सरोज गिरी
किशन जी उत्पीड़न के खिलाफ लड़ने वाले योद्धा, एक निड़र और साहसी व्यक्ति मात्रा नहीं हैं। वह हमारे देश की प्रतिरोध आन्दोलनों के इतिहास में एक खास शख्सियत की हैसियत रखते हैं। वह शायद इस बारे में जागरूक भी नहीं होंगें। उनके नेतृत्व में प्रतिरोध के कई तरीके एक साथ दिखाई देते हैं - जनता के सशस्त्रा लड़ाकू बलों का खुली रैलियों, प्रदर्शनों और धरनों से समन्वय आदि। डेमोक्रेटिक जनउभार के प्रति गम्भीर कोई भी व्यक्ति ‘रणनीति’, ‘बल प्रयोग’ या ‘हथियारबंद प्रतिरोध’ की अवहेलना नहीं कर सकता। जनसंघर्ष की जीवन-रेखा हथियारबंद प्रतिरोध के जोन तक विस्तारित होती है - लेनिन की यह पुरानी उक्ति किशन जी की जिन्दगी और कार्रवाई में हमेशा दोहराई जाती रही, उभरती रही और नए तरीके से दिखलाई दी।
इस मायने में किशन जी ने जनान्दोलन और ‘सैन्य रणनीति’ दोनों को वाम के भीतर जिन्दा रखा। आज के वाम में अनुशासन और सेना को खारिज करने का रूझान है, मानों ये एक तरह की दक्षिणपंथी-फासीवादी सोच है। दार्शनिक साल्वेज जिजेक कहते हैं कि ‘आज्ञा मानकर सुखवादी होने’(हॅडोनिस्टिक परमिसिविटी) की शासकीय विचारधारा के खिलाफ वाम को ‘अनुशासन और त्याग को (दोबारा) अपनाना चाहिए: इन मूल्यों में कोई अन्तर्निहित फासीवाद नहीं होता।’
यही किशन जी का योगदान है कि उनका शिकार कर मार डालने वाले शासक वर्ग को उन्होनें भयभीत और चौकना कर दिया था। यह बेहतरीन योगदान ऐसे समय में किया गया जब वाम ‘रणनीति की कमी’ से जुझ रहा है, जब तहरीर चौक या वाल स्टरीट घेरो जैसे जनप्रदर्शन खुद ब खुद थकने या राजकीय दमन को झेलने में अक्षम होने के कारण खत्म होते प्रतीत हो रहे हैं। कुछ लोग कह सकते हैं कि जगलमहल में लड़ाकू जनप्रदर्शन जून, 2009 में माओवादियों के ‘काबिज होने’ के बाद खत्म हो गया था। यह ‘कब्जा’ जनान्दोलन की रीढ़ के अलावा कुछ नहीं था जो आज रणनीति वाली संगठित ताकत के रूप में खुद को अभिव्यक्त करने में सक्षम है।
यह राज्य की हथियारबंद ताकत का सामना करने में सक्षम होने के अलावा वर्ग संघर्ष के बारे में सही समझ बनाने के लिए पहला कदम है जिसे मार्क्स ने कम्यूनिस्ट मैनिफैस्टो में सारे आन्दोलन के लिए ‘अभियान की दिशा’(लाईन ऑफ मार्च) कहा है। यहां केवल माओवादियों को बड़ी सफलता ही नहीं मिली है बल्कि वे कुछ आधारभूत अधिकार भी पा सके हैं। इसलिए जनउभार और रैली के आरम्भिक उभार के बाद खत्म होने की आम कहानी यहां खुद को दोहरा नहीं पाई। जनांदोलन कई अन्य रूपों में चलता रहा। वास्तव में एक नए महिला जनसंगठन नारी इज्जत बचाओ कमेटी ने उतनी ही बड़ी रैलिया आयोजित की जितनी बड़ी रैलियों को ममता और अग्निवेश ने सम्बोधित किया था। सरकार द्वारा प्रतिबंधित या ‘अनुमति देने से इंकार’ करने से पहले यह सिलसिला जारी रहा।
