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गुरुवार, 29 दिसंबर 2011

राज्य द्वारा सीआपीपी और अन्य जनसंगठनों को निशाना बनाकर चलाए जा रहे बदनामी अभियान की पुरजोर निंदा करो


राज्य की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ आवाज उठाने वालों में भय फैलाने और उन्हें अलगाव में डालने के लिए चलाए जा रहे अभियान का पर्दाफाश करो।

(जीतन मरांडी व अन्य साथियों की फांसी की सजा रद्ध होने के संदर्भ में दिल्ली में फांसी की सजा के खिलाफ हुई गोष्ठी में परित प्रस्ताव)

भारत के राज्य गृह मंत्राी जितेन्द्र सिंह के इस वक्तव्य की सीआरपीपी घोर निंदा करता है कि कमेटी सीपीआई माओवादी का खुला संगठन है (देखें 8 दिसम्बर 2011 का टाईम्स ऑफ इंडिया)। यह उन मंचों, संगठनों, और राजनैतिक मतों को फंसाने का एक सोचा समझा प्रयास है जो सरकार की नीतियों की खिलाफत करते हैं। साम्राज्यवादी हितों के सामने पूर्ण नतमस्तक होकर उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण को आक्रमक तरीकों से लागू करने वाले राज्य के गैर-कानूनी अत्याचारों के खिलाफ बनी सीआरपीपी ने शुरूआत से ही यह मांग की है कि जेलों में भेजे गए सभी राजनैतिक बंदियों को बगैर शर्त रिहा किया जाए। इन राजनैतिक बंदियों में से अधिकतर बगैर सुनवाई के सालों से जेल में पड़े हैं और उन पर राजनीतिक मंशा से अनेकों केस चस्पा कर दिए गए हैं।
सीआरपीपी ने पहली बार इस मांग को उठाया कि भारत सरकार को राजनीतिक बंदियों के दर्जे को मानना चाहिए, क्योंकि उसने ‘संयुक्त राष्ट्र इंटरनेशनल कोनिवेंट आफ सिविल और राजनीतिक राइट’ पर हस्ताक्षर किए हैं, जिसमें राजनैतिक बंदियों के अधिकारों के बारें में साफतौर पर लिखा हुआ है। अपनी कार्रवाईयों के जरिए सीआरपीपी ने उपमहाद्विप में सबसे उत्पीडित और शोषित जनता के जनवादी अधिकारों को खत्म करने पर अपनी चिंता और गुस्से को जाहिर किया है और इस पर जनमत भी निर्मित कर रहा है। हरेक के लिए जनवादी स्पेस बढ़ाने हेतू आवाज उठाना, ताकि वे आत्मसम्मान और अच्छे से जी सके, सत्ता के हितों के खिलाफ जाता है। इसलिए सीआरपीपी को एक ‘खतरे’ के रूप में दिखाना उपमहाद्वीप में लोकतन्त्रा के असली चेहरे को ही सामने लाता है। यह ऐसे समय में किया जा रहा है जब विकास के नाम पर राज्य की सबसे बड़ी सैन्य तैनाती- अर्धसैन्य बलों, सेना, पुलिस’ आदि की तैनाती- को उपमहद्विप में आदिवासियों और दलितों को चुप कराने, बलात्कार करवाने और मारने के लिए प्रयोग किया जा रहा है, जिसे भारत के गृहमंत्राी ने आपरेशन ग्रीन हंट की संज्ञा दी है। इन परिस्थितियों में छत्तीसगढ़, झारखंड, उडिसा, बिहार, जंगलमहल आदि क्षेत्रों में विस्थापन, वंचना, विनाश और मौत के चार शब्दों के खिलाफ लड़ने वाले राजनैतिक बंदियों की तेजी से बढ़ती संख्या के कारण, और मुस्लिम राजनैतिक बंदियों व राष्ट्रीयताओं के आन्दोलनों के राजनैतिक बंदियों के बारे में आवाज उठाने की विभिन्न जनांदोलनों की मांग पर सीआरपीपी का निर्माण किया गया। एक निराश राज्य के लिए यह महत्वपूर्ण हो गया कि वो असहमती के सभी स्वरों को खामोश करने की नीति के विस्तार के बतौर, और लोगों में खौफ पैदा करने के लिए सीआरपीपी जैसे मंचों को बदनाम करे और उसे आपराधिक घोषित करे। यह सीआरपीपी की ताकत को भी दिखाता है कि उसमें उपमहाद्वीप में उन सभी सम्भव आवाजों को एक साथ लाया गया है जो भारतीय राज्य की जनविरोधी और गैरकानूनी कार्रवाईयों के खिलाफ बोलते हैं।
सीआरपीपी को इस बात भी ऐतराज है कि मिडिया ने इस रिपोर्ट को जिस तरह से पेश किया, वह रिपोर्ट करने से ज्यादा संकेत करना था। इस खबर को उन्होनें सनसनीखेज खबरों की चक्की में शामिल कर दिया।
हम उपमहाद्वीप के सभी जनवादी और आजादी पसन्द लोगों को आह्वान करते हैं कि वो सामने आएं और राज्य के इन कोशिशों की एक स्वर में निंदा करें जो राज्य की इच्छा से भिन्न राजनैतिक मतों को बदनाम करने और अपराधी ठहराना चाहती हैं। राज्य मंत्राी का पूरा वक्तव्य कि सीपीआई (एमएल)न्यू डेमोक्रेसी, आरडीएफ, पीडीएफआई, डीएसयू, सीपीआई(एमएल)नक्सलबारी और अन्य जनसंगठनों पर सरकार अपने आंखों और कानों के जरिए ‘तीखी नजर’ रख रही है, आम जनता में भय पैदा करने के लिए दिया गया है। राज्य की ऐसी फासीवादी मंशा का पुरजोर तरीके से विरोध करने की जरूरत है साथ ही जनता की जिंदगियों के लिए खतरा बन चुकी राज्य की जनविरोधी नीतियों का वापिस लेने की आवश्यकता पर बल देने की जरूरत है।

