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गुरुवार, 3 नवंबर 2011

झारखण्ड में नक्सलवाद पर एक नजर!

जीतन मरांडी
(प्रस्तुत आलेख 2008 में लिखा गया जो दैनिक अखबार ‘प्रभात खबर’ में कई किश्तों में प्रकाशित हुआ। उस आलेख की संपादित प्रस्तुति हम दे रहे हैं। इसकी अन्तिम कड़ी छपते ही झारखण्ड पुलिस ने लेखक को गिरफ्तार कर बाबू लाल मंराड़ी के पुत्रा की हत्या के झूठे केस में फंसा दिया और लेखक को सजा दिलवाने के लिए नाना प्रकार के षड़यत्रा रचे गए और अदालत से मौत की सजा दी गई।)
पिछले दिनों चिलखारी में माओवादियों द्वारा की गई कार्रवाई में 19 लोग मारे गये थे। इसके बाद हर तरफ से नक्सलवादियों एवं वर्तमान सरकार पर निशाना साधते हुए खूब प्रतिक्रियाएं आयीं। सरकार के विपक्षी दलों ने सरकार को दोषी ठहराया, तो सरकार तथा सत्ता पक्ष के लोगों ने नक्सलवादियो को कायर कहते हुए आतंकी कार्रवाई की संज्ञा दी। इधर-उधर से प्रशासन एवं खुफिया विभाग को दोषी ठहराया गया, खुफिया विभाग ने इसे नजरअंदाजी बताया, तो कुछ दलों ने तो बाबूलाल को ही दोषी बताया। बाबूलाल ने भी चूक स्वीकार की। माओवादियो ने तो इस कार्रवाई को सही बताते हुए, इसके लिए खेद प्रकट किया कि इसमें आठ निर्दोष मारे गये और इसे चूक माना कि ग्राम रक्षा दल के सरगना नुनूलाल मरांडी बच गये। गांवा, तिसरी और देवरी प्रखण्ड के जनता को शायद घटना की ऐतिहासिक पृष्टभूमि मालूम होगी! मेरी याद में राज्य अलग होने के पहले शायद ऐसी घटना नहीं हुई है। चिलखारी में निर्दोष के अलावा हुई 11 लोगों की मौत के पीछे की ऐतिहासिक घटनाओं को गहराई से देखने के बाद ही वास्तविकता का पता लग सकता है। झारखण्ड राज्य अलग होने के बाद बेलतू, भेलवाघाटी और चिलखारी में ही ऐसी घटनाएं क्यों हुई, यह सवाल सबके जुबां पर है। इसका जवाब कौन देगा- नक्सलवादी या सरकार? नक्सलवादियों ने तो बेलतू, भेलवाघाटी और चिलखारी में हुई कार्रवाई का कारण बताते हुए जिम्मेवारी भी ली है। यदि कोई भी व्यक्ति मारा जाता है तो नक्सलवादी उसकी जिम्मेवारी स्वीकारते हैं और जहां गलती से कोई मारा जाता है तो खेद प्रकट करते हुए क्षमा भी मांगते हैं। मगर आम जनता की बात माने, तो जहां पुलिस द्वारा कोई व्यक्ति फर्जी मुठभेड़ में मार दिया जाता है, वहां पुलिस अपनी गलती स्वीकार नहीं करती हैं बल्कि मारने वाले सिपाही एवं अफसर को पुरस्कृत किया जाता है। आज तक पुलिस द्वारा हजारों लोगों को प्रताड़ित किया गया है, लेकिन पुलिस ने इसे कभी स्वीकार नहीं किया है। अगर नक्सलवादियों द्वारा जब कोई व्यक्ति मारा जाता है तो लम्बे अर्से तक सरकारी जांच पड़ताल चलती रहती है। परन्तु जब गरीब जनता को मौत की नींद सुला दिया जाता है, तो उसकी जिम्मेवारी आखिर कोई क्यों नहीं लेता? क्यों उसकी जांच पड़ताल नहीं होती है? क्या हमारे देश में ऐसी कोई जांच एजेंसी ही नहीं है? दरअसल इस पहलू पर न राज्य सरकार की नजर है न केन्द्र सरकार की।
आज हमारे देश में केन्द्र व राज्य सरकारें अंातरिक सुरक्षा का सबसे ज्यादा खतरा नक्सलवाद को मानती हैं। साथ ही साथ ये सरकारें लगातार कह रही हैं कि विकास का बाधक भी नक्सलवाद ही है, लेकिन वे यह नहीं बोलती कि मंहगाई, भुखमरी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, लूट, अकाल, विस्थापन, पलायन, महिलाओं पर बढ़ते अत्याचार क्यों और कैसे जारी है? क्या यह सब कुछ ठीक है? अगर ठीक नहीं है, तो क्यों इन समस्याओं को समाप्त करने के लिए उचित कदम नहीं उठाए जा रहे हैं? इसके लिए जिम्मेवार लोगों को क्यों सबसे बड़े दुश्मन के रूप में चिंहित नहीं किया जाता है? 1947 के बाद भी क्यों ऐसे मामले आसमान छू रहे हैं? एक सरकार गिर रही है और दूसरी सरकार सत्ता में आ रही है, मगर जनता की समस्याएं ज्यों की त्यों बरकरार हैं, ऐसा क्यों?
