे में तब से इन्तजार करता रहा था। बस अपने फटा हुआ चादर लिया और दूसरे टोला के चाचा के पास चाचा के साथ गया! आग का पसंगी लगी हुई थी! आग पर ताप रहे थे! आपस में हम लोग ेबात कर रहे हैं गन्दा-गन्दा शब्द को नहीं बोलना है। क्योंकि दीदी लोग इस सब का विरोध करते हैं। लजाना नहीं है! जो भी पूछने पर बताना है। डरना भी नहीं है। हाँ और दीदी लोग आने के बाद सोना भी नहीं है! ध्यान से सुनना है। ठंडा भी बहुत था। पवाल में बैठे हुए थे। कठहल पेड़ के नीचे करीब 20-30 आदमी थे। उनमें कुछ महिलाएं भी थी।
करीब 8 बजे के आसपास रात दीदी लोग खाना खाकर निकल रही है। हम लोगों के पास आ जाती है। बैठ जाती है। एक दूसरे का परिचय पूछती है। बेहिचक किसी मर्द से भी बातचीत करती है। मेरे तरफ देखते हुए एक नियनिया दीदी ने नाम पूछा तब जीतन मैंने अपना नाम बताया। हँसते हुए बड़ी दीदी ने अपने पास बैठाया। पीठ को ठोकते हुए बहुत प्यार से सब कुछ पूछी! कितना भाई हैं। कितना बहन हैं! तुम कौन भाई है! क्या करते हो! मामा-मामी क्या करते है? बहुत कुछ जानकारी लेने के बाद बातचीत शुरू हुई एक सभापति का चयन किया गया। कुछ नये लोग पहुँचे थे। मैं भी नये लोगों में से एक था। दीदी ने मीटिंग में आने के लिए स्वागत ज्ञापन किया! तालियां बजायी गयी। कुछ विषय केन्द्रीत कर बातचीत का सिलसिला आगे बढ़ा। मुझको भी बोलने एवं गाने के लिए कहा गया। थोड़ा सा शुरूआत में संकट आया। फिर भी हिम्मत करके एक गीत बस वही वाला अफगानिस्तान में बम बारूद साडे काम गाया। यह गीत सुनकर जितनी भी दीदी आयी थी बहुत खुश हो गयीं। बड़ी दीदी तो पीठ बहुत थपथपायी। वाह-वाह करते हुए अपने गोदी में बैठायी। मुझे बहुत खुशी हुई। मां के बाद यह दूसरा प्यार किसी अपरिचित दीदी से मुझे मिला। यह मैं मन ही मन बहुत देर तक सोचते रहा। दीदी लोगों ने इसके बाद कई गीत भी प्रस्तुत की। खिचड़ी दिया। खाये, इसके बाद 10 बजेे रात अपने घर चाचा के साथ पहुँचे। मां पूछी- इतनी रात को कहां गया था? हाँलाकि मां थोड़ा बहुत जानती थी। बताया वहां। तब कुछ नहीं बोली। दूसरा दिन सुबह अपने दोस्त यार यह कहानी सुनाने लगे तो बहुत प्रभावित हुए। सभी बोला अगला बार हमको भी बताइएगा। मैं कई गीत भी इस बीच सिख चुका था। अगन-बगन मुंगा रे आम दोरेंगेच् उरिचम जापीत् आकात् मां एमेनोक ताबोंन थे लोगो ने ते तडाम पे दिशोम सधीन बोन तायनोम ऐना। इसका मतलब होता है इस अन्धेरा युग में तुम शोषित पीड़ित सोये हुए हो! चलो जागो, सर साथ लगन के साथ बढ़ो! देश स्वाधीन के लिए पीछे होगए हैं। अब भी एकदम मतलब वाले गीत हैं। अब किसी भी पर्व त्यौहार शादी-विवाह पर अक्सर गाना शुरू किया। महिलाएं बुढ़े लोग, बच्चे लोगों के साथ मेरा घनिष्टता बढ़ता गया। ऐसे और सीखने का जिज्ञासा बढ़ता गया।