जनसंस्कृतिकर्मी जीतन मरांडी और अन्य लोगों के बरी करवाने के लिए चलाया गया संयुक्त जनसंघर्ष जिन्दाबाद


मांग करें कि जीतन मरांडी के खिलाफ झूठे सबूत बनाने वाले पुलिस और राजनीतिज्ञ पर केस दर्ज किया जाए।

(जीतन मरांडी व अन्य साथियों की फांसी की सजा रद्ध होने के संदर्भ में दिल्ली में फांसी की सजा के खिलाफ हुई गोष्ठी में परित प्रस्ताव)
जनवादी और प्रगतिशील लोगों द्वारा तीन माह आठ महिने और तीन दिन तक निरन्तर अभियान चलाने के बाद ही जीतन मरांडी और तीन अन्य लोग बरी हुए। जीतन मरांडी पर केस लगाना और मौत की सजा देना अपराधी बनाने का ऐसा तरीका है, जिसे कानून के तथाकथित रखवाले इस पूरे उपमहाद्विप में अघोषित आपातकाल लागू करने के लिए प्रयोग कर रहे हैं, जहां गरीबों में से सबसे गरीब अपनी सम्पदा, जिंदगी और आजीविका की लूट के खिलाफ लड़ रहे हैं।
ऐसे समय में हम मांग करते हैं कि उन लोगों पर केस दर्ज किया जाना चाहिए, जो ऐसे दुर्भावनापूर्ण कृत्यों के लिए उत्तरदायी है। जीतन को बरी करवाने के लिए इस महाद्वीप में सशक्त तरीके से गोलबंद हुए लोगों का गुस्सा और विरोध दिखाता है कि जीतन एक ऐसे सांस्कृतिक कर्मी हैं जो जनता के दुखों और सपनों को अपने गानों के माध्यम से सामने ला सकता था। और इससे जागृत जनता की सामूहिक इच्छाशक्ति सत्ता की उस असहनशील कार्रवाई को चुनौती दे सकती थी जिसके तहत उपमहाद्विप के कई हिस्सों में झूठे केस बनाए जा रहे हैं, सिलसिलेवार गिरफतारी की जा रही हैं, बगैर किसी उचित कारण के लम्बे समय तक कोर्ट में पेश नहीं किया जाता है, यातनाएं देने, गायब करने, झूठी मुठभेड़ों में मारने, बलात्कार करने जैसे घनघोर कृत्य किए जा रहे हैं।
दुर्भावनापूर्ण कार्रवाई के अन्य मामलो की तरह इसमें भी हमें असहमतियों के सभी रूपों को अपराधी ठहराने का राज्य का बढ़ता रूझान दिखाई देता है, जबकि आरोपियों के अधिकारों और सुरक्षा करने के लिए बनाई गई प्रक्रियाओं और नियमों को विशेषतः राजनैतिक बंदियों के मामले में तरोड़ने मरोडने के पुलिस-राजनैतिज्ञों-न्यायिक प्रणाली के अपराधिक गठजोड़ की तो बात न ही की जाए तो अच्छा है। न्यायालय के फैसले से भी अधिक साफ तरीके से तो जीतन के वकील ने कहा है- ‘देवरी पुलिस स्टेशन ने नियमघाट पुलिस स्टेशने के इंचार्ज को 21 फरवरी 2008 को लिखे पत्रा न. 205/08 में कहा था कि नियमघाट के रहने वाले आरोपी जीतन मरांडी उर्फ श्यामलाल किसकु के नाम में तलाशी और गिरफतारी वारंट जारी किए जाएं। इससे साफ है कि पुलिस जिस जीतन मरांडी को खोज रही थी, उसकी बजाय उन्होंने किसी और जीतन मरांडी को गिरफतार कर लिया।
हम मांग करते हें कि पूरे झारखंड में जनकलाकार के बतौर विख्यात जीतन मरांडी को जानबुझकर गिरफतार करने वाले मुरारी लाल मीणा सहित अन्य पुलिसकर्मीयों पर केस दर्ज किया जाए, जिन्होंने आपराधिक पृष्ठभूमि वाले अपराधियों को कानून के न्यायालय में जीतन मरांडी की पहचान करने वाले झूठे गवाह बना दिये। कानून की अदालत में शपथ लेकर झूठ बोलना अवहेलना करने के समान है और ऐसे पुलिस अधिकारियों के खिलाफ अपराध करने की कार्रवाई शुरू की जाए, अन्यथा राज्य की यह दुर्भावना पूर्ण कार्रवाई बेलगाम जारी रहेगी।

मौत की सजा के पूर्ण खात्मे के लिए


(जीतन मरांडी व अन्य साथियों की फांसी की सजा रद्ध होने के संदर्भ में दिल्ली में फांसी की सजा के खिलाफ हुई गोष्ठी में परित प्रस्ताव)