लगातार राजकीय दमन का शिकार हो रहे नक्सलवाद से प्रभावित क्षेत्रों की जनता इन सवालों के जवाब मांग रही है। जनता का कहना है कि ये नक्सलवादी ही हैं जो वर्तमान सड़ी-गली व्यवस्था का खूलेआम विरोध करते हैं और वैकल्पिक व्यवस्था बनाने के लिए संघर्षरत हैं। ऐसी घड़ी में नक्सलवाद प्रभावित इलाके में जन्मभूमि होने के चलते मैं ‘झारखण्ड में नक्सलवाद पर-एक समीक्षात्मक चिंतन’ प्रस्तुत कर रहा हूं।
आज देशभर में नक्सलवाद चर्चा का विषय बना हुआ है। प्रिंट मीडिया हो, चाहे इलेक्ट्रोनिक मीडिया दोनों में चर्चा जारी है। समाचार पर नजर रखने वाले अक्सर इन चर्चाओं से दिगभ्रमित हो जाते हैं, क्योंकि मीडिया असलियत का पता लगाए बगैर खबरें परोस रही है। पत्रकार उन प्रभावित गांवों तक न जा कर सुनी सुनाई बातों को ही अक्सर लिख डालते हैं, ऐसे में कितनी बात सच हो सकती है, यह तो अच्छी तरह से समझ में आता है। सुनी सुनाई बात और आंखों देखे गए हालात में जमीन आसमान का फर्क है। आम तौर पर वे किसी भी घटनाओं के पीछे के कारण को दरकिनार कर देते हैं और केवल सतही तौर पर तात्कालिक घटना का विवरण पेश करते हैं, जबकि घटना के पीछे द्वंद्वात्मक पहलू रहता है। जिसे छोड़ देने से सही तथ्य सामने नहीं आ पाता।
मेरा गांव नक्सलवाद प्रभावित क्षेत्रा में आता है और मैं भी कई बार नक्सलवादी होने के आरोप में जेल जा चुका हॅूं। अगर उस इलाके में रहने पर ही नक्सलवादी एवं उग्रवादी हो जाता है तो राज्य के 18 जिले की जनता दोषी कही जा सकती है। अगर नक्सलवादी के बारे में अपनी बातों को रखना ही गुनाह है तो सारे प्रचार माध्यम बन्द कर दिये जाने चाहिए। साथ ही साथ पढ़ने-लिखने की भी कोई जरूरत नहीं है। क्योंकि पढ़ने-लिखने से अपने चारों ओर घट रही घटनाओं को जानकारी मिलती है और जानकारी मिलने से अपनी भावना किसी न किसी रूप में प्रकट होती है।
गिरफ्तारी और कारागार जाने से मेरी आंखें खुल गई हैं। मैंनें नजदीक से लूट और शोषण को देखा है। कैसे निर्दोष जनता के ऊपर पुलिस द्वारा झूठे आरोप लगाए जाते हैं, यह भी मैंने अपनी आंखों से देखा और भुगता है। जनता का शोषण कैसे होता है यह मैंनें जेल जाने का बाद गहराई से जाना। मानव द्वारा मानव का शोषण कैसे होता है इसे देखने की उचित जगह है कारागार। मेरे ऊपर दमन आज भी जारी है। आज भी मेरे ऊपर पुलिस-प्रशासन आरोप लगाता रहता है। कुछ इने-गिने पत्राकार भी अंधी नजर से मुझे ऐसे ही देखते हैं। मैं चिंतित तो जरूर हूं, मगर संघर्ष जीवन का एक महत्वपूर्ण पहलू है, इसे समझता हूं।
मैं 1994 से जनता के जीवन जिंदगी की समस्या के साथ जुड़े हुए गीत गाता रहा हूं। देश के हालात के बारे में सोचता हूं और अपनी छटपटाहटों को गीतों के जरिए प्रस्तुत करता हूं। गीतों की रचना करता हूं। हमारे गीतों में केवल मनोंरजंन ही नहीं, बल्कि अंधेरे में जीवन बिता रहे लोगों को वे रोशनी प्रदान करते हैं। ये गीत आम जन-मानस के बीच प्रेरणा का स्रोत बन जाते हैं। हम झारखंडी आदिवासी सांस्कृतिक परम्पराओं को बचाये रखने के लिए लोकगीतों का प्रचार करते हैं, इसलिए हमारे द्वारा रचित गीत जनता गाती है। जनसंघर्ष से उत्पन्न कई पहलुओं पर भी मैं अपने गीतों के जरिए अपनी भावनाओं को प्रकट करता हूं जो कि जनता के दिल में गहरा उतर जाते है।
नक्सलवाद और मेरा जन्म
मेरा जन्म करीब 80 के दशक में गरीब किसान परिवार में झारखण्ड के एक गांव में हुआ। जिला गिरिडीह के पीरटांड़ थाना अंतर्गत ग्राम करंदो मेरी जन्म भूमि है, जिसे झारखंड के सबसे ज्यादा नक्सलवाद प्रभावित इलाका कहा जाता है। मैं स्कूल में मात्रा तीसरी कक्षा तक ही पढ़ाई कर पाया था। कारण रही- गरीबी, दयनीय आर्थिक स्थिति। विद्यालय में पढ़ाई के दौरान हमारे शिक्षक ने बताया कि 15 अगस्त 1947 को देश आजाद हुआ है और हमें आजादी मिल चुकी है। इतिहास के पन्नो से मुझे यह जानकारी भी प्राप्त हुई है कि 1952 में ही सरकार की स्थापना हो गई थी। मगर मेरे गांव में स्कूल भी नहीं था। कभी पेड़ के छावों में तो कभी टूटी हुई खपरैल के मकान में और तो कभी खुले आसमान के नीचे चलते-फिरते तीन साल तक ही पढ़ाई नसीब हुई। उसमें भी मुझे छः महीने पढ़ाई लिखाई तो छः महीने जानवर की देखभाल करनी पड़ती थी। उस गांव में आज स्कूल तो बना गया है, मगर अभी तक एक भी आदमी नहीं निकला जिसने इंटर तक पढ़ाई की हो। हालांकि पीरटांड़ प्रखण्ड का सबसे ज्यादा जनसंख्या वाला यही गांव ही है।
ऐसे अनेक गांव झारखण्ड में विद्यमान हैं। जंगल-पहाड़, गड्ढे़-नाले, ऊंची-नीची जमीन पर बसे गांव। अपनी संस्कृति, सभ्यता एवं भाषा-शिक्षा, रहन-सहन की विशिष्टता ही असली झारखण्डी की पहचान है। उन्हें जंगल के विभिन्न किस्म के पेड़-पौधों से प्यार है, जंगल के पालतू जानवारों से और नक्सलवादियों के क्रियाकलाप व अच्छे चरित्रा से प्रेम है।
बड़ों से मैंने सुना है कि जंगल के एक छोटी लकड़ी काटने पर भी कर्ज चुकाना होता था। जंगल में सिपाहियों के जुल्म का शिकार होना पड़ता था। इस कारण मेरे पिताजी भी जेल जा चुके थे। बुजुर्गा की बात माने तो, नक्सलवादी नहीं आते तो उन्हें जंगल में रहने का हक नहीं मिलता। बल्कि वे उजाड़ दिए जाते, नक्सलवादियों ने ही उनको जीवन की रक्षा की है। अगर झारखंड के सुदूर देहाती गांवों में रह रही माताओं-बहनों एवं बुजूर्ग लोगों से पूछा जाए कि नक्सलवादी क्या तुम्हारा दुश्मन हैं?, तो उनका सीधा जवाब होगा- नहीं। बल्कि वे बोलेंगे- नक्सलवादी हमारा जीवन जिंदगी के साथ हर समय जुड़े हुए हैं। क्योंकि वे हमारे इर्द-गिर्द के ही भाई -बहन और बेटा-बेटी हैं। वे समाज के अगुआ हैं, समाज को राह दिखाते हैं। वृद्ध लोग कहते हैं- नक्सलवादियों ने हमें कभी भी ऐ बूढ़ा! नहीं कहा। बल्कि वे कुछ न कुछ रिश्ता बना कर ही हमें पुकारते हैं।
