विषय वस्तु

शुक्रवार, 14 अक्टूबर 2011

जनविकास का मॉडल


जनपहलकदमी, समानता, न्याय और आत्मनिर्भरता पर आधारित

(यह मसौदा दस्तावेज विस्थापन विरोधी जनविकास आन्दोलन की विभिन्न बैठकों में हुए विचार-विमर्श के आधार पर बनाया गया है। विस्थापन विरोधी जनविकास आन्दोलन में यह विचार-विमर्श 23 मार्च,2007 को इसकी स्थापना के बाद से जारी था। यह मसौदा दस्तावेज विस्थापन और विपन्नता के खिलाफ प्रतिरोध खड़ा करने के लिए लड़ रहे सभी जनतान्त्रिाक जनसंगठनों और लोगों के सामने रखा जा रहा है। इस दस्तावेज को 23 मार्च, 2007 को विस्थापन विरोधी जनविकास आन्दोलन द्वारा पारित दस्तावेज रांची घोषणापत्रा के साथ पढ़ना होगा।)

1. प्रस्तावना

1.1 विस्थापन, विनाश, विपन्नता और मौत जैसे खौफनाक शब्दों के खिलाफ जनान्दोलन सार रूप में आज अहं पड़ाव की देहरी पर खड़ा है। यह महत्वपूर्ण जनउभार उपमहाद्वीप के छोटे से इलाके तक सीमित नहीं रह गया है। आज यह जनता के बड़े हिस्से को प्रभावित करने वाला केन्द्रीय मुद्दा बन गया है जिसमें आदिवासी, दलित, किसान, मजदूर, मध्य वर्ग, राष्ट्रीयताएं या महिलाएं सभी शामिल हैं। इन खौफनाक शब्दों के खिलाफ आन्दोलन चल रहा है।

1.2 जनविकास का मॉडल का केन्द्रीय चालक बल साम्राज्यवादी और उसकी सहयोगी ताकतों द्वारा संचालित शोषणकारी विकास मॉडल के खिलाफ समझौताहीन जनप्रतिरोध पर आधारित है। इसके लिए जनता की राजनैतिक गोलबंदी अनिवार्य है। राजनैतिक गोलबंदी जनविकास मॉडल की धुरी और प्रेरक बल है।

1.3 जनविकास मॉडल के तहत जमीन और अन्य प्राकृतिक संसाधनों के स्वामीत्व पर कोई समझौता नहीं होगा और इन्हें बेचा नहीं जाएगा, क्योंकि ये जनता और उनके समुदाय के उत्पादन/उत्पादक शक्ति/ जीवन निर्वाह के साधन हैं। जनता की सम्पूर्ण संभावनाओं को उभारने के लिए, और बगैर दबाव-नियंत्राण के श्रम करने की जरूरत के मुताबिक श्रम को सचेत रूप से केन्द्र में रखने के लिए जनता के पास उपरोक्त संसाधनों के बारे में यह निर्णय लेने की असीमित पहलकदमी होनी चाहिए कि इन संसाधनों को मानव समाज के सम्पूर्ण भलाई के लिए किस तरह प्रयोग किया जाए।

1.4 विशिष्ट डोमेन के सिद्धान्त को पूर्णतया खारिज करना है जोकि अंग्रेजी औपनिवेशिक शासन ने औपनिवेश की प्रजा के लिए बनाई गई नीति है, और औपनिवेशिक आकाओं द्वारा स्थानीय अभिजातों को सत्ता हस्तांतरित करने के बाद भी यह भारतीय राजसत्ता की मूल नीति बनी रही है।

1.5 सम्पदा के लगातार समान वितरण की अन्तःनिर्मित व्यवस्था और श्रम का समाजीकरण जनविकास मॉडल का केन्द्रीय हिस्सा है।

1.6 जनविकास मॉडल क्रूर शोषणकारी ताकतों, जिसका नेतृत्व साम्राज्यवाद व उनके कारपोरेट घराने कर रहे हैं और स्थानीय धनाढ़यों और प्रतिक्रियावादी उनके सहयोगी हैं, के हमलें की खिलाफत में होने वाले जनता के संयुक्त संघर्ष के हिस्से के बतौर निर्मित होता है और यह स्थानीय जनता और उनके समुदाय की आवश्यकताओं के अनुरूप होता है।

1.7 जनविकास मॉडल यह सुनिश्चित करता है कि कोई भी इन्सान किसी भी तरीके से विस्थापित नहीं हो। जनता और समुदाय को जमीन, संसाधनों, सामाजिक वातावरण और सांस्कृतिक बसावटों से हटाया नहीं जाएगा।

1.8 जनविकास मॉडल राहत, पुर्नवास और मुआवजे की सोच को सिरे से खारिज करता है।

2. साम्राज्यवाद संचालित शोषणकारी विकास मॉडल की आलोचना

2.1 यह पिछले छः दशकों के दौरान विभिन्न सरकारों द्वारा शुरू की गई तथाकथित विकास नीतियों का परिणाम है - चाहे उस दौरान कांग्रेस ने एकल पार्टी के रूप में या अन्य लोगों के साथ मिलकर शासन किया हो या फिर विभिन्न गठबंधन मोर्चों ने मिलकर शासन किया हो। इनके द्वारा अपनाए गए इस विकास मॉडल ने शोषण और उत्पीड़न का ढ़ांचा ही खड़ा किया है, जिसने जनता के बहुसंख्यक हिस्से को दुर्गति और कलह की और धकेला है। आम जनता के लिए विकास चार खौफनाक शब्दों की हिंसा का पर्याय बन गया है।