यह गोष्ठी मानती है कि मौत की सजा सामाजिक असमानता को दिखाती है। यह इस बात को भी दिखाती है कि यह राज्य की सोचा समझी चाल है। भारतीय उपमहाद्वीप में वर्ग से गुथी हुई जातीय व्यवस्था से बने सामंती ढांचे की ताकत में, और मुस्लिम अल्पसंख्यकों व राष्ट्रीयताओं के प्रति साम्प्रदायिक पूर्वाग्रहों में इस पक्षपात की झलक साफ दिखाई देती है। साम्राज्यवादी बुर्जआ और उसके स्थानीय एजेंटों के मुनाफे को अधिकतम करने के लिए लाई गई उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण की नीतियों के बढ़ते हमले के साथ राज्य ने खुद को दमनकारी कानूनों से भी लैस कर लिया है, ताकि जनता के बढ़ते गुस्से के ज्वार को रोका जा सके। दमनकारी कानूनों का सहारा लेकर राज्य एक ‘राष्ट्रीय सुरक्षा राज्य’ बनाने की आवश्यकता को वैचारिक स्वीकृति देने की कोशिश कर रहा है। यह कोशिश अमेरिका के नेतृत्व में जारी तथाकथित आतंक के विरूद्ध युद्ध को प्रोत्साहित करेगा। इसके कारण मौत की सजा की पूर्ण समाप्ति की लड़ाई तीखी और जटिल बन गई है, क्योंकि मौत की सजा जनविरोधी कानूनों से लैस राष्ट्रीय सुरक्षा राज्य के साथ घुलमिल गई है। ऐसी स्थिति ने फांसी की सजा को लोगों के बढ़ते गुस्से पर रोक लगाने के लिए प्रयोग करना आसान बना दिया है। हमारे देश में राज्य द्वारा दी जानी वाली मौत की सजा देने के मामलों में वृद्धि के कारण, और मौत की सजा में असमानता को मुख्यतः चिन्हित करके यह गोष्ठी उस मौत की सजा की वैधता पर प्रश्नचिन्ह लगाती है क्योंकि मौत की सजा को राज्य न्याय की खंडित सोच को वैध ठहराने के लिए प्रयोग कर रहा है।
जब तक भारतीय उपमहाद्विप में लोग विभिन्न सरकारों की गलत नीतियों से उपजे असमानता के जीवंत यर्थाथ को भोगेंगें, तब तक इस यथार्थ को इसके कानूनी तन्त्रा के परिणाम के रूप में देखा जा सकता है जिसे लोगों के नाम पर लागू किया जाता है। यदि भारतीय राज्य फांसी की सजा को प्रतिकार या उपयोगी मूल्य के रूप में मानना जारी रखेगा, तो असमानता सरकार और नीति निर्धारकों, जोकि उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण के दौर में लालच और अनिष्ट संचय पर आधारित व्यवस्था का खुला समर्थन करते हैं, के लिए एक ‘सहन करने वाली’ चीज नही रहेगी। असमानना एक ऐसे मूल्य के बतौर रहती है जिसे सरकार मौत की सजा को प्रयोग करने की हठधर्मिता के जरिए लागू करती है और इसे पेचिदा तरीके से संरक्षित करती है।
आधे से अधिक एशियाई देशों में मौत की सजा खत्म कर दी गई है या फिर पिछले दस सालों से किसी को फांसी नहीं दी गई है। युरोप के अधिकतर देशों में इस बर्बर और अमानवीय कार्रवाई का अन्त करने के लिए कानून पारित किए गए हैं। इस संदर्भ में भारत, जोकि विश्व की सबसे बड़े लोकतन्त्रा होने का दम्भ भरता है, में राज्य की स्वीकृति का सुनिश्चित करने के लिए ऐसे बर्बर और अमानवीय तरीके जारी रखने का कोई कारण नहीं है। यह गोष्ठी राज्य द्वारा सजा के रूप में मौत की सजा के पूर्ण खात्मे की मांग करती है।


गुरुवार, 15 दिसंबर 2011

जनांदोलन को कुचलने की साजिश बंद करो!


विस्थापन विरोधी जनविकास आन्दोलन
कार्यालय: सरईटांड, पोस्ट: मोहराबादी, रांची

जनांदोलन को कुचलने की साजिश बंद करो!
पोस्को परियोजना रद्ध करो!!
गत दिवस उडिसा के पारादीप में पोस्को प्रतिरोध संग्राम समिति के बनैर तले प्रदर्शन कर रहे लोगों पर पोस्को कम्पनी के निजी मिलिशिया ने हमला कर दिया। लगभग 2000 लोग पोस्को कम्पनी के लिए तटिय इलाके में बनाई जा रही सड़क का विरोध कर रहे थे। इस हमले में कम्पनी के गुंडों ने बम्ब भी फैंका। इस लड़ाई में 7-8 प्रदर्शन कारी घायल हो गए।
भारत की सबसे बड़े साम्राज्यवादी पूंजी निवेश को जनता ने अपने प्रतिरोध के जरिए पिछले छः सालों से रोका हुआ है। जनता ने अपनी जान देकर भी इस निवेश को रोककर अपनी जमीन बचाने की लड़ाई लड़ रही है। परन्तु केन्द्र सरकार की शह पर उडिसा का मुख्यमंत्री जनआकांक्षा को नकार कर हर कीमत पर इस परियोजना के निर्माण की कोशिश कर रहा है। प्रदर्शनकारियों पर इस ताजा हमले से पूर्व उडिसा की सरकार ने पोस्को प्रतिरोध संग्राम समिति के नेता अभय साहू को हाल ही में गिरफ्तार कर फर्जी केस दर्ज कर दिए। इस ताजा हमले की आड़ में सरकार समिति के अन्य नेताओं को भी जेल की सलाखों के पीछे भेजने की तैयारी कर रही है।
20 जून 2008 को भी कम्पनी के गुंडों ने गोबिन्दपुर गांव में बम्बों से हमला किया था, जिसमें पोस्को प्रतिरोध संग्राम समिति का साथी तपन मंडल शहीद हो गया था। इस भिडंत के बहाने सरकार ने कई नेताओं को गिरफ्तार कर लिया था तथा उन्हें कई महीनों तक जेल में कैद रखा था। इस हमलें में भी एक गुंडे के खुद के बम्ब में ही मारे जाने का बहाना बनाकर सरकार आन्दोलन को कुचलने की साजिश रच रही है।
सरकार जनआकांक्षा का आदर कर परियोजना को रद्ध करने की बजाय बार बार गुंडो, पुलिस और आम जनता के बीच विवाद पैदा करवा रही है और लोगों पर जुल्मों-सितम ड़हा रही है। सरकार को जनांदोलन को कुचलने की साजिश करने की बजाय जनता की आवाज की कद्र करते हुए पोस्को परियोजना का काम बंद करना चाहिए और पोस्को कम्पनी के साथ किए गए एमओयू को तुरंत रद्ध करना चाहिए।