नक्सलवाद और मेरा ज्ञान
मैनें सुना था कि 1970-80 के दशक में नक्सल एवं लालखंडी का मतलब किसी विचारधरा से नहीं, बल्कि किसी हिंसक जानवर से था। क्योंकि ऐसी चर्चा थी कि नक्सल का बड़ा-बड़ा कान होता है, वह एक कान को बिछाता है तो दूसरे कान को ओढ़ता है। बाल-दाढ़ी बड़ा-बड़ा, दांत बड़ा-बडा़। वह जंगल में रहता है, मां-बहनों की इज्जत लूटता है, किसी के भी घर में भी घुसकर अनाज लूट लेता है, खस्सी, मुर्गा खा जाता है। बच्चों को उठाकर ले जाता है। बनाए हुए खाना को भी नहीं छोड़ता है, अर्थात नक्सलवादी एक किस्म का यमराज एवं राक्षस हैं, ऐसा प्रचार था। बच्चों के के अन्दर ही नहीं, बल्कि बड़ों में भी इसी तरह का भय व आंतक था।
कुछ दिनों के बाद नक्सलवाद के विकास के साथ धीरे-धीरे लोगों के अन्दर यह समझदारी आयी कि नक्सली भी हमारी तरह आदमी हैं, मगर वे किसी की नहीं सुनते, जो मन मे आया वही करते हैं। उससे मिलने का मतलब मौत माना जाता था। बाद में लोगों को समझा में आया कि यह शोषक शासक वर्ग द्वारा रची गई कुत्सा प्रचार था। परन्तु कुछ लोग आज भी पहले की तरह ही सोचते हैं। मेरे सामाजिक ज्ञान की शुरूआत और नक्सलवाद का विकास शायद एक ही समय में हुआ। मैंने नक्सलवाद का नाम समय-समय पर बदलते हुए सुना है। 80 के दशक के उत्तरार्ध में नक्सलवादी का चर्चित नाम था- नक्सल, लालखण्डी, लाल पलटोन आदि। उस समय यह पता नहीं था कि नक्सल एवं लालखण्डी को कभी नक्सलवादी एवं माओवादी के रूप में जानेंगे। आज उनका प्रचलित नाम है एमसीसी, नक्सलवादी, माओवादी, पर उनको नहीं चाहने वाले लोग उन्हें उग्रवादी, आतंकवादी, और चरम पंथी भी कहते हैं।
इसकी असलीयत क्या है? इसे जानना और समझना भी जरूरी है। नहीं तो, कहावत है कि कौआ कान ले गया कहने से ही कान को छुए बगैर कौआ के पीछे दौड़ने लगते हैं। पहले भी ऐसा हुआ है, और आज भी कहीं-कहीं ऐसा ही हो रहा है। आज भी कुछ तबके इसी तरीके से दुष्प्रचार करने-कराने में लगे हुए हैं। शहरों में रहने वाले कुछ लोग नक्सलवादियों से डरते हैं। पर जो प्रगतिशील हैं, समझदार हैं, मेहनत करने वाले हैं उनके लिए नक्सलवाद कुछ डर की बात नहीं है। गांव के लोग, किसान-मजदूर व मेहनतकश लोग वर्तमान में नक्सलवाद का बुनियादी आधार बन गया है, पानी और मछली के बीच का संबंध जैसे है वैसा ही संबंध शायद है। इसका मतलब है लोग गहराई में जाकर नक्सलवाद के असली चरित्र के बारे में जान चुके हैं। हम गहराई में जाए बिना धुंधली नजर को साफ नहीं कर पायेंगे और सही समझदारी हासिल नहीं कर पायेगें। जिस तरह पढ़े लिखे लोग विज्ञान के कारण यह समझते हैं कि सूर्य पृथ्वी के चारो और परिकर्मा नहीं करता बल्कि पृथ्वी सूर्य के चारो ओर परिकर्मा करती है। जबकि अशिक्षित एवं गांव के साधारण लोग नहीं जान पाते।
आश्चर्य की बात यह है कि आज देश भर में नक्सलवाद के बारे में हो हल्ला चल रहा है, विधान सभा से लेकर संसद भवन तक यह चर्चा का विषय बना हुआ है, फिर भी नक्सलवाद वास्तव में क्या है, इसे जानने का प्रयास पढ़े लिखे लोग भी बहुत कम करते हैं। यह हमारे देश की बिडम्बना है। लेखन के क्षेत्रों से जुड़े हुए कुछ लोग अपनी कलम को मोड़कर लिखते हैं। वे सच्चाई को छिपा कर अपनी बातों को कई और रूपों में सामने लाते हैं। लेख पढ़नेवाले पाठकों और आम जनता को ठीक से समझने में दिक्कत होती है। कुछ लोग तो राजसत्ता के डर से सच्चाई को छोड़ देते हैं।
मैं सारी चीजों से सावधान रहते हुए अपनी आंखो से देखी हुई, गांव व घर में हुई चर्चाओं, प्रतिदिन अखबार में छापने वाली खबरों, विभिन्न पत्रा-पत्रिकाओं द्वारा अर्जित ज्ञान तथा ऐतिहासिक ज्ञान की समझदारी के आधार पर नक्सलवाद के बारे में सच्चाई को बयान कर रहा हूँ। उस मिट्टी से लिख रहा हूँ जहां नक्सलवादी का गढ़ माना जाता है और जिस जिले एवं प्रखण्ड का नाम सुनकर सरकारी पदाधिकारी से लेकर आम लोग भी चौंक जाते हैं। इस क्षेत्रा के लोग भी जब अन्य जगहों पर जाते हैं तो अपना नाम तो बेहिचक बता देते हैं, पर घर का पता बताने के लिए थोड़ा हिचकते हैं। कभी-कभी मैं भी हिचकता हॅंू। मेरे जिला एवं प्रखण्ड को दागी करार दे दिया गया है। यहां के पेड़-पौधे, मिट्टी-पत्थर, हवा-पानी भी दागी बनाए जा चुके हैं। इसीलिए हमारे यहां के लोगों को उग्रवादी के आरोप में फंसाने का डर बना रहता है।
जीवन और बारूद की आवाज
14 अप्रैल 1992 को एक छोटा सा टिल्हानुमा मैदान में प्लास्टिक से बनाए हुए फुटबॉल को लेकर अपने दोस्त के साथ खेल रहा था। अचानक धांय-धांय की आवाज सुनाई दी, आवाज सुनकर हम सभी चौंक गए। कुछ देर के लिए खेल बन्द हो गया। सभी ने समझा कि कहीं शादी हो रही है। हमें ये नहीं पता था कि नक्सलवादियों और जमीन्दारों की सेना सानलाइट सेना के बीच संघर्ष चल रहा है। इसके बाद खेल पुनः शुरू हो गया। दूसरे दिन गांव में चर्चा का विषय था कि नक्सल एवं लालखण्डी लोगों ने खुखरा में गोली चला कर कुछ लोगों को मार दिया है। सबके दिल में डर फैल गया। ये पता नहीं चला कि नक्सलवादियों ने लोगों को क्यों मारा। सिर्फ यही चर्चा रही कि नक्सल लोग आदमी को मारते हैं। तब शाम के समय किसी को भी देखने से बड़े लोग कहते थे, देखो नक्सल एवं लालखण्डी लोग भाग रहे हैं। यह बात सुनते ही रोंगटे खड़े हो जाते थे।
