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गुरुवार, 29 दिसंबर 2011

मौत की सजा के पूर्ण खात्मे के लिए


(जीतन मरांडी व अन्य साथियों की फांसी की सजा रद्ध होने के संदर्भ में दिल्ली में फांसी की सजा के खिलाफ हुई गोष्ठी में परित प्रस्ताव)

यह गोष्ठी मानती है कि मौत की सजा सामाजिक असमानता को दिखाती है। यह इस बात को भी दिखाती है कि यह राज्य की सोचा समझी चाल है। भारतीय उपमहाद्वीप में वर्ग से गुथी हुई जातीय व्यवस्था से बने सामंती ढांचे की ताकत में, और मुस्लिम अल्पसंख्यकों व राष्ट्रीयताओं के प्रति साम्प्रदायिक पूर्वाग्रहों में इस पक्षपात की झलक साफ दिखाई देती है। साम्राज्यवादी बुर्जआ और उसके स्थानीय एजेंटों के मुनाफे को अधिकतम करने के लिए लाई गई उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण की नीतियों के बढ़ते हमले के साथ राज्य ने खुद को दमनकारी कानूनों से भी लैस कर लिया है, ताकि जनता के बढ़ते गुस्से के ज्वार को रोका जा सके। दमनकारी कानूनों का सहारा लेकर राज्य एक ‘राष्ट्रीय सुरक्षा राज्य’ बनाने की आवश्यकता को वैचारिक स्वीकृति देने की कोशिश कर रहा है। यह कोशिश अमेरिका के नेतृत्व में जारी तथाकथित आतंक के विरूद्ध युद्ध को प्रोत्साहित करेगा। इसके कारण मौत की सजा की पूर्ण समाप्ति की लड़ाई तीखी और जटिल बन गई है, क्योंकि मौत की सजा जनविरोधी कानूनों से लैस राष्ट्रीय सुरक्षा राज्य के साथ घुलमिल गई है। ऐसी स्थिति ने फांसी की सजा को लोगों के बढ़ते गुस्से पर रोक लगाने के लिए प्रयोग करना आसान बना दिया है। हमारे देश में राज्य द्वारा दी जानी वाली मौत की सजा देने के मामलों में वृद्धि के कारण, और मौत की सजा में असमानता को मुख्यतः चिन्हित करके यह गोष्ठी उस मौत की सजा की वैधता पर प्रश्नचिन्ह लगाती है क्योंकि मौत की सजा को राज्य न्याय की खंडित सोच को वैध ठहराने के लिए प्रयोग कर रहा है।
जब तक भारतीय उपमहाद्विप में लोग विभिन्न सरकारों की गलत नीतियों से उपजे असमानता के जीवंत यर्थाथ को भोगेंगें, तब तक इस यथार्थ को इसके कानूनी तन्त्रा के परिणाम के रूप में देखा जा सकता है जिसे लोगों के नाम पर लागू किया जाता है। यदि भारतीय राज्य फांसी की सजा को प्रतिकार या उपयोगी मूल्य के रूप में मानना जारी रखेगा, तो असमानता सरकार और नीति निर्धारकों, जोकि उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण के दौर में लालच और अनिष्ट संचय पर आधारित व्यवस्था का खुला समर्थन करते हैं, के लिए एक ‘सहन करने वाली’ चीज नही रहेगी। असमानना एक ऐसे मूल्य के बतौर रहती है जिसे सरकार मौत की सजा को प्रयोग करने की हठधर्मिता के जरिए लागू करती है और इसे पेचिदा तरीके से संरक्षित करती है।
आधे से अधिक एशियाई देशों में मौत की सजा खत्म कर दी गई है या फिर पिछले दस सालों से किसी को फांसी नहीं दी गई है। युरोप के अधिकतर देशों में इस बर्बर और अमानवीय कार्रवाई का अन्त करने के लिए कानून पारित किए गए हैं। इस संदर्भ में भारत, जोकि विश्व की सबसे बड़े लोकतन्त्रा होने का दम्भ भरता है, में राज्य की स्वीकृति का सुनिश्चित करने के लिए ऐसे बर्बर और अमानवीय तरीके जारी रखने का कोई कारण नहीं है। यह गोष्ठी राज्य द्वारा सजा के रूप में मौत की सजा के पूर्ण खात्मे की मांग करती है।


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