के एन पंडित अजय
संयोजक सहसंयोजक

लड़ाई जारी है....

3 साल 8 माह 3 दिन पहले जीतन मरांडी पर दर्ज किए गए चिलखारी केस में झारखंड उच्च न्यायालय उसे निर्दोष करार देते हुए फांसी की सजा रद्ध कर दी। इस केस के जरिए प्रशासन और राजनीतिज्ञों के गठजोड़ ने 3 साल 8 माह तक जीतन मरांडी के गले के स्वर को शोषितों-उत्पीड़ितों के पक्ष में उठने से रोके रखा। जीतन को फांसी के तख्ते पर चढ़ाकर उसकी आवाज को हमेशा के लिए खामोश करने की जुल्मी सरकार की कोशिश तो नाकाम हो गई। जनता के संघर्ष के बदौलत आज जीतन मरांडी को फांसी की दहलीज से वापिस खींच लिया गया। परन्तु सब जानते हैं कि जीतन मरांडी की आवाज को खामोश करने के लिए सरकार ने उसपर अनेकों फर्जी केस लादे थे। झारखंड सरकार के जुल्मों-सितम का शिकार बना जीतन मरांडी अभी भी जेल में रहने के लिए मजबूर है। जीतन मरांडी को फांसी के पंजे से मुक्त कराने पर संघर्ष खत्म नहीं हुआ है। जीतन मरांडी पर देशद्रोह जैसे केस अभी तक भी जारी हैं और जीतन मरांडी जैसे ही हजारों कार्यकर्ताओं को भी जेलों की सलाखों में कैद कर समाज बदलाव के सपनों को सच्चाई में बदलने से रोकने की कोशिश की जा रही है। राजद्रोह, यूएपीए, पोटा, सीएलए, टाड़ा जैसे कानूनों के जरिए उनकी आकांक्षाओं को कुचला जा रहा है।

जीतन मरांडी के उपर दर्ज किए गए सभी मुकदमें वापिस लिए जाएं तथा उन्हें तत्काल बरी किया जाए।
जीतन मरांडी को फर्जी केसों में फंसाने वाले पुलिस अधिकारियों और राजनीतिज्ञों को सजा दी जाए।
तमाम राजनैतिक बंदियों को तुरन्त बगैर शर्त रिहा किया जाए।
भारत के कानूनों से फांसी की सजा का प्रावधान खत्म किया जाए।
यूएपीए, राजद्रोह जैसे दमनकारी कानून और कानूनी प्रावधान तुरन्त निरस्त किए जाएं।

मंगलवार, 6 दिसंबर 2011

किशन जी: केवल एक और शहीद नहीं


सरोज गिरी

किशन जी उत्पीड़न के खिलाफ लड़ने वाले योद्धा, एक निड़र और साहसी व्यक्ति मात्रा नहीं हैं। वह हमारे देश की प्रतिरोध आन्दोलनों के इतिहास में एक खास शख्सियत की हैसियत रखते हैं। वह शायद इस बारे में जागरूक भी नहीं होंगें। उनके नेतृत्व में प्रतिरोध के कई तरीके एक साथ दिखाई देते हैं - जनता के सशस्त्रा लड़ाकू बलों का खुली रैलियों, प्रदर्शनों और धरनों से समन्वय आदि। डेमोक्रेटिक जनउभार के प्रति गम्भीर कोई भी व्यक्ति ‘रणनीति’, ‘बल प्रयोग’ या ‘हथियारबंद प्रतिरोध’ की अवहेलना नहीं कर सकता। जनसंघर्ष की जीवन-रेखा हथियारबंद प्रतिरोध के जोन तक विस्तारित होती है - लेनिन की यह पुरानी उक्ति किशन जी की जिन्दगी और कार्रवाई में हमेशा दोहराई जाती रही, उभरती रही और नए तरीके से दिखलाई दी।