2.2 विकास के इस नमुने में देश की बहुसंख्यक जनता की कोई हिस्सेदारी नहीं हैं। उन्हें हमेशा भूगतना पड़ा है। उन्हें प्रस्तावित स्टील कारखाने या सिमेंट कारखाने या खादान इलाके या बड़े बांधों के हौज इलाके से विस्थापित किया जाता है, या साम्राज्यवाद विकास मॉडल की अतिरिक्त को अधिकतम करने के लिए किए जा रहे हिंसक विस्तार में सस्ते और तुच्छ श्रमिक के रूप में चारे की तरह इस्तेमाल किया जाता है। विकास का यह मॉडल उनकी जिन्दगी और आजीविका को व्यवस्थित तरीके से खा जाता है और उनके सांस्कृतिक और सामाजिक जीवन निर्वाह के लिए खतरा बन जाता है। 1947 के बाद के शुरूआती दशकों में अधिकांशतः आदिवासियों और दलितों को विस्थापित किया गया था तो अब समाज के बड़े हिस्से को इस कन्वेयर बैलट पर चढ़ाया जा रहा है, जो जनता को गुमनामी के रसातल तक पहुंचा देगी। क्योंकि विकास के महारती प्रधानमंत्राी और वित्तमंत्राी के तोता रटंत वृद्धि-सुचकांक के अन्तिम ग्राफ में जनता को अत्यन्त तुच्छ समझा जाता है।

2.3 रोजगार के मुख्य स्त्रोत और अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी कृषि क्षेत्रा और लघु उद्योग 1947 के बाद सबसे ज्यादा गतिरूद्ध और विनाश के कगार पर हैं। देहाती इलाके में बढ़ती दरिद्रता ने जनता की बहुसंख्या को बेरोजगारी के चक्र में फंसा दिया है जिस कारण उनका जीवन निर्वाह मुश्किल होता जा रहे हैं। संक्षेप में, वर्तमान विकास का मॉडल अपने रूप और सार में पूंजी, मुख्यतः साम्राज्यवादी पूंजी व उसके घरेलू सहयोगियों के हितों की सेवा करता है जोकि मूलतः साम्राज्यवादी पूंजी के अधिकतम मुनाफे के हितों को सुनिश्चित करता है। आज फिल्म चलाने वाले महारतीऔर तकनीशियन बगैर पूंजी के विकास के बारे में सोच भी नहीं सकते हैं। अगर पूंजी है तो विकास होगा; अगर पूंजी नहीं है तो विकास नहीं होगा। इस तरह विकास उस पूंजी की प्रतिछाया बन गया है जोकि मुख्यतः घरेलू बड़ी पूंजी के साथ गठजोड़ करने वाली साम्राज्यवादी पूंजी है।

2.4 1947 के बाद अपनाए गए विकास माडॅल की यही लाक्षणिकता है। हमारे पास विदेशी मदद और विशेषज्ञता से बनाए गए बड़े बांधों के रूप में बड़े हाईडल प्रोजेक्ट हैं; विदेशी साहयता और तकनीक से निर्मित बड़े स्टील प्लांट हैं; उच्च उत्पादकता वाले बीजों को प्रोत्साहित करने के लिए बनाए गए फर्टीलाईजर प्लांट, जंगली प्राणी अभ्यारण्य, लाखों झोपड़पट्टीवासियों को विस्थापित कर बनाए गई गगनचुंबी इमारतें और मॉल हैं और यह सूची अन्तहीन है। अंतर्राष्ट्रीय पूंजी के सामनेे नतमस्तक होने के कारण ऐसा माहौल पनपा जिसमें कई स्तरों पर असंतुलन और असामंजस्यता पैदा हो गई। देहाती और शहरी क्षेत्रों में; कृषि क्षेत्रा और औद्योगिक क्षेत्रा में; लघु उद्योग और बड़े उद्योगों में; स्थानीय खोजों और बड़ी तकनीकों में; वास्तविक उत्पादक अर्थव्यवस्था और सेवा क्षेत्रा में; संगठित श्रम और असंगठित श्रम की विशाल सेना के बीच; पूंजी के ज्यादा संकेन्द्रण वाले क्षेत्रों और बहुत अधिक विषम बाजार वाले क्षेत्रों के बीच, अवसर मिलनेे की बात तो छोड़ ही दी दीजिए; जातियों; क्षेत्रों और अन्ततः अमीर और गरीब के बीच पूर्णतया असंतुलन है।

2.5 बड़े बांध और बड़े उद्योगों जैैसे विकास के आधुनिक मंदिरोंके दिनों से शुरू होकर उच्च उत्पादकता वाले बीजों, निर्यात प्रोत्साहन जोन (ईपीजेड) के काल से होते हुए विशेष आर्थिक क्षेत्रा (एसईजेड), तटीय गलियारा (कास्टल कारीडोर), राष्ट्रीय कृषि नीति के तहत कृषि का कारपोरेटीकरण और पर्यटन उद्योग ने उपरोक्त अंतर्विरोधों को इतना तीखा कर दिया है कि चार खौफनाक शब्दों के खिलाफ उठ रहे जनांदोलन वैकासिकराजसत्ता के मुख्य दुश्मन बन गए हैं।

