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गुरुवार, 1 दिसंबर 2011

शहर में वापसी

यह हमारा शहर है
दो नदियों के लपेटे में बसा यह शहर
कई कई नामों से जाना जाता है
यह प्यार का इजहार है
या इतिहास की करवटें
इस पर तयशुदा कुछ कह नहीं सकता
कभी इस पचड़े में गया नहीं
मेरे लिए तो यह शहर इलाहाबाद है।
यहां विशाल पार्क हैं
और विशाल मोहल्ले भी,
एक सीधी सड़क है
जो दारागंज से चौक होते बमरौली निकल जाती है
बीच में चौक पर नीम के पेड़ हैं कोतवाली के सामने
जहां मारे गए थे प्रथम स्वाधीनता सेनानी,
इसके ठीक सामने एक घुमावदार गली है
जो जोड़ती है राजाबाग को रानीबाग से
होली के दिन इन्हीं गलियों से जुलुस निकलता है
इसके पीछे उतार पर मीरगंज है
इस नाम में आज भी जादू है
इस पर बदनामियों के धूल की खूब आमद है
इसके नीचे दफन है आज भी कुछ मेहराब, थाप और राग
चौक के इस आशियानें पर कभी लगता था मजमा
और होता था शहर इलाहाबाद
अब तो यह बस नाम है बदनामी के संग
अब तो शहर कहीं और है
अब तो लोगों का आशियाना कहीं और है।
बैरहना में विशाल कब्रस्तान है अंग्रेजों का
पत्थरों के सिल्लों पर उनके मौत का आलेख है
मौत की नींद पाए लोगों पर ऊंची चाहरदीवारी है
और संड़क के उस पार पूरब में
कुंभ का विशाल मैदान है
जो उतरते हुए चला जाता है ठेठ संगम तक
यहीं अकबर का किला है
जो यमुना के जल को छूता है।
गंगा के इस पार हनुमान का प्राचीन मंदिर है
और उस पार पांडवों का मिट्टी का किला है
बाईं ओर बसा है दारागंज मोहल्ला
जिसके बासीन थे निराला
जो पैदल पैदल चले आते थे आनंद भवन तक
गेट पर खड़े हो पुकारते थे - अबे, ओबे गुलाब!
इस शहर का यह पुराना मिजाज है
जो चला आ रहा है अब भी ....
यह अलग बात है कि दूधनाथ सिंह इसी मिजाज के साथ
झूंसी में जा बसे हैं
निलाभ दिल्ली में।
कहते हैं अंग्रजों के जमाने में सिविल लाइंस की संड़कें भी
अंग्रेजों की गुलाम थीं
मेरे आने तक बसों का सारा जमावड़ा यहीं था
कॉफी हाउस और चर्च वाला चौराहा
शाम की तफरी के लिए सबसे मुफीद जगहें थीं
अब तो कॉफी हाउस के सामने खुल गया है विशाल मॉल
चर्च पहले से कहीं अधिक चमक उठा है
यह अपनी ही प्रतिकृति लगने लगा है,
सिविल लाइंस के फुटपाथ अब बेफिक्र नहीं रहे
वहां चढ़ आती हैं गाड़ियां
प्रेम में बेफिक्री की तासीर पर पड़ चुका है पूंजी का डाका
फिर भी इस शहर में पागलों से अधिक कवि हैं
और प्रेमियों से अधिक रकीब।
कहते हैं यह शहर बाढ़ में पूरा कभी नहीं डूबा
शहर के नए मोहल्ले जरूर डूबने को हो जाते हैं
इस दृृश्य का लोग मुरमुरे खाकर मजा लेते हैं,
यहां हर मुहल्ले में है एक शास्त्रीय संगीत घराना
हरएक मुहल्ले में कवि, कथाकार, आलोचक
हर एक का अपना अपना आंदोलन
अपना अपना तराना
पर क्या मजाल की भटक जाए कोई विसम स्वर से भी
लोग हैं कि सुर्ती की ठोंक पर ताल देते हैं
कोई पिनक कर छोड़ दे यह शहर
जा बसे मुंबई, भोपाल, ......, तो क्या!