इस मायने में किशन जी ने जनान्दोलन और ‘सैन्य रणनीति’ दोनों को वाम के भीतर जिन्दा रखा। आज के वाम में अनुशासन और सेना को खारिज करने का रूझान है, मानों ये एक तरह की दक्षिणपंथी-फासीवादी सोच है। दार्शनिक साल्वेज जिजेक कहते हैं कि ‘आज्ञा मानकर सुखवादी होने’(हॅडोनिस्टिक परमिसिविटी) की शासकीय विचारधारा के खिलाफ वाम को ‘अनुशासन और त्याग को (दोबारा) अपनाना चाहिए: इन मूल्यों में कोई अन्तर्निहित फासीवाद नहीं होता।’

यही किशन जी का योगदान है कि उनका शिकार कर मार डालने वाले शासक वर्ग को उन्होनें भयभीत और चौकना कर दिया था। यह बेहतरीन योगदान ऐसे समय में किया गया जब वाम ‘रणनीति की कमी’ से जुझ रहा है, जब तहरीर चौक या वाल स्टरीट घेरो जैसे जनप्रदर्शन खुद ब खुद थकने या राजकीय दमन को झेलने में अक्षम होने के कारण खत्म होते प्रतीत हो रहे हैं। कुछ लोग कह सकते हैं कि जगलमहल में लड़ाकू जनप्रदर्शन जून, 2009 में माओवादियों के ‘काबिज होने’ के बाद खत्म हो गया था। यह ‘कब्जा’ जनान्दोलन की रीढ़ के अलावा कुछ नहीं था जो आज रणनीति वाली संगठित ताकत के रूप में खुद को अभिव्यक्त करने में सक्षम है।

यह राज्य की हथियारबंद ताकत का सामना करने में सक्षम होने के अलावा वर्ग संघर्ष के बारे में सही समझ बनाने के लिए पहला कदम है जिसे मार्क्स ने कम्यूनिस्ट मैनिफैस्टो में सारे आन्दोलन के लिए ‘अभियान की दिशा’(लाईन ऑफ मार्च) कहा है। यहां केवल माओवादियों को बड़ी सफलता ही नहीं मिली है बल्कि वे कुछ आधारभूत अधिकार भी पा सके हैं। इसलिए जनउभार और रैली के आरम्भिक उभार के बाद खत्म होने की आम कहानी यहां खुद को दोहरा नहीं पाई। जनांदोलन कई अन्य रूपों में चलता रहा। वास्तव में एक नए महिला जनसंगठन नारी इज्जत बचाओ कमेटी ने उतनी ही बड़ी रैलिया आयोजित की जितनी बड़ी रैलियों को ममता और अग्निवेश ने सम्बोधित किया था। सरकार द्वारा प्रतिबंधित या ‘अनुमति देने से इंकार’ करने से पहले यह सिलसिला जारी रहा।

यह किशन जी का असल योगदान था, न कि एक ऐसा बेस्वाद ‘त्याग’ या ‘शहादत’, जिसकी माओवादी प्रायः महिमामंडन करते रहते हैं। माओवादियों को ऐसी गहरे पैठी आदतों से बचना चाहिए, जिसमें वे अपने नेतृत्व की किसी विशिष्टता या असल योगदान को नहीं देखते और उन्हें एक बंजर धारावाहिकता में ‘एक और शहीद के रूप में चित्रित करते हैं जिसने क्रान्ति के लिए एक बहादूर की तरह जिंदगी कुर्बान कर दी’। अन्यथा आन्दोलन एक घेरे में गोल गोल घुमता रहेगा और ठोस व्यवहार से गतिशील बनने की बजाय गतिरूद्ध हो जाएगा।

शायद हम इस बात को माओवादी आन्दोलन के ‘जंगलमहल मॉडल या रास्ते’ के रूप में देखें या ‘छत्तीसगढ़ मॉडल या रास्ते’ से इसकी तुलना करें। ‘मॉडल’ की शब्दावली में बात करने में कई समस्याएं हैं। फिर भी विशेष इलाके में आन्दोलन की विशिष्टताओं पर भी पकड़ बनानी चाहिए ताकि हम सभी अनुभवों और रूपों को एक ही तरह का न माने। अन्यथा हम कुछ भी नया नहीं सिख पाएंगें, संश्लेषन नहीं कर पाएंगें, व्यवहार से नहीं सिख पाएंगें, बल्कि एक तयशुदा सूत्रा को दोहराते रहेंगें। किशन जी इस दायरे में नहीं आते थे। हम नहीं जानते कि उन्होनें भी जंगलमहल मॉडल (हुनान रिपोर्ट की तरह) में आन्दोलन की विशिष्टताओं का सचेतन सूत्राीकरण किया था, परन्तु उनके ठोस व्यवहार ने शानदार तरीके से आगे का मार्ग रोशन किया।

सितम्बर माह में वरवरा राव, मैं और कोलकाता से एक कामरेड ने जंगलमहल में एक ‘तथ्य अन्वेशन’ (एक बेहतर शब्द की चाह में) दौरा किया। हम किशन जी से नहीं मिल सके, परन्तु हमनें सुरक्षा बलों और निजी सेनाओं (भैरव वाहिनी) द्वारा किए गए अत्याचारों को देखा। मैनें झारग्राम कस्बे से दूर गहन जंगल में एक नौजवान आदिवासी कामरेड से बातचीत की: जोकि एक हथियारबंद दस्ते का सदस्य था। मैनें उससे पूछा कि क्या वो किशनजी से मिला था। उसने जवाब में हां कहा। इसके बाद उसने कहा कि वह मिटिंग के दौरान किशनजी द्वारा कही जानी वाली सारी बातों को नहीं समझ पाता। तब मैंने पूछा कि क्या उसने किशन जी से मार्क्सवाद के बारे में सुना है। (मैं बहुत जिज्ञासु था) ‘हां, किशनजी मार्क्सवाद के बारे में बात करते हैं, परन्तु इसे समझना बहुत मुश्किल लगता है।’ तब मैनें उससे पूछा कि क्या तुम मार्क्सवाद के बारे में क्या सोचते हो कि यह क्या है? मैनें सोचा कि वह खुद को हाशिए पर महसूस कर रहा है। परन्तु कुछ क्षण बाद जवाब मिला: यह कोई अच्छी चीज है परन्तु कुछ लोग इसे बर्बाद और विकृत कर देते हैं। ‘हम गुरिल्ला ऐसे लोगों से लड़ रहे हैं।’