1992 के फरवरी या मार्च का महीना था। गाँव में हल्का-फुल्का नक्सलवादी विचार फल-फूल रहा था। कुछ लोग किसान कमिटी का सदस्यता भी ग्रहण कर चूके थे। सही किसानों के हाथ में जमीन और क्रांतिकारी किसान कमिटी के हाथ में तमाम राजनीतिक हुकूमत चाहिए, नारे को अमल करने हेतु गांव में सक्रिय भूमिका में थे। गांव के लोगों को समझाने का कोशिश करते कि यह कमिटी किसानों का है। तमाम तरह की अधिकारों के लिए लड़ने वाला कमिटी है। बताया जाता था कि इस से उ$पर एमसीसी संस्था है। जो खास विचारधारा के बुनियाद पर संचालित है। वैसे सक्रिय लोगों के अगुवाई में गाँव में झारखंड एमेन टीम पूरे ताम-झाम के साथ शाम को पहुँच जाते थे। पूरे गाँव के महिला-पुरुष बच्चे बुढ़े धीरे-धीरे हमारे टोला के मांझी थान के पास जमा हो जाते हैं।
मैं भी बुलावे पर वहां पहुँच जाता हूँ। किसी से परिचित नहीं हूँ। घर में भैया भी गए हुए थे। एक किनारे बैठ जाता हूँ। झारखंड एभेन वाले टीम लाल झण्डा कमर में और माथा में बन्धकर तैयार हो जाते हैं। रोशनी के लिए पेट्रोमेक्स जल रहा था। मांदर-नगाड़ा एक घर से निकाला जाता है। मांदर लिए एक आदमी, जो कसाकेंद गांव का रहने वाला था, आगे बढ़कर उपस्थित माता-बहनों एवं भाई-बन्धुओं का अभिनन्दन करते हुए शांति के साथ बैठने के लिए अपील करते हैं। अर्जून, कहते हैं आज गरीबों का गीत गाया जाएगा। इस गीत में मेहनतकशों का जीवन दशा एवं इससे मुक्ति कैसे मिलेगी, दर्शाया गया है। हमारे जैसे टीम की इस गाँव में भी जरूरत है। इस टीम में कुछ महिलाएं लड़कियां भी थी। जो नाचने एवं गाने के लिए पूरी तरह से तैयार नजर आ रही थी। सभी का पोशाक बस लाल झण्डा युक्त था। जब मैनें गौर से उन लड़कियां को देखा तो बगल गाँव कसाकेंद-गोलाडबर के जैसे लगा। सही भी था। अर्जून और चान्दा ने दाह कोन बिजली बेनाक काना! सर्वहारा दाड़े ते आबोगिबोन ताहेन माना अतुरे आबोगिबोन अहेन मामा दाई बुरारे! सेरमा जोपोत बिल्डींग तैयारोंक कान मजदूर कोबाक दाड़े ते! धरती खोन फोसल तैयारोक कान किसान कोवाक् दाड़े ते! आबोगिबोन ताहेन काना रेंगेच तेताड़ रे! पानी से बिजली तैयार हो रही सर्वहारा ताकत से। आसमान छुते बिल्डींग तैयार हो रही है मजदूरों की ताकत से। धरती से फसल उग रही है किसानों की ताकत से। फिर भी हम अन्धेरा में रहते हैं। झोपड़ी में रहते हैं। भूखे रहते हैं। संथाली गीत सभी लोगों को झकझोर कर रख दिया। गीत गाते हुए मांदर नगाड़ा के ताल पर सभी तैयार लड़के एवं लड़कियां नाचने लगी। एकदम नाच भी प्रभावशाली था। यह नाच एवं गीत मेरे जीवन में एकदम नयापन था। कई गीत को गाया। एक छोटी-मोटी नाटक का भी मंचन किया गया। जिससे दिखाया गया जमींदार लोग द्वारा किसानों गरीबों को कैसे शोषण किया जाता है। इसके लिए किसान कमिटी क्या तैयारी कर रही है। इस तरह का कार्यक्रम होने के बाद गांव से भी एक कमिटी बनाया गया। कुछ शिक्षित लोग कमिटी का सदस्य बना। किसान संघर्ष निर्माण समिति गांव में गठित हुई। कुछ दिन के बाद पुनः वह टीम गाँव में आई। उस दिन प्यारी दीदी जिसने मुझे अपनी गोद मे बिठाया था, से मैं मिला। उन्होनें बहुत प्यार से मुझे कहा- तुम भी गाओ नाचो! मेरे साथ गांव के कुछ मेरे जैसे उम्र के बच्चे भी थे। हम सभी हां में हां मिला दिए। इसके बाद वही नाच गान शुरू हुआ। अर्जून एवं चान्द ने हम लोगों को नाच (युद्ध नृत्य) सिखाने लगे। बहुत उत्सुकता के साथ नाचते लगे कभी इधर कभी उधर कोई ताल से नहीं नाच पाते थे। फिर भी सिखाने वाले गुस्साते नहीं। बड़ी दीदी खुब कहती बहुत अच्छा। बहुत अच्छा। सभी कामरेड ने