2.6 विकास के इस मॉडल में जनता की कोई भूमिका नहीं है क्योंकि इस परजीवी विकास में जनता भुक्तभोगी है। सस्ते संसाधनों और श्रम को निचाड़ने के लिए पूंजी के अग्रगामी मार्च में मुनाफे को अधिकतम करने के लिए जनता की बहुसंख्या की भलाई के बारे में कोई चिंता नहीं की जाती। देहाती अर्थव्यवस्था का निर्दयी तरीके से, और छल करके किए जा रहे दोहन के कारण छुपा हुआ ढंाचागत विस्थापन हुआ है। लोगों पर थोपी गई भारी दरिद्रता के अलावा उसने पर्यावरण का भी अपूरनीय नुक्सान किया है।

2.6 भारत में और इसी तरह के देशों में राजसत्ता श्रम और संसाधनों के बेधड़क शोषण को बढ़ावा देने के लिए कैप्टिव बाजार के प्रावधान बनाने के ज्यादा प्रयास कर रही है। इस तरह के हालात में राजसत्ता के लिए जरूरी है कि जनता निःशक्त कर दिया जाए। वैकासिक राज्यकी जरूरत है कि वह अपनी बनाई सभी संस्थाओं की ताकत में कटौती को सुनिश्चित करे। इस प्रकार जनता के राय को कुछ अहमियत देनी वाली सभी संस्थाए अपक्षरित हो जांए। उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण की नीतियों को इतने आक्रामक तरीके से लागू करना गंभीर संकट से घिरी साम्राज्यवादी पूंजी के भारी निराशा को दर्शाता है। माल के लिए कैप्टिव बाजार के साथ-साथ सस्ते संसाधन और सस्ता श्रम साम्राज्यवादी पूंजी और इसकी प्रतिछाया वैकासिक राजसत्ताके लिए अत्यन्त आवश्यक हो गए हैं।

2.8 इसलिए जब जनता अपने संसाधन, जिन्दगी और आजीविका को सम्पूर्ण विनाश से बचाने के खिलाफ प्रदर्शन करती है तो राजसत्ता उसका जवाब हिंसक तरीके से देती है ताकि बहुराष्ट्रीय कारपोरेट और धनाढ़यों के फायदे के लिए बनाई गई लूट की योजना को अपनाने के लिए जनता को मजबूर किया जा सके। साम्राज्यवादी लूट के मॉडल की निराशा फिक्की की रिपोर्ट टास्क फोर्स रिपोर्ट आन नेशनल सक्यूरिटी एंड टेररिज्मके दिखाई देती है जिसमें इन चार खौफनाक खब्दों के खिलाफ लड़ाकू-प्रतिरोध को राष्ट्र के खिलाफ जंग के रूप मे देखा गया है। उसने आदिवासियों के साथ हो रहे भेदभाव और शहरी सम्पन्नता के फलों के देहाती क्षेत्रा में न पहुंच पाने को चिन्हित करते हुए इनके हल के रूप में सभी फासीवादी सैन्य हमलें करने को रेखांकित किया है। साथ ही निजी गुंडा गिरोह बनाने और उन्हें हथियारबंद करने की आवश्यकता पर भी जोर दिया गया है।

3. जनविकास का मॉडल: परिभाषा, प्रकृति और दायरा

3.1 जनता के बहुसंख्यक तबके के नजरिए वाले विकास का मॉडल पूंजी के व्यापक, शोषणकारी और फूट ड़ालने वाले हमलों से निर्णायक दूरी बनाकर रखे। इसमें जनता के बहुसंख्यक हिस्से के प्राथमिक हितों का ध्यान रखा जाता है। जनविकास के माडॅल में जल-जंगल-जमीन-खनिज आदि संसाधन जनता व समुदाय के होते हैं। जनविकास का माडॅल सबसे ज्यादा जनतान्त्रिाक होना चाहिए जोकि समानता और न्याय के मूलभूत सिद्धांतों को इस माडॅल का मुख्य गुण बनाकर ही सम्भव है।

3.2 जनविकास माडॅल जनता के व्यापक हिस्से की जरूरतों में से पैदा हुआ है। इसका मतलब है कि जनता निड़रता से अपनी जरूरतें बतानें में सक्षम हो। इन जरूरतों की उपयुक्त और स्पष्ट अभिव्यक्ति की गारन्टी तभी सम्भव है जब लोग व्यापक पैमाने पर राजनैतिक गोलबंद हों, जो साम्राज्यवाद और उसकी सहयोगी ताकतों से स्वतंत्रा हो। जनविकास माडॅल के विकास, क्रियाशीलता और फैलाव के लिए जनता की व्यापक पैमाने पर निरन्तर गोलबंदी अनिवार्य है। इस तरह जनविकास मॉडल में जनता की व्यापक पैमाने पर गोलबंदी करने के साथ-साथ पूंजी के शोषणकारी, उत्पीड़क और फूट ड़ालने वाली प्रकृति के खिलाफ संघर्ष छेड़ना होगा। इनमें से दूसरा तरीका अपनाने के बाद ही जनता की उत्पादक क्षमता को खोला जा सकता है।

3.3 जनविकास माडॅल में सभी निर्णय जनता द्वारा जमीन स्तर पर स्वयं लिए जाने चाहिए। जनता खुद जानती है कि किस तरह का विकास उनके हित में है और कौन सा नुक्सानदायक है। अपने भविष्य के बारे में निर्णय लेना जनता का अविजातिय अधिकार है और वे ही इस बारे में सबसे सही निर्णय ले सकते हैं। इसके लिए उन्हें अपना वर्तमान और भविष्य अपने हाथ में लेना होगा और इसकी लगाम धनाढ़यों और उनके एजेंटों के हाथ से छीननी होगी।