किशन जी की तरह के लोग मार्क्सवाद को जनता में ले गए हैं। और ऐसा करने का मतलब है ‘संगठित करना’, योजना बनाना, रणनीति बनाना, संघर्ष को आगे ले जाना और अपने आपको आग में झोंक देना। किशनजी की निडरता उत्तरआधुनिक जैपटिस्मों तरीके से ‘सत्ता को सत्य बताना’ नहीं है, बल्कि इसके झूठों, दिखावों और हिंसा, हमारे लोग जिसमें अक्सर फंस जाते हैं, का पर्दाफाश कर इसके जनवादी लिबास में से सत्ता निर्माण करना था। मैं हमेशा उलझ जाता था कि किशन जी कैमरे के सामने कभी भी अपनी बंदूक नहीं उतारते थे- कोई भी इसे साफतौर पर देख सकता है और इसलिए वह डेमोक्रेटिक, शान्तिप्रिय आदि दिखने के लिए डेमोक्रेटिक कार्ड खेलने की परवाह नहीं करते थे। उन्होनें बंदूक के बारे में कभी चर्चा नहीं की, हिंसा का कभी महिमामंडन नहीं किया, जिसकी उम्मीद कुछ लोग दयनीय तरीके से करते होंगें। इसकी अपेक्षा उन्होनें हमेशा एक सही डेमोक्रेसी और जनता की सत्ता लाने के लिए सतर्क धैर्यवान लड़ाई की बात की।

एकदम साफ दिखने वाली कंधों पर लटकती बंदूक के साथ ही वो अपने कैम्प में उत्सुक पत्राकारों से घिरे रहते थे। इसका एक ही अर्थ हो सकता है कि वे उदार बुर्जआ नेताओं, जोकि विशाल नियमित सेना की अध्यक्षता करते हैं, की तरह छिपकर अहिंसक और जनवादी होने का ढोंग नहीं करते थे।

इसमें हम मार्क्सवाद की एक कुंजीगत अंतर्दृष्टि को देखते हैं - कि सत्ता का सवाल हमेशा सामने रहना चाहिए और कभी भी ऐसा खेल नहीं खेलना चाहिए कि समाज में कोई सत्ता नहीं है, कोई वर्ग सत्ता नहीं है, कोई हथियारबंद सत्ता नहीं है, सर्वस्व डेमोक्रेसी और खुली होड़ है। इसलिए लेनिन कहते हैं कि समाजवाद कोई बेहतर और वास्तविक रैडिकल जनवाद नहीं है (इसे सभी सम्मान देते होगें और स्वीकारते होंगें), अपितु यह सर्वहारा की तानाशाही है- यह कहना कि वास्तविक वर्गीय तानाशाही के बावजूद वहां सबके लिए डेमोक्रेसी होगी, सच्चाई से दूर भागना होगा। यदि आप बंदूक की वजह से किशन जी को तहे दिल से समर्थन करने में असहज महसूस करते हैं तो आप मार्क्सवाद की कुंजीगत अंतर्दृष्टि से भी असहज हो सकते हैं।- इस दोहरे बंधन में उन्होनें हमें फंसा दिया है।

किशन जी ‘हवा में उड़ने वाले’ व्यक्ति नहीं थे बल्कि सम्भवतः दूसरे बाब दिलेन गीत थे। वह उस समय के व्यक्ति हैं जब जहाज अन्दर आ रहे हैं, एक ऐसे व्यक्ति जिसने अवश्य ही कल्पना की होगी की कि वह इस महान समय में प्रवेशक के रूप में लड़ रहे हैं, शायद उस समय भी जब ‘जवाब हवा में नहीं तैर रहे हों।’:

समुंद्र के बंधन
रात में तोड़े जाएंगे
और समुंद्र की तलहटी में गाड़ दिए जाएंगें
.....
ओह, दूश्मन उठेगा
अभी भी आखों में नींद होगी
और वे अपने बिस्तर से झटके से उठेंगें और सोचेंगें कि वे सपने में हैं
परन्तु वे खुद को चकौटी काटेंगें और चिल्लाएगें
और जान जाएगें कि यह सब वास्तविक है
उस समय जब जहाज अन्दर आ रहे हैं
......
तब वो अपने हाथ उठाएंगें
कहेंगें कि हम तुम्हारी सारी मांगे मान लेगें
परन्तु हम जहाज के अग्रभाग से चिल्लाएगें कि तुम्हारे दिन गिनती के रह गए हैं.......