नाच सिख लिया है। ठीक है कामरेड! वह कहती। थोड़ा बहुत तो नाच को हम लोग सिख लिए। अंत में हाथ मिलाते हुए जाते समय कहती- हमलोग जा रहे हैं। फिर आएंगे। इसी बीच एक चाचा ने कहा- यही दीदी का नाम है रीता दी। शादी शुदा भी नहीं है। मैं सोचा- फिर भी एक बाल बच्चे वाली मां की तरह हमारे साथ ऐसा व्यवहार। वह दीदी से मैं पूरा प्रभावित हो जाता हूँ। जब भी ऐसा ही गाँव में मिटिंग होती, मैं आ जाता। और बातचीत सुनता। ऐसे ही करते-करते गांव में एक टीम तैयार हो गया। साथ में बाल संघर्ष निर्माण समिति भी बना उसका सदस्य मुझको भी बनाया गया। समिति का काम था प्रत्येक दिन शाम को एक जगह जमा होकर गीत गाना। बड़ों से व्यवहार में संस्कार बदलना। गन्दा-गन्दा शब्द नहीं बोलना। साफ सुथरा पर ध्यान देना है। पढ़ाई-लिखाई पर जोर देना। गाँव में झारखंड एभेन टीम बनाना है। बुर्जूआ गीत को विरोध करना है। कोई भी पर्व त्यौहार में क्रांतिकारी गीत गाना है। गन्दी मानसिकता को खत्म कर तमाम लोगों को इसकी ओर जागरूक करना है। जब भी गाँव में ऐसा कार्यक्रम हो तो जाना है। और नये-नये गीत एवं नाच को सिखना है। और भी की सारे ज्ञान को अर्जित करना है। आपस में झगड़ना नहीं है। सभी के साथ दोस्ती बनाकर रहना है। यह चर्चा प्रत्येक दिन करना है। इस तरह करके गांव में एक सांस्कृतिक टीम तैयार हो गया। टीम बनने के बाद छोटा छोटा तीर धनुष हम लोगों ने बनाया। लकड़ी का बन्दुक भी बनाये। कुछ लाल झण्डा भी बड़े लोगों ने मांगाया। सारे साजोसामान के साथ ऐसा नाचना गाना हम लोगों ने भी गाँव में शुरू किया। नाचने-गाने वालों की संख्या गांव में करीब 100 के आसपास पहुँच गयी। इसमें कुछ लड़कियां भी थी।
उसी साल 1992 में नारी मुक्ति संघ द्वारा गिरिडीह में एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया था। इसमें हम लोगों को भी बुलाया गया। जुलूस एवं आम सभा था। 8 मार्च अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस का कार्यक्रम था। जब हम लोग गिरिडीह पहुँचें तो हम लोग जैसे बहुत सारी टीमों को हमने देखा। सभी अगल-बगल गाँव के थे। पूरा जनता का भीड़ जमी थी। जुलूस के आगे-आगे सिखाया गया नाच को हम लोग भी नाचने लगे। तीर एवं बन्दूक का निशाना लगा कर नाचते रहे। पूरे शहर में यह नाच जुलूस के आगे-आगे करते जाते थे। झण्डा मैदान पहुँचने के बाद वही दीदी हम लोगों के पास आ जाती है। और चीनी का शर्बत पिलाते हुए पूछती है। कैसे लगा कार्यक्रम? क्या तुम लोग थक गए हो। हम लोग ने कहा दीदी बहुत अच्छा लगा। और भी नाचने का मन करता है। हांलाकि हम लोग थक चूके थे। इसके बाद एक जगह बैठ गए। और चुड़ा-गुड़ खाने लगे। तब तक शाम हो चूका था। जेनरेटर के लाइट से मैदान जगमगा रहा था। लाउडस्पीकर का आवाज गूंज रहा था। हिन्दी समझ में नहीं आती थी। कुछ महिला एवं पुरुष लोग स्टेज में चढ़कर भाषण देने लगे। पूरा मैदान भरा हुआ था। कुछ देर के बाद कुछ लड़कियां स्टेज पर चढ़कर संथाली में गाने लगी। क्रांति पुरब पश्चिम। क्रांति उभार दक्षिण। क्रांति चरियाकोन फैलाव ऐना। संथाली गीत आकर्षित किया। इसके बाद मार्क्सवाद-मार्क्सवाद देमांक् दर्शन। लेनिनवाद -लेनिनवाद रेयांक दर्शन! गीत बहुत अच्छा लगा क्योंकि दोनों गीत संथाली में था। इसलिए सिखने का इच्छा और बढ़ा कुछ देर के बाद खिचड़ी खाने के लिए बगल में ले गया। वहां पर भी वही बड़ी दीदी बहुत ध्यान दे रही थी। बाद में हम लोग गमछा बिछा कर वहीं खूले आसमान के नीचे सो गए। जब भी गीत सुनते तुरन्त उठ जाते थे। झण्डा मैदान में रात भर गीत एवं भाषण चला। सुबह गाड़ी में बैठकर घर आ गए।