लेकिन आज इस तरह की बातों को सुनकर मुझे आश्चर्य होता है। दरअसल उस समय देखने का दृष्टिकोण अवैज्ञानिक था। आज वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखता हूं, तो कुछ और दिखाई देता है।
नक्सलवाद की पहचान
झारखण्ड में नक्सलवाद के आगमन से पहले लोगों को नक्सलवाद के बारे में नहीं पता था। दरअसल लोगों को नक्सलबाड़ी आंदोलन के बारे में जानकारी नहीं थी। बड़ों से मैंने सुना है कि नक्सलवादी, दादालोग, मात्रा एक दो साथी गांव में आते थे और सीधे आम जनता से सम्पर्क कर लेते थे। अपने को गरीबों का मसीहा बताते थे और अपने विचार को रखना शुरू कर देते। आम जनता के साथ मिल जुलकर काम करते थे। किसी तरह का भी काम हो, लगन के साथ करते थे। जनता की भाषा में अपनी बातों को रखते थे। इसी तरह उन्होंने धीरे-धीरे गरीब जनता को गोल बन्द किया। उन्हांेने जनता को समाज में अपने मौलिक अधिकारों के बारे में बताया। जब जमीन, जंगल, अर्थात बड़े-बड़े जोतदार, जमींदारों आदि जनता के दुश्मनों के खिलाफ संघर्ष शुरू हुआ, तब जनता समझने लगी कि नक्सलवाद क्या है और वह बड़े पैमाने पर संगठित होने लगी।
अपने अधिकार के लिए संघर्ष का संकेत इस प्रकार था। जमीन्दारों ने लंद-फंद कर किसानों की जमीन हड़प ली थी। इसलिए उस जमीन पर लगाए गए धान को आम जनता मिलकर काट लेती थी और खेत में लाल झण्डा गाड़ देती थी। जंगल में पेड़ों पर पुआल एवं लाल झण्डा बांध दिया जाता था। साथ ही साथ टीन की चादर का बोर्ड बनाकर पेड़ों में टांग दिया जाता था, जिसपर लिखा हुआ रहता था- जंगल की कटाई करना बन्द करें। जंगल की रक्षा करना जनता का अधिकार है। निवेदक में ‘जंगल रक्षा समिति’ लिखा हुआ रहता था। यह जंगल रक्षा का प्रतीक था।
नगाड़ा बजाकर, जुलूस निकाल कर लोगों को जगाया गया। जनता ने खुद ही जंगल रक्षा करने हेतु पहल की। इस सकारात्मक पहल से धीरे-धीरे इलाके में जनता व्यापक तौर पर प्रभावित हुई। इसके बाद जनता संगठित हुई और उसने जंगल माफियाओं को संघर्ष करके भगा दिय।
पहले किसानों की जमीन पर जमीन्दारों का कब्जा था, किसान को चावल का दाना नसीब नहीं होता था, अब उन्हें दाना नसीब होना शुरू हुआ। चोरी डकैती में रात दिन वृद्धि होती जा रही थी। महिलाओं की इज्जत लूट ली जाती थी। दबंग किस्म के लोग किसानों का बर्बरतापूर्वक शोषण करते थे। गांव के प्रमुख एवं महतो की मनमानी चलती थी। कहीं कुछ भी होता तो थाने में प्राथमिक दर्ज होने पर भी पुलिस उन पर कार्रवाई नहीं करती थी। उल्टे उनसे ही रूपया ऐंठ लेती थी, जो पीड़ित थे। जमीन का कर, कोई बच्चा जन्मे तो टैक्स, कोई ब्याह-शादी हुआ तो टैक्स, पूजा-पाठ हो तो टैक्स ऐसे अनगिनत टैक्स कायम थे। कभी आपस में बक-झक हुआ, तो जमींदार की कचहरी में धौंस सहनी पड़ती और जुर्माना भुगतना पड़ता था। मजदूरी कम मिलती थी। नक्सलवादियों के आने के बाद यह सब बन्द हो गया। और जन सत्ता के भ्रूण पैदा होने लगा। इन सारे बदलावों के पीछे नक्सलवादियों की पहलकदमी और जनता का संघर्ष था।
क्या यह बदलाव अपराध है? क्या यह जनता की भागीदारी के बिना ही हुआ है? आज नक्सल से लेकर नक्सलवादी, माओवादी तक के बारे में आम जनता जान पायी हैं, क्या यह किसी दबाव के जोर हुआ है।? यह आन्दोलन नक्सलबाड़ी से लेकर पूरे भारतवर्ष में कैसे फैल गया है?
जनता शोषण मूलक समाज व्यवस्था से मुक्ति, जनविकास और बदलाव चाहती है। और नक्सलबाड़ी का सिद्धांत ही है जनता के आर्थिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक अधिकार को कायम करना और निजी मालिकाना उत्पादन व्यवस्था को बदलकर सामूहिक तथा समाजवादी उत्पादन व्यवस्था को स्थापित करना।
चूंकि जनता की इच्छा के मुताबिक सिद्धंात लागू हुआ, तो थाना, पुलिस तथा कचहरी का चक्कर लगाने वालों की संख्या घटने लगी। आज जग जाहिर है कि नक्सलवादी प्रभावित इलाके में स्थित थानों में उग्रवादी नक्सलवादी के अलावे किसी तरह का मामला बहुत कम दर्ज होता है। इसके क्या कारण हो सकते हैं? दरअसल थाने-कचहरी के चक्कर लगाने वाले लोग आज दयनीय स्थिति से गुजर रहे हैं। तभी तो मौजूदा व्यवस्था से जनता का विश्वास हट गया है और वह माओवादियों पर विश्वास करने लगी है। हर तरह का मामला अब क्रांतिकारी किसान कमिटी के पास जाता है। यह होना स्वाभाविक है।
ऐतिहासिक घटनाओं के साथ जीवन का सफर
चीनी नवजनवादी क्रांति सफल होने के बाद दुनिया में मेहनतकश जनता की मुक्ति का रास्ता साफ हो गया। तेलंगाना से होते हुए यह लहर बाद में सीपीएम के संशोधनवाद के खिलाफ चारू मजूमदार, कन्हाई चटर्जी सहित कुछ लोगो के नेतृत्व में इस लहर ने विरोध का झण्डा बुलन्द किया और चीनी क्रांति के मार्ग को भारतीय जनता की मुक्ति के एक मात्रा मार्ग के रूप में प्रस्तुत किया। यह धारावाहिकता नक्सलबाड़ी तक पहुंची और देश में 1967 में ऐतिहासिक नक्सलबाड़ी किसान विद्रोह हुआ। यह किसान विद्रोह चीनी क्रांति के वैज्ञानिक सिद्धांत को अपना बुनियादी आधार मानकर, चारू मजुमदार के नेतृत्व में सम्भव हुआ था। अर्थात यह किसानों का न्यायपूर्ण विद्रोह था। इसीलिए आज भी इतिहास के पन्नों में नक्सलबाड़ी किसान विद्रोह के रूप में अंकित है।
इस विद्रोह की आहट देश भर में फैल गई। यह बीज दूर-दूर तक छिटक गया। नक्सलबाड़ी से नक्सलवाद का जन्म हुआ, क्योंकि नक्सलबाड़ी का आंदोलन एक हवा नहीं, बल्कि एक विचारधारा, एक विज्ञान के रूप में फैला। कन्हाई चटर्जी के नेतृत्व में भी कांकसा, हजारीबाग और गया में यह लड़ाई आगे बढ़ी।