3.4 जनविकास मॉडल जनता के सचेतन प्रयास और जनता की कमान में ही लागू किया जा सकता है, जोकि स्थानीय और उच्च स्तर पर जनता की सरकार बनाकर ही सुनिश्चित किया जा सकता है। इससे मेहनतकश लोगों के विभिन्न वर्गाें से मिलकर बने आम जनता के संसार में बदलाव आएगा। इसके तहत खेती की उत्पादकता में सुधार होने, सहकारी संस्थाओं के निर्माण, आपसी सहयोग वाली सोसाइटियां बनने, स्थानीय संसाधनों को उपयुक्त उपयोग, स्थानीय उत्पादों के बंटवारे, पोलट्री फार्म, सुअर पालन, मछली पालन, और अन्य उत्पादक गतिविधियों की स्थापना करने से जनता की जिन्दगी में काफी सुधार आएगा। जनविकास मॉडल में जनता की पहलकदमी के जरिए कृषि, शिक्षा और संस्कृति, स्वास्थय और समाज कल्याण, सुरक्षा, आर्थिक मामले, न्याय, जंगल और जनसम्पर्क जैसे रोजमर्रा के कार्यों में समुचित ध्यान दिया जाएगा। केवल इसी तरीके से चौतरफा विकास सुनिश्चित किया जा सकता है और समाज और पर्यावरणीय तंत्रा के विनाश को प्रभावी तरीके से रोका जा सकता है।

3.5 हम राजसत्ता प्रायोजित विकास के मॉडल में देख ही चुके हैं कि इसमें श्रम का अवमूल्यन करने, और खेतों व फैक्ट्रीयों में काम करने वाले मेहनतकश लोगों को अलगाव में डालने का हर सम्भव प्रयास किया जाता है। जनता के रोजमर्रा के श्रम की सृजनात्मक सम्भावनाओं के पूर्नउभार के लिए जनविकास मॉडल में उपयुक्त सिद्धांत बनाना केन्द्रीय कार्यभार बन गया है। जनविकास मॉडल में श्रम की केन्द्रीयता को पुनः स्थापित करने के लिए कल्पित विकास-पहलकदमियां व्यापक तौर पर विकेन्द्रीत होनी चाहिए, जिसमें स्थानीय संसाधनों की उपलब्धता के साथ-साथ क्षेत्रा-विशेष में उपलब्ध संसाधन की स्थानीय श्रम पर पड़ी छाप का भी ख्याल रखना होगा, क्योंकि वहां उत्पादक श्रम में स्थानीय नई खोजें भी उपलब्ध होगी। इस तरह की विकेन्द्रीकृत जनयोजना के आधार पर ली जाने वाली विकास-पहलकदमियां जनता के व्यापक हिस्से की अधिकतम भागेदारी सुनिश्चित करेगी और विकास योजनाओं में तथाकथित महारत’(एक्सपर्ट) की भूमिका को खत्म कर सकती है या घटा सकती है। स्थानीय संसाधन-आधार और उपलब्ध श्रम के साथ सामंजस्य स्थापित करके संसाधन-आधार की विविधता पर जोर देने से यह जनता की उत्पादक क्षमताओं को खोलने के लिए आधार का काम करेगा।

3.7 स्थानीय उपलब्ध तकनीकी ज्ञान को प्रयोग करने के अलावा जनविकास मॉडल को प्रोत्साहित करने वाला केन्द्रीय मूल्य है- संसाधनों और विकास के फलों का समुदाय के चौतरफा विकास के लिए बंटवारा। यह बंटवारा किसी की कीमत पर नहीं होता है और न यह संसाधनों को खराब करने, या उनके बेलगाम व अपूरनीय शोषण के आधार पर किया जाता है। इस प्रकार जनता के चौतरफा विकास के लिए जनविकास मॉडल सभी स्थानीय ज्ञान व्यवस्थाओं का जनतान्त्रिाकरण करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा।

4 जमीन और अन्य संसाधनों का वितरण

4.1 जनविकास मॉडल में जमीन के मूलभूत सवाल पर भी नीति है। जमींदारों, विभिन्न सरकारों, प्रशासनिक इकाईयों, खाली जमीन, प्लांटेशन की विभिन्न श्रेणीयों के अंतर्गत जंगल की जमीन और धार्मिक संस्थाओं की सारी जमीन को स्थानीय भूमिहीनों और गरीब किसानों और खेतीहर मजदूरों, जोकि विभिन्न उत्पीड़ित जातियों, वर्गों, आदिवासियों, घुमंतु कबिलों और चरवाह समुदायों से सम्बंधित हैं, में जमीन जोतने वाले कीके नारे पर पूर्नवितरित की जानी चाहिए। सभी जातियों और वर्गों में जमीन पर महिलाओं का समान अधिकार होना चाहिए। जनविकास मॉडल मध्यम किसानों और सभी मेहनतकश लोगों के सारे कर्जों को माफ करता है। साथ ही यह कृषि सहकारिता के विकास को बढ़ावा और प्रोत्साहन देते हुए खेती में वृद्धि करने और कृषि उत्पादों के लिए आवश्यक सुविधाओं को सुनिश्चित करता है। इस प्रकार खेती को नींव बनाकर जनविकास मॉडल सशक्त देहाती और जनोन्मुखी औद्योगिक अर्थव्यवस्था निर्माण के लिए आगे बढ़ेगा।

4.2 जनविकास मॉडल के तहत जंगल की जमीन सहित सारी जमीन, चाहे वो खेती योग्य है या वर्तमान में परती है, और इस जमीन के नीचे का सारा खनिज स्थानीय आदिवासी और गैर-आदिवासी जनता का होता है। बाहरी लोगों जैसे शोषणकारी सरकारें, इनकी प्रशासनिक इकाईयां और छोटे-बड़े कारपोरेट घराने द्वारा जमीन अधिग्रहण पूर्णतया प्रतिबन्धित है।