यह किशन जी का असल योगदान था, न कि एक ऐसा बेस्वाद ‘त्याग’ या ‘शहादत’, जिसकी माओवादी प्रायः महिमामंडन करते रहते हैं। माओवादियों को ऐसी गहरे पैठी आदतों से बचना चाहिए, जिसमें वे अपने नेतृत्व की किसी विशिष्टता या असल योगदान को नहीं देखते और उन्हें एक बंजर धारावाहिकता में ‘एक और शहीद के रूप में चित्रित करते हैं जिसने क्रान्ति के लिए एक बहादूर की तरह जिंदगी कुर्बान कर दी’। अन्यथा आन्दोलन एक घेरे में गोल गोल घुमता रहेगा और ठोस व्यवहार से गतिशील बनने की बजाय गतिरूद्ध हो जाएगा।
शायद हम इस बात को माओवादी आन्दोलन के ‘जंगलमहल मॉडल या रास्ते’ के रूप में देखें या ‘छत्तीसगढ़ मॉडल या रास्ते’ से इसकी तुलना करें। ‘मॉडल’ की शब्दावली में बात करने में कई समस्याएं हैं। फिर भी विशेष इलाके में आन्दोलन की विशिष्टताओं पर भी पकड़ बनानी चाहिए ताकि हम सभी अनुभवों और रूपों को एक ही तरह का न माने। अन्यथा हम कुछ भी नया नहीं सिख पाएंगें, संश्लेषन नहीं कर पाएंगें, व्यवहार से नहीं सिख पाएंगें, बल्कि एक तयशुदा सूत्रा को दोहराते रहेंगें। किशन जी इस दायरे में नहीं आते थे। हम नहीं जानते कि उन्होनें भी जंगलमहल मॉडल (हुनान रिपोर्ट की तरह) में आन्दोलन की विशिष्टताओं का सचेतन सूत्राीकरण किया था, परन्तु उनके ठोस व्यवहार ने शानदार तरीके से आगे का मार्ग रोशन किया।
सितम्बर माह में वरवरा राव, मैं और कोलकाता से एक कामरेड ने जंगलमहल में एक ‘तथ्य अन्वेशन’ (एक बेहतर शब्द की चाह में) दौरा किया। हम किशन जी से नहीं मिल सके, परन्तु हमनें सुरक्षा बलों और निजी सेनाओं (भैरव वाहिनी) द्वारा किए गए अत्याचारों को देखा। मैनें झारग्राम कस्बे से दूर गहन जंगल में एक नौजवान आदिवासी कामरेड से बातचीत की: जोकि एक हथियारबंद दस्ते का सदस्य था। मैनें उससे पूछा कि क्या वो किशनजी से मिला था। उसने जवाब में हां कहा। इसके बाद उसने कहा कि वह मिटिंग के दौरान किशनजी द्वारा कही जानी वाली सारी बातों को नहीं समझ पाता। तब मैंने पूछा कि क्या उसने किशन जी से मार्क्सवाद के बारे में सुना है। (मैं बहुत जिज्ञासु था) ‘हां, किशनजी मार्क्सवाद के बारे में बात करते हैं, परन्तु इसे समझना बहुत मुश्किल लगता है।’ तब मैनें उससे पूछा कि क्या तुम मार्क्सवाद के बारे में क्या सोचते हो कि यह क्या है? मैनें सोचा कि वह खुद को हाशिए पर महसूस कर रहा है। परन्तु कुछ क्षण बाद जवाब मिला: यह कोई अच्छी चीज है परन्तु कुछ लोग इसे बर्बाद और विकृत कर देते हैं। ‘हम गुरिल्ला ऐसे लोगों से लड़ रहे हैं।’