वैज्ञानिक रूप से सर्वाधिक उन्नत विचारधारा मार्क्सवाद-लेनिनवाद- माओवाद सामने आई। इस विज्ञान ने निजी मालिकाना उत्पादन व्यवस्था को बदल कर सामूहिक तथा समाजवादी उत्पादन के रूप में विकास करने हेतु राह दिखायी।
नक्सलवादी आंदोलन का मतलब आर्थिक, राजनीतिक तथा संास्कृतिक अधिकार कायम करना है। उस विचारधारा को जिसने स्वीकार किया और जिन्होंने उसी के आधार पर विद्रोह का बिगुल फूंका और जो इस वैज्ञानिक तरीके से अपनी मुक्ति के लिए संघर्षरत हैं, वे ही सच्चे नक्सलवादी हैं। आज इस विचारधारा एवं विज्ञान को मानने वाले लोगों को नक्सलवादी, माओवादी ही कहना उचित होगा।
शोषक-शासक वर्ग नक्सलबाड़ी महान किसान विद्रोह तथा देश के बड़े पैमाने पर चल रहे किसान-मजदूर मुक्ति संघर्ष की सच्चाई को, रूसी क्रांति, चीनी क्रांति की सच्चाई को छिपा रहा है और उनके खिलाफ दुष्प्रचार कर रहा है। उसके तमाम दुष्प्रचार के बावजूूद नक्सलवाद स्थापित हो रहा है। शुरूआती दौर से ही नक्सलवादियों पर राजकीय दमन जारी रहने के बावजूद देश भर में नक्सलवाद का विकास इसका जीता जागता प्रमाण हैै।
देश भर में गुप्त तरीके से अपने गतिविधि चलाते हुए नक्सलवादी विस्तारित हो रहे हैं। अपने बातों को खुल्लम-खुल्ला प्रचारित करने का अवसर उन्हें एकदम ही नहीं मिलता है। मेरा मानना है कि आज के दौर में कोई भी राजनीतिक संगठन देश के बड़े पैमाने पर इस तरह नहीं फैल पाया है। ये नक्सलवादी ही हैं जो देश के बड़े हिस्से में नक्सलवाद को जन-जन तक स्थापित कर पा रहे हैं। यह चिंताजनक बात नहीं है। बल्कि इससे खुशी होनी चाहिए, क्योंकि समाज व्यवस्था बदलेगी तो सभी का फायदा ही तो होगा।
पुरानी व्यवस्था को बदलने के लिए तमाम लोगों को किसी न किसी रूप में हिस्सेदारी करनी चाहिए, क्योंकि वर्तमान व्यवस्था सड़ गई है। समाज में गंदगी बेरोकटोक फैल रही है। इसे हटाकर नई व्यवस्था बनाना अति आवश्यक है। मेरे ख्याल से नक्सलवादी इसी सड़ी-गली व्यवस्था को बदलने के लिए संघर्षरत हैं। नक्सलवादी यह नहीं कह रहे हैं कि व्यवस्था को सुधारना है, बल्कि वे कहते हैं व्यवस्था के ढांचे को ही पूरी तौर पर बदलना है। इसीलिए शायद वे चुनाव में भी हिस्सेदारी नहीं करते हैं। क्योंकि चुनाव के जरिए सत्ता परिवर्तन होगा, यह तो खुद जनता ही विश्वास नहीं कर रही है। 1952 से जनता देखती आ रही है कि इस देश में जनवाद नाम की कोई चीज ही नहीं दिखाई देती है।
1967 के नक्सलबाड़ी के सशस्त्रा किसान विद्रोह के बज्रनाद की आवाज झारखण्ड की धरती पर भी प्रतिध्वनित हुई और ‘झारखण्ड को लालखण्ड में बदल डालो’ के साथ एकाकार होकर, झारखण्ड की धरती पर कृषि-क्रांति को केंद्र में रखकर उसने नवजनवादी क्रांति के द्वार खोल दिए। 70 के दशक से झारखंड में लालखण्ड का आंदोलन राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय जनप्रतिरोध संघर्षों के साथ एकताबद्ध हो गया। झारखण्ड की स्वतंत्रा अस्मिता पर छाई हुई सामंती, औपनिवेशिक अपसंस्कृति और महाजनी सभ्यता तथा उसके संरक्षक संसदीय तंत्रा द्वारा जारी लूट और शोषण के खिलाफ जनसंग्राम छिड़ गया।
झारखण्ड क्षेत्रा की मूल समस्या कृषि और किसानों की है, झारखण्ड का मुख्य पेशा कृषि है। अतः झारखण्ड की उत्पादन प्रणाली में परिवर्तन कर उत्पादन तथा वितरण की दिशा में नए संबंध स्थापित करने के लिए ‘सही किसान के हाथ में जमीन और कामगारों के हाथ में सारा जंगल और खान’ के लिए क्रांतिकारी किसान कमिटी के नेतृत्व में संघर्ष उठ खड़ा हुआ ताकि झारखण्ड की समस्त उत्पादक शक्ति को शोषण मुक्त करके सामाजिक जरूरत के मुताबिक उत्पादन का विकास किया जा सके और झारखण्ड आत्मनिर्भर बन सके।
झारखण्ड में लालखण्ड आंदोलन का मतलब क्रांतिकारी किसान कमिटी की राजनीतिक व्यवस्था कायम कर एक स्वतंत्रा, आत्मनिर्भर तथा स्वावलंबी आर्थिक राजनीतिक व्यवस्था का विकास करना है, जो झारखण्ड के जन जीवन को लूटने तथा निगलने के बजाय, जनता को खिलाने, जिलाने तथा भरण-पोषण करने वाली होगी।
शिबू सोरेन भी एक समय के क्रांतिकारी थे। उन्होंने ही नारा दिया था- ‘मारो जमींदार, काटो दारोगा’, ‘वोट से नहीं चोट से लेगें झारखण्ड’, ‘झारखण्ड को लालखण्ड में बदल डालो’। इसका मतलब ही है झारखण्ड को शोषण मुक्त राज्य बनाना। जंगल में रहते थे, गुरिल्ला तरीके का इस्तेमाल करते थे और झारखण्डी जनता को गोलबन्द करते थे। यह बात बुर्जूग लोग आज भी सुनाते हैं।
बुर्जूग लोगों की बात माने तो आज उन्होंने ही संसदीय गलियारे में जाने के बाद झारखण्डी जनता के साथ घोर विश्वासघात किया है, और जनविरोधी कार्य कर रहे है। उनमें जन सेवा की भावना का एक अंश भी नही रह गया है, अब जनता को धोखा देना और नक्सलवादियों को गाली देना ही उनका कार्य रह गया है। जबकि पारसनाथ के तलहटी पर बसे और टुण्डी थाना अंतर्गत पहाड़ों में स्थित गांवों की जनता ने ही तो शिबू सोरेन के जीवन की रक्षा की थी। आज उन्हें ही पुलिस उग्रवादी होने के आरोप में लगातार प्रताड़ित कर रही है।
मैं समझता हूं कि झारखण्ड आंदोलन से ही तो नक्सलवादियों का जन्म हुआ है। गांव में चर्चा है कि शिबू सोरेन के साथ जिन्हांेने एक साथ खाना खाया है और रात दिन बिताया है, वही आज नक्सलवादी आंदोलन को नेतृत्व प्रदान कर रहे हैं। जनता शोषण मुक्त समाज बनाना चाहती है और झारखण्ड के तमाम खनिज सम्पदा पर अधिकार कायम करना चाहती है। स्वाधीन जीवन बिताना चाहती है। लेकिन जब भी इन सारी मांगों के लिए जन आंदोलन झारखण्ड में उभरा है उसे बन्दूक के बल पर दबाने का कोशिश की गई।