5 जन सहकारिता

5.1 यह सब सूदखोरों, किरायाखोरों, दलालों, शोषणकारी व्यापारियों और वणिकों के शोषण को साथ-साथ खत्म किए बगैर सम्भव नहीं है। जनता की कमान में बनी जन सहकारी संस्थाएं जनता को आवश्यक पूंजी उपलब्ध करवाएगी। इन सहकारी संस्थाओं को व्यापार और व्यवसाय को अपने नियंत्राण में लेना होगा। वर्तमान अर्थव्यवस्था में जनसहकारी संस्थाएं साम्राज्यवाद-पक्षीय राजसत्ता का औजार है। सहकारी संस्थाओं की वास्तविक सम्भावनाओं को वर्तमान सरकार ने रोक दिया है क्योंकि इस तरह की पहलकदमी से जनता की उत्पादक क्षमताओं को उन्मुक्त करना राजसत्ता के साम्राज्यवाद पक्षीय बाजार हितों के खिलाफ जाता है। इसलिए वर्तमान वैकासिय राजसत्ताकी सहकारी संस्थाएं जनविरोधी हितों के नौकरशहाना नियंत्राण के शिंकजें में फंसी निर्जीव संस्थाएं मात्रा हैं।

5.2 स्थानीय जनसहकारी संस्थाएं जनविकास मॉडल का केन्द्रीय भाग हैं जोकि सहकारी संस्थाओं के व्यापक नेटवर्क के जरिए स्थानीय सहकारी संस्थाओं में पैदा हुए सरप्लस (अतिरिक्त) का अकालग्रस्त, सुखाग्रस्त या कम उत्पादक स्थानों और क्षेत्रों में न्यायसंगत वितरण सुनिश्चित करेगा।

6. आदिवासी जनता को व्यापक और वास्तविक स्वायत्ता

6.1 जनविकास माडॅल पूर्ण विकास और विशेष नीतियां लागू करने और किसी भी रूप में गैर-आदिवासियों के अतिक्रमण से रक्षा करने के मद्देनजर सभी आदिवासी समुदायों की व्यापक और पूर्ण स्वायत्ता सुनिश्चित करेगा। यह जनता को जंगल और जंगल उत्पादों, चाहे वो छोटे हों या बड़े, पर सम्पूर्ण अधिकार देगा। यह साम्राज्यवाद और उनके स्थानीय एजेंटों के द्वारा प्राकृतिक संसाधनों के दोहन पर रोक लगाएगा। यह आदिवासियों की भाषा और संस्कृति के विकास के लिए काम करेगा।

6.2 वास्तविक स्वायत्ता के औजार को उन सभी पिछड़े क्षेत्रों और जनता तक विस्तारित किया जाएगा जहां भी गैर आदिवासी जनता को इसकी जरूरत है।

7. जनता की मूलभूत जरूरतों को अनुरूप उद्योग

7.1 व्यवहार्य और जरूरत आधारित औद्योगिक अर्थव्यवस्था के हमारे दृष्टिकोण के अनुसार जनविकास मॉडल में कृषि क्षेत्रा और व्यापक पारिस्थितिकी तन्त्रा के साथ सामंजस्य बैठाते हुए लघु उद्योगों को संरक्षण दिया जाएगा और मध्यम उद्योगों को रूगुलेट किया जाएगा तथा सहकारिता विकसित करते हुए घरेलू उद्योगों और हस्तशिल्प को बढ़ावा देने में मदद की जाएगी। हस्तशिल्प, मजदूरों और कारीगरों के स्थितियों को सुधारना जनविकास मॉडल की प्राथमिकता होगी।

7.2 जनविकास मॉडल छः घंटे के कार्यदिवस का सपना देखता है जिसमें मजदूरी में बढ़ोतरी की जाएगी। यह ठेकेदारी श्रम-व्यवस्था और बालश्रम को खात्मा करेगा, सामाजिक सुरक्षा और काम की सुरक्षित परिस्थितियां उपलब्ध करवाएगा और समान काम के लिए समान वेतन की गारंटी करके लिंग आधार पर मजदूरी में भेदभाव को खत्म करेगा।

7.3 उपरोक्त कृषि, व्यवसाय और औद्योगिक नीतियों को जमीनी और उ$पर के स्तर पर जनता के सत्ता संगठन का निर्माण करके ही पूर्णतया लागू किया जा सकता है, जोकि वर्तमान कर-व्यवस्था का खात्मा करके सभी भारी करों और पूर्नभूगतान को खत्म कर देगा और एक व्यवस्थित, साधारण और प्रगतिशील कर व्यवस्था लागू करेगा।

7.4 औद्योगिक और कृषि अर्थव्यवस्था का विकास करते हुए पर्यावरणीय नियम और पारिस्थतिकी सन्तुलन पर मूलभूत जोर देना होगा। जंगल संरक्षण और कृषि उत्पादकता में सुधार के लिए सचेतन जनांदोलन करना चाहिए।

8. जाति का निर्मूलन और सामाजिक शोषण का खात्मा जनविकास मॉडल के जमने की प्राथमिक शर्त है