दीदी के साथ सभी बच्चे का दोस्ती बढ़ता गया। लगातार दीदी के साथ और भी दीदी आती थी। सभी दीदी लोग बेटा एवं बेटी करके पुकारा करती थी। तब तक धीरे-धीरे समझ में आने लगी कि यह समाज बदलने की लड़ाई को आगे बढ़ाने के लिए हम लोग संगठित एवं जागरूक हो रहे हैं। थोड़ा बहुत स्कूल में पढ़ाई भी सीख गया था। कुछ पर्चा पढ़ना शुरू किया। केन्दुपत्ता मजदूरी वृद्धि आन्दोलन का पर्चा पढ़ा। नशाखोरी के खिलाफ प्रचारित पर्चा पढ़ा। गन्दी संस्कृति के खिलाफ पर्चा गांव में वितरण किया जा रहा था। यह सारे पर्चा पढ़कर बहुत कुछ जानकारी प्राप्त हुआ गिरिडीह कार्यक्रम का पर्चा को भी पढ़ा। अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर विस्तार से विश्लेषण किया गया था। कुछ किताबें पढ़कर हम लोगों को समझाया जाता रहा। शोषक-शासक क्या है? पुलिस-मिलिट्री क्या करते हैं? मजदूरों किसानों को कैसे शोषण किया जाता है। आखिर हम लोग गरीब क्यों हैं। हम लोग क्यों डरते हैं। जनता के लिए लड़ते हुए कौन शहीद हुए हैं। बहुत कुछ बैठक में जानकारी मिलते रहा। रात में तीन चार घंटा तक गांव में मिटिंग होती। बीच-बीच गीत भी होती।
15 अगस्त का दिन था। पीरटांड प्रखण्ड कार्यालय के पास एक आम सभा रखा गया था। बाल स्वयंसेवक वाहिनी के तरफ से एक पर्चा भी छपवाया गया था। जब हम लोग जुलूस में गये तो बहुत सारे बच्चे लोग को देखा। ये आजादी झूठी है। देश की जनता भूखी है। हाथ में लिए तख्तियां लिये बच्चे जुलूस में नारा बुलन्द कर रहे थे। हम लोगों का भी दिया। साथ में नारा देने लगे। आमसभा में कुछ बच्चे वक्तव्य दिया। कहा जा रहा था कि ये आजादी गरीबों, बच्चों के लिए नहीं बल्कि अमीरों के लिए है। पर्चा में भी वही सब विश्लेषण था। क्योंकि पढ़ने के लिए किताब नहीं, कापी नहीं! कलम नहीं हैं। पहनने के लिए चप्पल नहीं! सिर को ढ़कने के लिए कपड़ा नहीं यह कैसी आजादी है? बीमारी के समय दवा नहीं मिलता है! खाने के लिए खाना नहीं है। यह सब चर्चा मुझे सही लगा। इसी तरह चर्चा सुनकर मेरे अन्दर एक जज्बा पैदा हुआ कि आखिर मैं क्या हूँ। मैं भी इस तरह बोल सकता हूँ। इसके बाद से मैं सक्रिय होने लगा। झारखंड एभेन टीम के साथ घुमना शुरू किया। नाच-गान को उन्नत करने का कोशिश किया। इस तरह काम में जाने पर हालांकि मां ने दबाव डाला। मगर मैं नहीं माना। खूद पेशेवर के रूप में घर से निकल कर जागरूकता टीम के साथ हो गया। एक बार जब मैं दो-चार दिन के बाद घर गया तो मां पूरा रोने लगी। बोली मत जाओ बेटा। घर में रहो। मुझे ठीक नहीं लगता है। दूसरे तरफ मेरे पिताजी घर से भागने के लिए कहते। पूरा जोर-जोर से डांट रहे थे। मैं कुछ निर्णय नहीं कर पा रहा था। क्या करूं क्या नहीं। कुछ दिन तक घर में रहा। घर में रहने पर एकदम मन नहीं लगता था। फिर टीम आयी गाँव में, तब मैं पुनः टीम के साथ चला गया। यह कह कर कि फिर आऊंगा। उस समय मेरा उम्र करीब 15-16 वर्ष था। तब तक स्कूल की पढ़ाई छोड़ चूका था। क्योंकि समय पर किताब कापी का जुगाड़ नहीं हो पाता था। तीसरा क्लास तक मात्रा गावँ के गुरूजी से पढ़ पाया।