अलग राज्य का उदय और नक्सलवाद
बाबूलाल मरांडी झारखण्ड में नक्सलवादियों के खिलाफ सबसे ज्यादा खुल कर बोलने वाले राजनेताओं में से एक हैं। जब राज्य अलग हुआ और वह झारखण्ड का पहला मुख्यमंत्राी बना तो झारखण्डी जनता को एक उम्मीद एवं आशा बंधी कि झारखण्ड का विकास होगा। क्योंकि अलग राज्य के लिए जनता कुर्बान दे चुकी थी। पता नहीं राज्य के पहले मुख्यमंत्राी बाबूलाल मरांडी की क्या समझदारी थी। उन्हांेने ‘विकास के लिए सबसे पहले नक्सलवादियों को खत्म करना होगा’ कहते हुए दमन करना शुरू किया।
पोटा जैसे दमनकारी कानून के तहत सैकड़ों लोगों को काल कोठरियों तक धकेला दिया। 12 साल के बच्चे से लेकर 70 साल तक के बूढ़े को भी नहीं छोड़ा। पोटा के तहत 3200 लोगों पर प्राथमिकियां दर्ज हुईं। आत्मसमर्पण की दोगली नीति अपनाकर खूब ढोल पीटा गया कि उग्रवादियों के पैर उखड़ रहे हैं, जबकि आज के तारीख में नक्सलवाद काफी मजबूत हुआ है। जिन लोगों ने बाबूलाल मरांडी के बहकावे में आकर आत्मसमर्पण किया, वे अभी भी दर-दर भटक रहे हैं। उनके घर गिर रहे हैं, परिवार तितर-बितर हो गये हैं। दबी जुबान से बाबुलाल को गाली दे रहे हैं, क्योंकि उन्होंने पुनर्वास एवं अच्छी जिंदगी का वायदा किया था।
बाबूलाल मरांड़ी ने एक तरफ गांव-गांव में ग्राम रक्षा दल का निर्माण करवाया और साथ ही साथ नक्सलवादियों के खिलाफ कु-प्रचार चलाया। उसी कड़ी में ही बेलतु, भेलवाघाटी, और चिलखारी में अपना स्तंभ खड़ा किया था। मारे गए लोगों के परिवार कैसे जीवन बीता रहे हैं वह तो वही लोग ही बता सकते हैं। उसने जनता का लाखों-लाख रूपया बहाकर, अखबार में विज्ञापन देकर व्यापक तौर पर प्रचार करवाया। साथ ही साथ एक पुस्तक ‘हाय रे उग्रवाद!’ भी लिखी। मगर उस पुस्तक में नक्सलवाद के सच्चे इतिहास को नहीं दर्शाया गया। अपनी पुस्तक में नक्सलवाद को एक विज्ञान के रूप में स्वीकार नहीं किया। बल्कि, उन्होंने नक्सलवादियों को चोर, गुण्डा, आतंकवादी, देशद्रोही, उग्रवादी व महिलाओं की इज्जत के साथ खिलवाड़ करने वाला, चोर-डकैत, निर्दोष जनता की हत्यारे, अपने साथ रह रहे लड़कियों के साथ यौन शोषण करने वाला बताया। उन्होंने लिखा कि नक्सलवादी कायर हैं, वे बड़े नेताओं से लेवी का रूपया लूटकर अच्छे मकान में रहते हैं। झारखण्ड पुलिस ने पर्चा छपवा कर हेलीकॉप्टर से पूरे राज्य भर में गिराया गया।
आज के दौर में कौन नहीं जानता है कि बाबूलाल सहित अन्य बड़े नेता गांव छोड़कर शहरों में ऐश मौज करते हैं। विभिन्न राजनेताओं द्वारा वोट के समय का वादा और जीत जाने के बाद उनसे मिलने वाला धोखा क्या किसी से छिपा हुआ है? आज मैं गांवों में उन गरीबों के साथ जीवन बिता रहा हूं और उनके जीवन के बारे में बारीकी से जानता हूं, सच्चाई क्या है? जनता वोट डर से देती है, राजनेताओं पर आशा और विश्वास के भरोसे नहीं। जब भी मतदान हुआ है, झारखण्ड अर्द्धसैनिक बलों के छावनी में बदल जाता है, क्यों? सत्ता के लिए शक्ति का प्रदर्शन क्यों किया जाता है? इसका सीधा उत्तर है जनता को भयभीत कर वोट दिलवाने मात्रा के लिए।
प्रधानमंत्राी मनमोहन सिंह से लेकर मधु कोड़ा, बाबूलाल मरांडी, शिबू सोरेन, अर्जुन मुण्डा सहित पुलिस पदाधिकारीयों ने नक्सलवादियों पर जघन्य आरोप लगाये हैं। मैं इन आरोपों को पूरे के पूरे मानने को तैयार नहीं हूं, क्योंकि जहां नक्सलवाद का गढ़ कहा जाता है वहां से मैं आता हूं। मैं समझ सकता हूं कि नक्सलवादी कौन हैं, क्या है? नक्सलवादी गांव की जनता है और नक्सलवादी आंदोलन का नेतृत्व भी बाहरी नहीं है, बल्कि वे राज्य के ही अगुआ तबके हैं।
प्रतिदिन अखबार में छपी खबरों से पता चलता है कि बड़े नक्सली नेता भी इसी राज्य के ही हैं। आज तक जिन बड़े नक्सलीे नेताओं को पुलिस ने गिरफ्तार किया है, उसमें से कोई भी बाहरी नहीं है। इससे मुझे यही अंदाजा लगता है कि नक्सली बाहर के नही हैं बल्कि इसी वीर भूमि के ही पैदाइश हैं।
अपार खनिज सम्पदा वाले देश में 90 प्रतिशत जनता बेकारी, भूखमरी आदि से जूझ रही है। ऐसा स्थिति में उनके सामने नक्सलवादी बनने के सिवाय और क्या विकल्प बचता है? 1952 से जनता इस व्यवस्था के तहत चुनी गई सरकारों को देखती आ रही है। वादा तो सब ने किया, लेकिन वादों को किसी ने पूरा नहीं किया है। जब नक्सलवादी आंदोलन शुरू हुआ था, उस समय शायद कुछ ही गांव एवं जिलों में सीमित था। आज पूरे देश के 16-17 राज्यों में इसका संगठन काम कर रहा है।
माओवादी जो वादा करते हैं वह पूरा करके रहते हैं। उन्होंने सबसे पहले जंगल पर जनता के अधिकार का वादा किया था, वह पूरा हो गया। उन्होंने कहा था, अपनी जमीन, तालाब, बागीचे पर अपना हक हो, वह पूरा हो गया और इस दिशा में काम जारी है। आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक अधिकार के लिए संघर्ष जारी है। इस तरह उन्होंने जनता के विश्वास को जीत लिया है, जबकी सरकार जनता से कहती है कि हमें वोट दो, भारी मतो से विजयी बनाओ, पांच साल के अंदर आपके चेहरे को बदल देंगें आदि आदि। लेकिन हकीकत में नेता, मंत्राी का चेहरा तो बदला लेकिन जनता की जीवन स्थिति बद से बदतर हो गई। ऐसी हालत में जब कोई नक्सलवाद को आत्मसात कर रहा हो तो उसे उग्रवादी कहा जाता है!