8.1 जोतने वाले को जमीन के आधार पर जमीन का वितरण करके और देहाती इलाकों में भूमिहीन और गरीब किसानों- जिसमें बड़ा हिस्सा दलितों, आदिवासियों और अन्य उत्पीड़ित जातियों में से है जोकि विस्थापन के सबसे अधिक शिकार बने हैं- के नेतृत्व में नई सत्ता बनाकर जनविकास मॉडल जाति-व्यवस्था के खात्मे की प्रक्रिया शुरू करेगा। तब तक यह दलितों और सभी सामाजिक उत्पीड़ित जातियों के उत्थान के लिए नौकरियों, शिक्षा व अन्य अवसरों में और संसाधनों के पुर्नवितरण में आरक्षण सहित विशेष प्रावधान सुनिश्चित करेगा।

9. काम का अध्किार

9.1 यह काम के अधिकार को मूलभूत अधिकार सुनिश्चित करेगा और बेरोजगारी को खत्म करने के लिए कदम उठाएगा। जनविकास मॉडल बेरोजगारी भत्ता व सामाजिक बीमा लागू करेगा और जनता के बेहतर जीवन स्तर को सुनिश्चित करेगा। पूर्व विस्थापित लोगों का समुचित पूर्नवास सुनिश्चित करेगा। लोगों के बेहतर जीवन स्तर में सांमती परम्पराओं, मूल्यों, रीति-रिवाजों और दृष्टिकोणों से मुक्ति भी शामिल है जिसके लिए जनता की सरकार सचेतन प्रयास करेगी और इस तरह जनता की विशेषतौर पर महिलाओं की पहलकदमी को उन्मुक्त करेगी।

9.2 विस्थापन के खिलाफ प्रतिरोध विकसित करते हुए जनविकास मॉडल को छोटी अवधि के लिए जन-क्षेत्रों का निर्माण करके लागू करना होगा जिनके पास समझौताविहीन जन कमान में बातचीत करने की ताकत हो तथा जो उचित संस्थागत विधि द्वारा निर्मित हो और जो नये ढांचों मे समानता आधारित सम्मानजनक स्थिति को सुनिश्चित करे। जिसमंे यह सम्भावना हो कि राजसत्ता से लड़ते समय वह व्यापक जनता के लिए थोड़े समय के लिए राहत कार्य शुरू कर सके। यह अंतर-क्षेत्रिय सामन्जस्य वाली न्यायोचित मजदूरी नीति की और परम्परागत कुशलताओं को सम्मानपूर्वक संज्ञान में लेते हुए इसकी संचालक ताकत मानेगा।

10. पितृसत्ता का खात्मा

10.1 जनविकास मॉडल में महिलाओं के सभी प्रकार के भेदभाव का खात्मा शामिल है और यह पुरूष प्रधानता और पितृसत्ता का खात्मा करने का प्रयास करेगा। जनविकास मॉडल सुनिश्चित करेगा कि महिलाएं घरेलू काम तक सीमित न रहे और यह सामाजिक उत्पादन और राजनीति, रक्षा, सरकार, प्रशासन और अन्य गतिविधियों में उनकी भागेदारी सुनिश्चित करेगा। जनता की सरकार सार्वजनिक लाउ$ंडरी, शिशुघर और सार्वजनिक रसोईघर चलाएगी। सम्पत्ति में महिलाओं के समान हक की गारंटी की जाएगी। महिलाओं के साथ की जाने वाली असमानता को तेजी से खत्म करने के लिए विशेष नीतियों को प्रोत्साहित किया जाएगा। महिलाओं के उत्थान के लिए आरक्षण सहित विशेष प्रावधानों को प्रोत्साहित किया जाएगा। यह वेश्यावृति में लगी महिलाओं का पुर्नवास करेगा और उन्हें सामाजिक पहचान दिलाएगा।

10.2 शादियां परस्पर प्यार और सहमति के आधार पर होंगी। शादी की उम्र की सीमा 21 साल होगी। जनविकास मॉडल में बालविवाह की इजाजत एकदम नहीं दी जाएगी। इसमें विधवा विवाह को बढ़ावा दिया जाएगा। महिलाओं को गर्भपात का अधिकार दिया जाएगा।

10.3 यदि पति और पत्नी दोनों तलाक चाहते हैं तो उन्हें तलाक दे दिया जाएगा। यदि उनमें से कोई एक तलाक की मांग करता है तो आवश्यक जांच-पड़ताल करने के बाद निर्णय सुनाया जाएगा। इसमें सांझी सम्पत्ति का बंटवारा समान रूप से किया जाएगा। बच्चों के मामले में आदमी को जिम्मेवारी का दो तिहाई हिस्सा और महिला को एक तिहाई हिस्सा वहन करना होगा। तलाक के बाद सांझे कर्ज को चुकाने की जिम्मेवारी आदमी की होगी।

11. शिक्षा

11.1 जनविकास का तकनीकी ज्ञान मुख्यतः विकेन्द्रीकरण के सिद्धांत पर आधारित होगा। सभी देशज तकनीकी ज्ञान को प्रोत्साहित किया जाएगा और वह इस मॉडल के केन्द्र में होगा।

11.2 शिक्षा इस मामले में केन्द्रीय भूमिका अदा करती है। जनविकास का मॉडल हर स्तर पर मुफ्त शिक्षा, नर्सिंग, स्वास्थय सेवाओं और सभी बच्चों की सुरक्षा की गारंटी करेगा। जनविकास मॉडल का निरन्तर प्रयास रहेगा कि बच्चों का पालन-पोषण डेमाक्रेटिक माहौल में हो। जनविकास मॉडल मातृभाषा में शिक्षा देना सुनिश्चित करेगा और साथ ही छात्रों की चाहत के अनुसार अन्य भाषा सीखने का प्रबन्ध भी करेगा। आदिवासियों सहित अन्य हाशिए पर जीने वाले समूहों की भाषा को विकसित करना का प्रयास होगा, उनकी मातृभाषा में पाठय पुस्तकें प्रकाशित की जाएंगी ताकि सबसे ज्यादा उत्पीड़ितों और वंचितों की संस्कृति को फलने फूलने का अवसर मिले।