किशन जी की तरह के लोग मार्क्सवाद को जनता में ले गए हैं। और ऐसा करने का मतलब है ‘संगठित करना’, योजना बनाना, रणनीति बनाना, संघर्ष को आगे ले जाना और अपने आपको आग में झोंक देना। किशनजी की निडरता उत्तरआधुनिक जैपटिस्मों तरीके से ‘सत्ता को सत्य बताना’ नहीं है, बल्कि इसके झूठों, दिखावों और हिंसा, हमारे लोग जिसमें अक्सर फंस जाते हैं, का पर्दाफाश कर इसके जनवादी लिबास में से सत्ता निर्माण करना था। मैं हमेशा उलझ जाता था कि किशन जी कैमरे के सामने कभी भी अपनी बंदूक नहीं उतारते थे- कोई भी इसे साफतौर पर देख सकता है और इसलिए वह डेमोक्रेटिक, शान्तिप्रिय आदि दिखने के लिए डेमोक्रेटिक कार्ड खेलने की परवाह नहीं करते थे। उन्होनें बंदूक के बारे में कभी चर्चा नहीं की, हिंसा का कभी महिमामंडन नहीं किया, जिसकी उम्मीद कुछ लोग दयनीय तरीके से करते होंगें। इसकी अपेक्षा उन्होनें हमेशा एक सही डेमोक्रेसी और जनता की सत्ता लाने के लिए सतर्क धैर्यवान लड़ाई की बात की।
एकदम साफ दिखने वाली कंधों पर लटकती बंदूक के साथ ही वो अपने कैम्प में उत्सुक पत्राकारों से घिरे रहते थे। इसका एक ही अर्थ हो सकता है कि वे उदार बुर्जआ नेताओं, जोकि विशाल नियमित सेना की अध्यक्षता करते हैं, की तरह छिपकर अहिंसक और जनवादी होने का ढोंग नहीं करते थे।
इसमें हम मार्क्सवाद की एक कुंजीगत अंतर्दृष्टि को देखते हैं - कि सत्ता का सवाल हमेशा सामने रहना चाहिए और कभी भी ऐसा खेल नहीं खेलना चाहिए कि समाज में कोई सत्ता नहीं है, कोई वर्ग सत्ता नहीं है, कोई हथियारबंद सत्ता नहीं है, सर्वस्व डेमोक्रेसी और खुली होड़ है। इसलिए लेनिन कहते हैं कि समाजवाद कोई बेहतर और वास्तविक रैडिकल जनवाद नहीं है (इसे सभी सम्मान देते होगें और स्वीकारते होंगें), अपितु यह सर्वहारा की तानाशाही है- यह कहना कि वास्तविक वर्गीय तानाशाही के बावजूद वहां सबके लिए डेमोक्रेसी होगी, सच्चाई से दूर भागना होगा। यदि आप बंदूक की वजह से किशन जी को तहे दिल से समर्थन करने में असहज महसूस करते हैं तो आप मार्क्सवाद की कुंजीगत अंतर्दृष्टि से भी असहज हो सकते हैं।- इस दोहरे बंधन में उन्होनें हमें फंसा दिया है।
किशन जी ‘हवा में उड़ने वाले’ व्यक्ति नहीं थे बल्कि सम्भवतः दूसरे बाब दिलेन गीत थे। वह उस समय के व्यक्ति हैं जब जहाज अन्दर आ रहे हैं, एक ऐसे व्यक्ति जिसने अवश्य ही कल्पना की होगी की कि वह इस महान समय में प्रवेशक के रूप में लड़ रहे हैं, शायद उस समय भी जब ‘जवाब हवा में नहीं तैर रहे हों।’:
समुंद्र के बंधन
रात में तोड़े जाएंगे
और समुंद्र की तलहटी में गाड़ दिए जाएंगें
.....
ओह, दूश्मन उठेगा
अभी भी आखों में नींद होगी
और वे अपने बिस्तर से झटके से उठेंगें और सोचेंगें कि वे सपने में हैं
परन्तु वे खुद को चकौटी काटेंगें और चिल्लाएगें
और जान जाएगें कि यह सब वास्तविक है
उस समय जब जहाज अन्दर आ रहे हैं
......
तब वो अपने हाथ उठाएंगें
कहेंगें कि हम तुम्हारी सारी मांगे मान लेगें
परन्तु हम जहाज के अग्रभाग से चिल्लाएगें कि तुम्हारे दिन गिनती के रह गए हैं.......
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