यह शहर तो अपनों का ही बाशिंदा है,
क्या संगीत समिति, क्या हिन्दूस्तानी एकेडमी, .....
यह शहर रचनाकारों के घर घर में बसता है।
इस शहर के सबसे ऊॅचे पर इलाहाबाद विश्वविद्यालय है
गोथिक कला का नमूना
मौसम साफ हो तो शहर के हर कोने से दिखता है,
यहां मुहल्ला कटरा है
आरजू लिए यहां बसते है छात्र
और सड़क किनारें बिकती रहती हैं बेशुमार अर्जियां
यहां सबसे अधिक गांव के युवा आते है
हसरत से सराबोर दिन भर शहर घूमते हैं
चप्पल चटकाते हुए गली गली झांक आते हैं
वे गंगा के पाट की हवा जरूर खाते हैं
और भोजन में नमक इतना ही सही
प्यार जरूर करते हैं
किताब के पन्नों से अधिक सपने देखते हैं
यह अलग बात है कि समय के बेंत का
पीठ पर पड़ना कभी बंद नहीं होता
उम्र बढ़ने पर यही समय लउर हो जाता है
नौकरी की अर्जीयों में बंद होती जाती हैं चाहतें
कभी खुल भी गई अर्जियां
तो वे सरपट भागते चले जाते हैं नाक की सीध में,
जिनके पैरों में न जूते टिकते थे न ही चप्पलें
टूटे ही रहते थे उनके मियानी के धागे ....
वे पूरे के पूरे फाइलों की शक्ल होते जाते हैं
और उनकी आंखें जर्द कागज ।
यमुना पर पहले एक पुल था अब दो हैं
दोनों दो कालेजों के मुहाने पर खुलते हैं
और बाहर नैनी जेल के पास से गुजरते हैं
मैं इस जेल में से हो के आया हूॅं
इस जेल मंे हजारों कैदी हैं
गांव से, इसी शहर से, ....
रूलदार खाते में पुलिस मुंशी रोज ही दर्ज करता है नाम -
जो भी कैद है वह अपराधी हैं या अपराध का आरोपी,
सभ्यता की सबसे दागदार इमारत के बुर्ज पर
भारत सरकार ने गाड़ रखा है राष्ट्रध्वज
जिस पर न तो बसों के हार्न का असर पड़ता है
और न ही माताओं के श्राप का ....,
इसी में कैद हैं सीमा और विश्वविजय,
साइकिल चुराने के जुर्म में एक युवा,
खेत के झगड़े में फंस गए गरीब किसान
भठ्ठा मालिक के जाल में फंस गया मजूर
और सिपाही को भत्ता न देने वाला दुकानदार ....
सब के सब गुनाहगार
उन पर तैनात हैं संप्रभु राष्ट्र के होनहार सिपहसालार
यहां से होकर गुजरता है आधुनिक भारत का इतिहास....।
इस शहर में कई सारे पुल हैं
और कई सारे रेलवे फाटक
नैनी का का नया पुल मौज का अड्डा हो गया है
इसे पार करने पर खुलता है एक और पुल- मुलाकात
यहां नहीं है सुबह से शाम तक आनंद भवन सा मजमा
चंद मिनटों में यह बनता है
और फिर अरराता टूट जाता है
जब यह टूटता है
भीतर गुबार सा कुछ उठता है
शूल सा किलकता है, ....
इस पुल पर घर, गृहस्थी, यारी, दुनियादारी की ठांठें हैं
पुलिस, जज की बातें है
हुक्मरानों की कठदलीलों पर उसांसें हैं ....,
बात का बनना और टूटना है
आतुर आंख का भीगना और बिछड़ना है .....
आने के वादे पर वापसी करना है....