सोमवार, 5 दिसंबर 2011

सीपीआई (माओवादी) के पोलित ब्यूरो सदस्य किशन जी की हत्या पर सीडीआरओ की तथ्य अन्वेषक रपट

कॉरडिनेशन ऑफ डेमोक्रेटिक राइट आर्गेनाईजेशन (सीडीआरओ) के घटक एसोशिएशन ऑफ प्रोटेक्शन ऑफ डेमोक्रेटिक राइट, आंध्र प्रदेश सिविल लिबर्टी कमेटी, बंदी मुक्ति कमेटी और पीपुल्स यूनियन ऑफ डेमोक्रेटिक राइट, दिल्ली की 22 सदस्ययी टीम ने 1 दिसम्बर, 2011 को मोलाजुला कोटेश्वर राव उर्फ किशन जी की तथाकथित मुठभेड़ में हुई हत्या की जांच पड़ताल की। टीम ने पश्चिम मेदिनीपुर के बुरीसोल की गावड़ी सोराकट्टा और गोसाईबंध गांव का दौरा किया। टीम ने दोनों गांव के लोगों से, जामबोनी पुलिस स्टेशन के सबइंस्पेक्टर और एएसआई से बात की और उस स्थल का मुआयना किया, जहां 24 नवम्बर को तथाकथित मुठभेड़ हुई थी।

स्थल: किशन जी का शव बुरीसोल गांव के सोराकट्टा गावड़ी से 300 मीटर दूरी पर मिला था। यह जगह गांव के फुटबाल मैदान से मात्र 50 मीटर की दूरी पर है और साल पेड़ों के हल्के से आवरण से आच्छादित है। शव मिलने की जगह से थोड़ी ही दूरी पर एक दीमकों वाली पहाड़ी है। इसके चारो और थोड़े से साल पेड़ हैं जो हल्का सा आवरण है। दीमकों की पहाड़ी को तथाकथित गोलीबारी से कोई नुक्सान नहीं पहुंचा। शव वाली जगह पर जहां सिर और धड़ था, वहां खुन जमा हुआ है। परन्तु टांगों की ओर खुन का कोई थक्का दिखाई नहीं दिया। जिन पेड़ों पर गोली के निशान दिखाए जा रहे हैं, वहां गोली से जले के निशान दिखाई नहीं दिए। मृतक के बुरी तरह विक्षिप्त शव की अगर शव मिलने वाली जगह के अबाधित स्थल से तुलना करें तो कई संदेह पैदा होते हैं। यदि भारी गोलाबारी हुई थी तो चारो और उसके निशान दिखाई देने चाहिए। सबसे ज्यादा दिलचस्प बात यह है कि शव के कुछ ईंच दूर स्थित दीमकों की पहाड़ी का कुछ भी नुक्सान नहीं हुआ, जैसाकि चारों ओर से होने वाली गोलाबारी के दौरान होना चाहिए। सुखे पत्तों पर गोली चलने से पैदा होने वाली चिंगारी का कोई चिन्ह नजर नहीं आया। टीम सदस्य पेड़ों व दीमकों की पहाड़ी पर गोलियों के निशान या अन्य चिन्ह देखने के लिए खुद चारों ओर घुमे, परन्तु केवल कुछ पेड़ों पर कटाव के निशान है परन्तु एक भी दीमक की पहाड़ी नष्ट नहीं हुई और भारी राईफल और मोर्टार के कारण जलने या आग लगने का कोई साफ चिन्ह नजर नहीं आया।

ग्रामीणों के वक्तव्य: सोराकट्टा गावड़ी में हमें बताया गया कि घटना के दो दिन पूर्व से ही सुरक्षा बलों की आवाजाही हुई थी और यह 24 नवम्बर को यह आवाजाही बहुत ज्यादा बढ़ गई और सुबह 10 से 11 बजे के दौरान पुलिस बलों ने ग्रामीणों को घर के अन्दर रहने और बाहर नहीं निकलने को कहा। ग्रामीणों के अनुसार इन दिनों में सुरक्षा बलों की भारी तैनाती के दौरान उन्होंने कोई उद्घोषणा तक नहीं सुनी, पुलिस द्वारा किशन जी को आत्मसमर्पण करने के लिए कहने की बात तो छोड़ ही दिजिए। 24 तारीख शाम के 4-5 बजे उन्होंने ऊंची-ऊंची आवाजें सुनी और उसके बाद 15 से 30 मिन्ट तक गोलीबारी की आवाजें सुनाई दी। यह बात महत्वपूर्ण है कि एक स्थानीय नीम हकीम डाक्टर बुधेव महतो और 20 साल के छात्र ताराचंद टुडु को उठाया गया था और उन दोनों पर केस नम्बर. 46/11, तिथी 25/11/2011 दर्ज किया गया और भारतीय दंड संहिता की धारा 307 व अन्य धाराओं के तहत उन पर आरोप लगाए गए।

बुरीसोल से 5 किलोमीटर दूर गोसाईबंध में स्थानीय कालेज में भूगोल स्नातक में तीसरे साल के छात्र धर्मन्द्र को किशन जी को आश्रय देने के आरोप में उठाया गया और पुलिस का दावा है कि उससे एक लैपटॉप बरामद हुआ है। परिजनों का कहना है कि वो बैग धर्मेन्द्र का है और उसमें कोई लैपटाप नहीं था, बल्कि उसमें 20,000 रूपये थे जिन्हें चुरा लिया गया है और साथ ही राशन कार्ड, सर्टिफिकेट और ओबीसी कार्ड भी जब्त कर लिए गए हैं।
पुलिस स्टेशन जामबोनी: टीम सदस्यों ने एसआई सब्यासाची बोधक से बात की और उनसे पूछा कि उन्हें मुठभेड़ की सुचना कब मिली, यह सूचना उन्हें किसने दी और साथ ही एफआईआर किसने दर्ज की क्योंकि यह उसका अधिकार क्षेत्र है। उसके अनुसार उन्हें यह सूचना रात को 10.30 बजे जंगलमहल के अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक आलोकनाथ राजौरी ने दी। और इसी अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक ने एफआईआर दर्ज की। यह गौर करने लायक है कि जांच की जिम्मेवारी उपपुलिस अधीक्षक सीबी-सीआईडी को दी गई है जबकि शिकायतकर्ता उच्चाधिकारी है। यह प्राकृतिक न्याय के उस सिद्धांत का उल्लंघन है जिसके तहत शिकायतकर्ता अधिकारी से उच्च अधिकारी ही अपराध की जांच पड़ताल करता है।