बात साफ है, जनता दबाव से नहीं, बल्कि अपनी इच्छा से एवं परिस्थिति के मांग के अनुसार ही नक्सलवादी बन रही है। कई बार कोई राजनेता भी सरकार को यह धमकी दे डालता है कि अमुक समस्या हल नहीं हुई तो हथियार उठा लेंगे और नक्सलवादी बन जायेंगे। इसका मतलब ही है समस्या का समाधान नक्सलवाद है। नक्सलवादियों का प्रभाव अगर किसी क्षेत्रों में है, तो बहुत अच्छी बात है, क्योंकि क्षेत्रा के विकास के लिए नक्सलवादी बनना बहुत जरूरी है। तभी तो क्षेत्रा का विकास होगा। जिस क्षेत्रा में नक्सलवादी हैं वहां विकास के लिए खास योजना सरकार बना रही है।
नक्सलवादी बनने का मतलब है उत्पादन की सारी व्यवस्था को बदलने के लिए संघर्ष में उतरना। नक्सलवादी बनने का मतलब है कि उस इलाके में किसी की मनमानी नहीं चलेगी, किसानों के हाथ में जल, जंगल, जमीन होगी। उनकी राजनीतिक हुकूमत कायम होगी, थाने एवं अदालत के लूट मार से निजात मिलेगी। महिलाओं की इज्जत का प्रतिष्ठा होगी। बड़े-बड़े जोतदारों-जमीनदारों तथा महाजनी शोषण बन्द होगा। गांव का मामला गांव में ही सलटेगा। भेद-भाव, छुआ-छूत मिटेगें। तमाम जाति-धर्म के लोग एक होंगे। तमाम चीजों की हकदार जनता होगी।
मेरे घर का भी एक महाजन था। आज इसका पता नहीं है। घर से अगहन महीने में बैल गाड़ी से धन ले जाते हुए मैंने महाजन को देखा था। दादा-बाबा लोग बताते हैं कि पहले जमीन्दार एवं महाजन लोग जब धन एवं अनाज आदि को तोलते थे तो रामे राम रामे राम करके गिनती करते थे, पूरा धान खत्म हो जाने पर भी कर्ज पूरा नहीं होता था। धान को महाजन के घर तक पहुंचाना भी होता था। सादे कागज पर अंगूठे का चिन्ह लगवाकर अच्छी उपजाऊ जमीन को हड़प लेते थे। शाम को छः बजे से ही गांव के लोग चोर-चोर चिल्लाते थे। आज गांव की जनता शांति एवं सुखमय जीवन बिता रही है। उसे अब किसी से डर नहीं है। वह अपना सारा कुछ समझ रही है।
आज अगर गांव के जनता डरती है तो राजसत्ता से और उन खाकी वर्दीधारी बंदूकधारीयों से, जो रक्षा के नाम पर समय-समय पर गांव में आतंक मचाते हैं। यह कोई आरोप नहीं है बल्कि एकदम सच बात है। जब भी पुलिस गांव में जाती है तो जनता भाग जाती है, कोई निहत्था निर्दोष पकड़ा जाता है तो उससे सादा कागज में दस्तखत करवाकर, फर्जी मुकदमें लादकर जेलों में डाल देते हैं। इस तरह की अनेक बेमिसाल पुलिसिया करतूत जनता देख चुकी है।
नक्सलवादी होने के आरोप में कितने ही निर्दोष लोग आज भी जेल में बन्द हैं, कितनी महिलाएं पुलिस द्वारा सामूहिक बलात्कार की शिकार हुई हैं, कुर्की जब्ती के नाम पर कितने ही लोगों का घर उजाड़ा गया है, फर्जी मुठभेड़ के नाम पर कितने ही लोग मारे गये हैं, कितने महिलाएं विधवा हुई हैं, इन सभी बातों की लम्बी सूची है। यह क्या पुलिस द्वारा किया गया अच्छा काम है?
हम सत्ता के उखड़ते पांव और गांव में नक्सलवादियों के बढ़ते पांव का अंदाजा भी लगा सकते हैं। नक्सलवादियों का दल जब एक गांव से दूसरे गांव में जाता हैं तो जनता मुस्काराते हुए आती है। प्यार से हाल चाल पूछती है, खाना कहीं मिला है कि नहीं, नहीं तो चलो खा लो- कहती है। दस साल के बच्चे से लेकर बुढ़े लोगों तक में नक्सलवादियों के प्रति प्यार मौजूद है और जो एक समय जमीन्दारी शोषण को देख चुके हैं उन्हें तो उनसे और ज्यादा प्यार है। भोर चार बजे से ही जमीन्दार उन्हें उठाकर बेगारी करने ले जाता था। गांव के महिलाओं ने कभी यह नही कहा हैं कि नक्सलवादियों ने मेरे साथ बलात्कार किया, गांव में रह रहे किसान ये नहीं कहते हैं कि नक्सलवादियों ने उनके घर में कभी लूट-पाट की है, गांव के लोग ये नहीं कहते हैं कि नक्सलवादियों ने उन पर कभी दमन, अत्याचार किया है। इसके विपरीत नक्सलवादियों के प्रति जनता में अस्था है, प्यार है, और भविष्य के लिए पूर्ण विश्वास है। जिन भी लोगोें को जन अदालत में कभी हाजिर होना पड़ा है, उनसे भी जाकर पूछा जा सकता है कि जन अदालत में क्यों हाजिर होना पड़ा था, वे साफ शब्दों में बतायेगें कि हमारी गलती से। साफ है जनता के गहरे दिल तक नक्सलवादी बैठे हैं।
राज्य के 18 जिले प्रभावित कहे जाते हैं। मैं समझता हूं कि इन अठारह जिलों की जनता नक्सली विचारधारा से प्रभावित हैं और इस हिंसक व्यवस्था के खिलाफ संघर्षरत हैं। वे इस शोषणमूलक समाज व्यवस्था को बदलकर नई जनवादी व्यवस्था के लिए मुख्य धारा पर अग्रसर हैं। तभी तो पुलिस की लाख प्रयासों के बावजूद गांव में नक्सलवादियों की ही एकता मजबूत है। अगर नक्सली जनहित में काम नहीं करते तो जनता उन्हें मार-मार कर खत्म कर चुकी होती, लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है।
नक्सलवादी क्या विकास विरोधी हैं?