जिसे नहीं आना है इस पुल पर
इसी शहर में बेखबर मस्त है।
शहर में वापसी खींचकर ले जाता है लोहे के पुल पर
ट्रेन के गुजरने से जो अब भी थरथराता है
मैं इस शहर के भीतर उतरता जाता हूॅं
पांव पांव बाघंबरी बंधे तक चलता जाता हॅू
कछार के गहरे रंग पर तेजी से उतर रही है रात
मैं उतर आता हूॅ नियॉन लाइट से जगमग शहर के भीतर
आंख कबाड़ी सा खोजता निहारता है
सड़क, घर, इंसान, ...चाय की दुकान
पर नहीं मिलता है कुछ भी अनायास ही
अपने ही पांव के निशान ट्रकों से उठे गुबार में दब गए हैं।
इस शहर में बढ़ गया है शोरगुल, भीड़भड़क्का
अब कभी कभार ही दिखता है
राजापुर या संगम जाने को कोई इक्का
राह छोड़ चलने की इलहबादी लहकट आवाज
धकियाते हुए निकल जाती है बाइक या कार
यह शहर आपाधापी में लहूलुहान है अब
हम जो आदमी हैं अब भी, जाएं कहां
सहसों तक रियल स्टेट का कारोबार है।
यह शहर इलाहाबाद जो है
उस पर उग आए हैं धनिकों के टापुओं के दाग
मेरे लिए यह ककहरे की किताब है
इस शहर से मैंने शहरों को पढ़ना सीखा
अपने मिजाज में चलना सीखा
भाषण देने के पहले खड़ा होना सीखा
प्रेम के पहले प्रस्ताव पर दिल का टूटना सीखा
कविता से पहले अलाप लेने का सलीका सीखा।
इस शहर के चौराहे पर इंतहा अकेला नहीं हूं
इस शहर की गलियों मुहल्लों में मेरे दोस्त बसते हैं
जिनके दरवाजे मुकफ्फल बंद नहीं हैं
पर जितने हैं उससे कई गुना खो गए हैं
उनके बिना यह शहर पूरता ही नहीं है,
कुछ को सरकारी दफ्तरों ने खपा लिया है
कुछ को पद की दीमकों ने चाट लिया है
कुछ कुछ होने की श्राप में पाथर हो गए
कुछ गांव में हैं
कुछ गुरिल्ले बन गए हैं, ...
कुछ जेल में हैं
कुछ रिहा होकर गले मिले हैं अभी अभी
और अग्रिम जमानत की अर्जी देने निकल गए हैं ... ।
पहले पहल जब इस शहर में रोजान अखबार लगाया
पूरे अखबार में एक पृष्ठ होता था इलाहाबाद
अब तो अलग से छपता है कई पन्नों का इलाहाबाद शहर
पूरा शहर हो चुका है खबर
अलसुबह खुल जाती हैं कीटगंज, कटरा में चाय की दुकानें
चौक पर लग जाती है मजदूरों की मंडी
सब्जियों के टोकरे लादे हुए चलते चले आते हैं किसान
पीछे पीछे उनका परिवार ...।
मैं अलसुबह खड़ा हूं रसूलाबाद के घाट पर
लालिमा के विशाल कैनवास पर उठ रहा है सूरज
गंगा पर उतर आई है सुबह
चमक उठी है बहाव की सलवटें
धुंआ उगलते हुए गोमती मेल पार कर रही है फाफामऊ का पुल
उस पार से आ रही है एक डोंगी नाव....
यह सुबहे बनारस नहीं है
पर कुछ है जिसका लहू के रंग पर असर पड़ता है
कुछ है जहां खड़े होने पर सांस लेने का दयार खुलता है
कुछ है जो शहर में वापसी पर हर बार गुम रहता है
कुछ है जो शहर से वापसी पर साथ जाता है
कुछ है जो 99 डिग्री सेल्सियस ताप पर तपता रहता है।

---अंजनी कुमार, 20 अक्टूबर 2011, दिल्ली

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