कितनी महान है तूँ
माँ
कत्लगाह के दरवाजे पर
गिनती रही कलम होते सिर तूँ
1084 तक
पथराई हुई चीख को दबा कर सीने में
तूँ भेजती रही वीरों को
रण की ओर
कल एक और मरा है I
1084 वें के बाद
तूँ गिनती तो नहीं भूली
अभ उम्र की ढलती छाया
के साथ I
कल तूँ रोई थी किया
आँखों से छलकती गंगा को
कैसे रोका था तुने
नहीं तुम नहीं रोई होगी
पथराई आँखों में जलती ज्वाला को
लेकर तुने
दुहराया होगा परण
और पुत्रों को
जनम देने का
वह माँ !
तूँ महान जननी है !!
काश सारी माएं
1084 की माँ जैसी हों I
by Randeep Singh
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