हम किशन जी के शव पर मिली चोटों की प्रकृति के बारे में याद करना चाहते हैं। इसमें गोलियां थी, नुकिले घाव थे और जली हुई चोटें थी। आश्चर्यजनक रूप से उनकी कमीज और पैंट पर उनके शरीर के हिस्सों के जख्मों के अनुरूप जख्म के कोई निशान नहीं थे।

1. सिर पर चोट
दांयी आंख गोलक में से लटक रही थी।
निचला जबड़ा गायब था इसकी बजाय वहां जलने के निशान थे।
सिर के पिछले हिस्से खोपड़ी के हिस्से गायब थे।
चेहरे पर चार जगह संगीन जैसे चाकू के निशान थे।
गले के एक तिहाई हिस्से पर चीरे के निशान थे।
2. दांयी बाजू की हड्डी टुटी हुई थी जबकि त्वचा पर कोई बाहरी चोट नहीं थी।
3. दांयी बाजू पर गोलियों से जख्म के तीन निशान थे।
4. बांयी तलवे की त्वचा गायब थी और जली हुई थी।
5. बांये हाथ के दूसरी उंगली का एक तिहाई हिस्सा टुटा हुआ था।
6. शव की छाती की ओर 30 से ज्यादा संगीन जैसे घाव के निशान थे।

हम कार्यकारी मजिस्ट्रेट द्वारा बनाई गई जांच रपट और पोस्टमार्टम की रपट लेने में नाकामयाब रहे। फिर भी टीम सदस्यों ने इसे पढ़ा और इसमें से नोटस बनाए। आश्चर्यजनक रूप से गोली घुसने और बाहर निकलने से होने वाले जख्मों के अलावा उपरोक्त किसी भी जख्म को रिकार्ड नहीं किया गया।

हमारी छानबीन: शव को हुए नुक्सान के स्तर को शव मिलने वाले स्थल के चारो तरफ की अबाधित जगह से मिलाने पर हमारे मन में सरकार की कहानी पर संदेह उपजता है। रिपोर्ट हुई सरकार की कहानी में विसंगतियां भी हैं। उदाहरण के तौर पर, मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का दावा है कि किशन जी और उनके साथियों की घेराबंदी तीन दिन चली और उन्हें आत्मसमर्पण के लिए कहा गया, परन्तु ग्रामीणों ने लाउडस्पीकर से होने वाली किसी भी तरह की सार्वजनिक उदघोषणा को सुनने से इन्कार किया है, किशन जी को आत्मसमर्पण की कहना तो दूर की बात है। सीआरपीएफ की महानिदेशक विजय कुमार ने 25 नवम्बर को कहा कि मुठभेड़ में किशन जी तीन अन्यों लोगों के साथ मारे गए, जबकि केवल एक ही शव बरामद हुआ! 15-20 मिन्ट चली मुठभेड़ में सैंकडों गोलियां चलने की बात शव मिलने वाले स्थल के अनुरूप नहीं है।

किशनजी की हत्या पश्चिम बंगा सरकार और सीपीआई(माओवादी) के बीच बातचीत शुरू करवाने की शुरूआती कोशिशों की पृष्ठभूमि में की गई है। उनकी मौत से इन प्रयासों का बहुत धक्का लगेगा। हमें आश्चर्य है कि यह उसी बात का दोहराव है, जो पिछले साल की 1-2 जूलाई को चेरूकूरी राजकुमार उर्फ आजाद की झूठी मुठभेड़ में हत्या के दौरान घटित हुई थी।

हम हथियारबंद विवाद के इलाकों में घटित अपराध के संदर्भ में प्रशासन की एक शाखा द्वारा दूसरी शाखा के कामकाज की जांच के बारे में बात करना चाहते हैं, इस केस में सीबी-सीआईडी द्वारा संयुक्त बलों की भूमिका की जांच को निष्पक्ष और तटस्थ नहीं माना जा सकता। हम मानते हैं कि एक स्वतंत्र जांच जैसे एसआईटी के जरिए ही सच को सामने लाया जा सकता है।

इसी से हमारा संदेह पुख्ता होगा कि यह हिरासत में मौत का मामला प्रतीत होता है। इसलिए हम मांग करते हैं कि:

1. सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट के सेवारत या सेवानिवृत न्यायाधीश की अगुआई में किशन जी की मौत की परिस्थितियों के बारे में स्वतंत्र न्यायिक जांच की जाए।
2. भारतीय दंड संहिता की धारा 302 के तहत आपराधिक केस दर्ज किया जाए।

देबाप्रसाद रायचौधरी (महासचिव, एपीडीआर)
सी एच चन्द्रशेखर (महासचिव, एपीसीएलसी)
भानू सरकार (सकेट्रीयेट सदस्य, बीएमएस)
गौतम नौलखा (सदस्य, पीयूडीआर)