11.3 जनविकास का मॉडल वैज्ञानिक और डेमाक्रेटिक अन्तःवस्तु वाली शिक्षा व्यवस्था की कल्पना करता है जो जनोन्मुखी होने के कारण डेमाक्रेटिक, आत्मनिर्भर भारत की जरूरतों के अनुसार उत्पादन से सम्बन्ध रखेगी।

11.4 जनता के व्यापक हिस्से के आन्दोलन के रूप में जनविकास आन्दोलन लोकप्रिय विज्ञान और शिक्षा के ऐसे आन्दोलन के बगैर नहीं बनाया जा सकता जोकि लोगों को संसार के बारे में, जिसमें वो रहते हैं, अन्याय के बारे में, जिसे वे झेलते हैं और भविष्य के बारे में, जिसे बनाना चाहते हैं, चिन्तन करने और सवाल खड़ा करने के लिए प्रोत्साहित करता है। यह केवल उस समाज में सम्भव है जो प्रभुत्व, उत्पीड़न और शोषण के सभी रूपों से मुक्त हो।

12. सामाजिक सुरक्षा

12.1 जनविकास मॉडल के तहत व्यवस्था अपंग, बुजुर्ग, अनाथ, मानसिक रूप से विकलांग और अन्य अपंगताओं से ग्रसित लोगों को उपयुक्त आर्थिक व सामाजिक सुरक्षा और स्वस्थ सामाजिक-सांस्कृतिक वातावरण उपलब्ध करवाएगा। यह जनोन्मुखी मैडिकल व्यवस्था की शुरूआत करेगा जो अच्छी सेहत सुनिश्चित करेगी और सभी को विशेषतः मजदूरों, किसानों और अन्य मेहनतकश लोगों के मुफ्त इलाज का प्रबन्ध करेगी। मैडिकल रखवाली के मामले में विविध और सम्पन्न देशज ज्ञान को जनसमर्थन और व्यवहार के जनतान्त्रिाकरण के माध्यम से बढ़ावा दिया जाएगा।

12.2 जनविकास मॉडल में एक न्यायपूर्ण न्यायिक प्रक्रिया और व्यवस्था के बारे में सोचना चाहिए जिसका उद्देश्य सभी विवादों को प्रगतिशील, डेमाक्रेटिक और जनोन्मुखी दृष्टिकोण के आधार पर सुधारने का हो।

13. भाषा, राष्ट्रीयता और संस्कृति

13.1 जनविकास मॉडल सभी राष्ट्रीयताओं और आदिवासी समुदायों की भाषाओं को समान स्थान दिए बगैर सम्भव नहीं हो सकता है। जनविकास मॉडल को सफल बनाने के लिए इसे बगैर लिपी वाली भाषाओं के विकास पर जोर देना चाहिए। जनविकास मॉडल विभिन्न राष्ट्रीयताओं की सभी भाषाओं के सामंजस्यपूर्ण सह-अस्तित्व के जरिए सफल होता है जिसमें कोई भाषा राष्ट्र भाषा, सम्पर्क भाषा या अन्य किसी भी रूप में दूसरी भाषा पर प्रभुत्व कायम न करे।

13.2 केवल इसी तरह का विकेन्द्रीकृत मॉडल स्थानीय संस्कृतियों और उनके अभिव्यक्तियों को सफलतापूर्वक विकास और समृद्धि सुनिश्चित कर सकता है। इस प्रकार जनता/समुदाय की भाषा और संस्कृति का सवाल मूलतः जनता के जिन्दगी जीने के तरीके और आजीविका से जुड़ा हुआ है। किसी का अस्तित्व और भविष्य का सवाल इस बात से तय होता है कि उसका अपने भविष्य पर कितना नियंत्राण है।

14. क्षेत्रिय सन्तुलन

14.1 किसी भी हाथ/क्षेत्रा/समुदाय/वर्ग के पास सरप्लस (अतिरिक्त) का संचय विकास को रोकता है। उस सरप्लस के सफलतापूर्वक बंटवारे पर जोर दिया जाना चाहिए जिसे मानव श्रम के कई तरीकों द्वारा पैदा किया गया है। जनविकास मॉडल के माध्यम से पिछड़े इलाकों को विकसित करने के विशेष प्रयास करके क्षेत्राीय असंतुलन का खात्मा करने के प्रयास करने चाहिए। इस संदर्भ में विभिन्न राष्ट्रीयताओं में नदी के पानी के बंटवारे, राज्य सीमा निर्धारण जैसे मसलों को मित्रातापूर्वक सुलझाने पर जोर देना चाहिए।

15. धार्मिक अल्पसंख्यक

15.1 जनविकास मॉडल धार्मिक आधार पर सभी सामाजिक असमानताओं और धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ गलत व्यवहार का खात्मा करेगा। उनके सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए विशेष नीतियों बनाई जाएगी। राजनैतिक उद्देश्यों के लिए धर्म के प्रयोग को रोक कर वास्तविक धर्मनिरपेक्षता सुनिश्चित की जाएगी। यह धार्मिक मामलों में राजसत्ता की दखलांदाजी का खात्मा करेगा। जनविकास मॉडल का प्रयास अंधविश्वसों और वहम का खात्मा कर एक वैज्ञानिक और तार्किक दृष्टिकोण को बढ़ावा देना का होगा और साथ ही यह सभी तरह के कट्टरतावाद का विरोध करेगा। यह धर्मांधता का खात्मा करेगा।