1995 में उत्तर प्रदेश के बनारस में प्रेम चन्द जयन्ती के अवसर पर एक हॉल कार्यक्रम था। साथ ही जुलूस भी होने वाला था। टीम में जाने के लिए अर्जुन और चान्द ने मेरे नाम का भी चयन किया था। शायद पांच सितम्बर का दिन था। आठ-दस की संख्या टीम में थे। मैं सब से जुनियर था। वही साजो-सामान के साथ गोमों स्टेशन हम लोग शाम को पहुँचे। कुछ लड़कियां भी थी। एक-दो लड़कियों से मैं परिचित था, जो गाँव में जाती थी। शाम में होटल में खाना खाने के बाद स्टेशन में बैठे हुए थे। ट्रेन आने के पहले तैयार हो गए। स्टेशन में भीड़ बहुत थी। बनारस जाने के लिए करीब 20-30 आदमी जुट गए थे। बहुत हड़बड़ी में ट्रेन में चढ़ गए। सीट भी नहीं मिला। ऐसे ही खड़े-खड़े जाना पड़ा बनारस तक। कुछ देर तक कुछ दीदी लोगों ने अपने पास सीट में बैठायी। किसी का नाम नहीं पूछ पाया। क्योंकि अपरिचित होने के वजह से लज्जा लगती थी। बनारस पहुँचने के बाद हॉल में पहुँच गए। बहुत सारे लोग पहुँचे हुए थे। लगता था अच्छे-अच्छे लोग हैं। कार्यक्रम शुरु हुआ। हिन्दी बहुत कम समझ रहा था। प्रेमचन्द के बारे में बहुत वक्ताओं ने अपना विचार रखा। हम लोगों के साथ गए एक बड़े आदमी ने भी वक्तव्य रखा। वह आदिवासी ही थे। मैं चान्द को पूछा कौन है? चान्द ने भस्कार दा है बताया। आदिवासी भी इतना बुद्धिजीवी मन ही मन में बहुत देर तक सोचा। कुछ देर के बाद झारखंड एभेन टीम को गीत पेश करने के लिए पुकारा। तब तक हम लोग झण्डा-घुघ्ंारू-धोती पहनकर तैयार थे। नाचते हुए स्टेज पर चढ़ गए। गौतम मुर्मू मांदर बजा रहे थे। फिर एक साथी नगाड़ा ठोक रहे थे। चान्द, सिरमाल, सिद्धु सुरेश, निलाम्बर के नेतृत्व में कतारबद्ध होकर खड़े हो गए। सुन्दर मरांडी ने संथाली में ही एक गीत का शुरूआत किया। पुराना संथाली सुर में ही। सजाक् आबोन बोयहा आराक-आराक् झण्डा ते। तैयार होना है लाल लाल झंडा से। गीत के साथ मांदर के ताल पर एक्टींग की। उपस्थिति दर्शकों ने भरपुर तालियां बजायी। हम लोगों का फोटो खिंचा जा रहा था। इस तरह कार्यक्रम ने मुझे बहुत प्रभावित किया। भास्कर दा ने हम लोगों के पास आने के बाद सभी से हाथ मिलाते हुए कहा बहुत अच्छा कार्यक्रम रहा। इसके बाद एक दीदी भी संथाली से बोल रही थी, पास आयी और बोली- आडी बेस पे अदूक केदा। कुछ नये लोगों से नाम भी पूछा। मैंने अपना नाम बताया। मैं चान्द को पूछा- ये दीदी का नाम है? चान्द ने सभी का दीदी है बताया। सभी का दीदी ही क्यों। मन में मंथन करने लगा। फिर पूछा- यह कैसे हो सकता है? बोला हां। सभी के बड़ी दीदी ही है। खैर जो भी हो ज्यादा नहीं पूछा। हॉल का कार्यक्रम समाप्त होने के बाद जुलूस भी था। बारिश की वजह से जुलूस आधा रास्ता से ही खत्म कर दिया गया। फिर दूसरी ट्रेन से गोमों स्टेशन वापस लौट आए।
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