कहा जाता है कि नक्सली विकास विरोधी एवं जन विरोधी हैं, सरकार विकास चाहती है, लेकिन वे बाधक बनकर खड़े हैं। नक्सलवादियों के चलते आज झारखण्ड का विकास नहीं हो रहा है। सवाल है कि क्या, इसीलिए शहरों की सड़कें जर्जर हैं, बिजली की स्थिति चरमराई हुई है, महिलाओं के साथ रात, दिन बलात्कार की वृद्धि हो रही है, राज्य के अलग होने के बाद भी पलायन का सिलसिला जारी है, बेरोजगारी, भूखमरी आसमान छू रहे हैं, बस एवं रेल में अव्यवस्था को देखकर आम जनता राजनेताओं को गाली देती हैं, ऑटोरिक्शा वाले पुलिस को पीठ पीछे गाली देते हैं, मंत्राी से लेेकर संतरी तक पर आरोप-प्रत्यारोप लग रहे हैं, नीचे से उ$पर तक के धारक-वाहक भ्रष्टाचार में लिप्त हैं, और सड़कांे पर रोजाना हो-हल्ला एवं पुतला दहन हो रहा है, कारखाने बन्द हो रहे हैं, और मजदूर निकालने के खिलाफ आवाज उठ रही है, पारा शिक्षकों का आंदोलन तीव्र हो रहा है, विस्थापन के खिलाफ जनता गोलबन्द हो रही है, छोटे सब्जी विक्रेताओं का आंदोलन हो रहा है,। यह मौजूदा दौर के आम परिदृश्य का हिस्सा है। गांवों से अलग शहरों की स्थिति भी कुछ बेहतर नहीं है। शहर के कितने लोगों को सरकार ने रोजगार दिया है और किस तरह का रोजगार दिया है? 90 प्रतिशत जनता इस व्यवस्था को पसंद नहीं करती हैं। हम पूछते हैं कि ये सब क्यों हो रहा है? अगर हम मान भी ले कि गांव का विकास नक्सली के चलते नहीं हो रहा है, लेकिन शहरों में और ऐसी जगहों पर जहां नक्सली नहीं हैं, वहां भी विकास क्यों दिखाई नहीं देता।
जनता ने तो देखा है कि जिनके पास साईकिल नहीं थी, आज वे हवाई जहाज से असमान में सैर करते हैं, कल तक जिसके खाने और रहने का कोई ठिकाना नहीं था आज वे कैसे एयरकंडीशन घरों में रह रहे हैं? 1952 के बाद से जनता हिसाब मांग रही है। सबसे पहले तो सरकार गुजरे पचास सालों का जवाब दे।
नक्सली तो विकास चाहते हैं इसलिए ही तो झारखण्ड के 18 जिलों में उनका प्रभाव है। जो जनता के लिए अच्छा काम करेगा उसकी लोकप्रियता बढ़ेगी और उसके पैर मजबूत होंगें, जो जनता को केवल धोखा देगा, उसको कहीं जमीन नहीं मिलेगी। जनता को नहीं पहचानने वाला पुलिस प्रशासन जनता से कट जाएगा और जनता के साथ रात और दिन बिताने वाले जनता के दोस्त बन बन जाते हैं। झारखण्ड का सच यही है।
राज्य सरकार हो या केन्द्र सरकार, नीचे से उ$पर तक पूरी व्यवस्था पूरी तरह हिंसक हो उठी है। जब भी प्रधानमंत्राी या गृहमंत्राी की राज्य के प्रशासनिक पदाधिकारी के साथ बैठक होती है तो समाज में हिंसा फैलाने का ही योजना ली बनाई जाती है। इन लोगों की बैठक में केवल यही पहलू उभर कर सामने आता है- पुलिस की संख्या बढ़ाई जाएगी और उन्हें अत्याधुनिक हथियारों से लैस किया जाएगा। वे केवल बम, बारूद एवं गोली का ही बात करते हैं। क्या हिंसा फैलाने से सब समस्या का समाधान हो जाएगा।
जनता के दुश्मन नक्सली नहीं, बल्कि गरीबी है
नक्सलियों को मिटाने के लिए सरकार ठोस योजनाएं बनाती है, और करोड़ो अरबों रूपये खर्च करने के लिए तैयार है, लेकिन गरीबी मिटाने की योजनाएं केवल कागजों में ही बनती है। नक्सली उन्मुलन के लिए केन्द्र सरकार करोड़ों अरबों रूपया भेज रही हैं, लेकिन गरीबी मिटाने के लिए एक पैसा नहीं। अगर गरीबी खत्म करने के लिए पैसा आता तो भूख से कोई नहीं मरता, लोग पलायन नहीं करते, मजबूर न होते, बेरोजगारों की संख्या नहीं बढ़ती, उपजाऊ जमीन खाली नहीं रहती, महिलाएं पीठ में बच्चे लादकर पत्ता-दातुन नहीं बेचती, चोरी डकैती नहीं होती, और नक्सली भी नहीं बनते।
कुछ लोग का विश्लेषण है कि नक्सलवाद बढ़ने का मूल कारण आर्थिक, सामाजिक समाज में असमानता है, यही सही भी हो सकता है। क्योंकि यह व्यवस्था अगर अस्त्रा-शस्त्राहीन रहती तो विद्रोह भी नहीं होता। जनता तो जवाबी कार्रवाई कर रही है। विद्रोह का उदय वर्ग विभाजित दास समाज से ही हुआ है और अगर आज भी विद्रोह फूट रहे हैं तो इसके लिए वर्ग विभाजित समाज ही दोषी है। जबतक वर्गों का अंत नही होगा तब तक दो वर्गों के बीच संघर्ष जारी रहेगा। इस व्यवस्था का ढांचा बदले बिना हमें जीवन का सुख कभी नहीं मिलेगा।
नक्सलबाड़ी एक गांव का नाम है, परन्तु आज पूरा देश नक्सलबाड़ी बनने के कागार पर है। नक्सलबाड़ी एक मॉडल था, आज झारखण्ड मॉडल बनने जा रहा है। अभी तक के अनुभव से तो यही लगता है। नक्सलवादी वैकल्पिक समाज बनाना चाहते हैं। कहा जाता है इसके लिए उनकी अपनी सेना है, जो भाड़े की नहीं है। बल्कि वह सेना वैज्ञानिक विचारधारा से लैस होकर जनता के लिए समर्पित होकर काम कर रही है। बात सच भी है क्योंकि आज यह कई गुणा बढ़ी है। नया समाज स्थापित करने के लिए इसे बहुसंख्यक जनता का समर्थन प्राप्त है। नक्सलवाद जनाक्रोश-जनसंघर्ष का ही लक्षण है। जहां भी जन समस्या बढ़ेगी, वहां नक्सलवाद का विकास होगा। इसका मतलब नक्सलवादी जन मुक्ति के लिए ही हैं। इसलिए नक्सलवादियों अर्थात भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) को जनता से अलग करके देखना वैज्ञानिक दृष्टिकोण से सही नहीं होगा।
माओवादी भी राजनीतिक लक्ष्य के लिए ही संघर्ष कर रहे हैं। इसीलिए उन्हें राजनीतिक पार्टी के रूप में देखना ही उचित होगा। वे अपने विचार के आधार पर जनता को संगठित कर रहे हैं और आज तक वे जितनी दूर तक फैल पाये हैं, राजनीतिक संघर्ष के बदौलत ही फैलें हैं। जहां तक हथियारबन्द संघर्ष का सवाल है, मेरे विचार में यह प्रतिहिंसा है। क्योंकि माओवादियों के पास विचार पहले आया और आम जनता के पास विचार को फैलाने की कोशिश के दौरान राजसत्ता ने बन्दूक के बल पर विचारधारा को दबाने का कोशिश की गई। जिसके जवाब में माओवादियों ने भी हथियार उठाया। वस्तुतः माओवाद पुरानी सत्ता और नई सत्ता के बीच जारी संघर्ष का परिणाम है।

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