16. राष्ट्रीय और भाषाई अल्पसंख्यक

16.1 इस प्रकार जनविकास मॉडल राष्ट्रीयताओं और राष्ट्रीय अल्पसंख्यकों को समानता और आत्मसम्मान देने वाले देश और जनता के लिए प्रयास करेगा। साम्राज्यवादी पूंजी और इसके स्थानीय सहयोगियों की सेवा में लगी वैकासिय राजसत्तापूर्वात्तर बिजली ग्रीड नामक नीतिगत पैकेज लागू करने का प्रयास कर रही है जिसका उद्देश्य प्रभुत्व जमाना है या विकास को जनविद्रोह-दमन के रूप में प्रयोग करना है। 1,00,000 मैगावाट बिजली पैदा करने की कुल क्षमता वाले कम से कम 168 बड़े बांधों का निर्माण होगा। यह इस क्षेत्रा की संवेदनशील पारिस्थितिकी के लिए ही खतरनाक नही होगा, बल्कि यह इस क्षेत्रा के विभिन्न लोगों की सांस्कृतिक, राजनैतिक, सामाजिक विशिष्टताओं को भी खत्म कर देगा। ये लोग उन क्षेत्रों से भी विस्थापित हो जाएंगे जो उनके आत्मनिर्णय के अधिकार के लिए संघर्ष का केन्द्र बिन्दु हैं। इस प्रक्रिया मे उनकी बहुत सारी देशज-संस्थाएं नष्ट हो जाएंगी। इन क्षेत्रों में बाजार की पहुंच को बढ़ावा देने के लिए एक सुपर-हाइवे बनाने की योजना है जोकि उत्तर बंगाल से शुरू होकर बर्मा सीमा तक बनाया जाएगा और अन्त में दक्षिणपूर्व एशिया के बाजारों से उसे जोड़ दिया जाएगा। यह इस क्षेत्रा के विभिन्न लोगों और इसके संसाधनों को लूटने की नई आक्रामक नीति है। जनविकास मॉडल के लिए संघर्ष को सशक्त बनाकर ही पूर्वोत्तर के लोग साम्राज्यवादी हमलें से पूर्णतया और निर्णायक तौर पर छुटकारा पा सकते हैं। राष्ट्रीय अल्पसंख्यकों को विभिन्न स्तरों पर स्वायत्ता की मांग करने का अधिकार होना चाहिए चाहे वे गांव से लेकर राज्य स्तर तक हो या जहां वे बहुसंख्यक हों। यह स्वायत्त इलाके जन डेमोक्रेटिक व्यवस्था के अनुसार होन चाहिए और अल्पसंख्यक जनता की आकांक्षा को अभिव्यक्त करते हों। राष्ट्रीय अल्पसंख्यक को उनके आवासीय इलाके की प्रतिनिधि सभाओं में और जन सभाओं में जनसंख्या के अनुसार प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए।

17. डेमोक्रेटिक संस्कृति

17.1 उत्पीड़न, दूर्व्यवहार, प्रभूत्वव या शोषण से रहित समान उत्पादन और वितरण पर आधारित समाज में मूल्यों को पतित, सामंती, औपनिवेशिक और साम्राज्यवादी संस्कृति से समझौताविहिन लड़ाई करनी चाहिए। साथ ही सांस्कृतिक विरासत के धर्मनिरपेक्ष, वास्तविक डेमोक्रेटिक और वैज्ञानिक तत्वों, जिन्हें इतिहास ने उत्पीड़ित जनता को सौंपा है, के क्षितिज का विस्तार करना चाहिए।

साथियों

जनविकास मॉडल को आधा-अधुरे रूप में लागू करने का प्रयास का असर उल्टा होगा क्योंकि वर्तमान मॉडल एकीकृत है, जिसमें प्रत्येक पहलू एक-दूसरे से जुड़ा हुआ है और सभी साम्राज्यवादियों और उनके देशी गुर्गों के लिए अधिकतम मुनाफे के दोहन में लगे हैं। साम्राज्यवादी लूट और मुनाफे को अधिकतम करने की आवश्यकताओं से संचालित विकासऔर विकास नीतिके वर्तमान रास्ते को पूर्णतया खारिज करना ही एकमात्रा रास्ता है। जैसा कि देख सकते हैं कि जनविकास का मॉडल साम्राज्यवाद संचालित विकास के मॉडल, जिसे भारतीय राजसत्ता 1947 से ही लागू कर रही है और हाल में उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण की नीतियों के रूप में जोरदार तरीके से लागू कर रही है, से एकदम अलग है। सार रूप में जनविकास के मॉडल को पूंजी, इसके उत्पादन और रोजमर्रा की जिन्दगी में इसके पूर्नउत्पादन के तर्क को राजनैतिक, वैचारिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक तौर पर खारिज करना होगा। जनता पर और उसकी व्यापक उत्पादक व सृजनात्मक सम्भावनाओं पर पूर्णतया निर्भर करते हुए जनविकास मॉडल आत्मनिर्भरता पर जोर देता है। जनता को केन्द्र में रखने वाली और मुख्यतः उसकी पहलकदमी पर निर्भर करने वाली इसी प्रकार की नीति ही चार खौफनाक शब्दों- विस्थापन, वंचना, विनाश और मौत का खात्मा कर सकती है।

बिहार के देहात में शोषण पर समझदारी: एक नोट

वित्त और भूमंडलीकरण के युग में भी देहाती भूस्वामीत्व भारत के राजनीतिक अर्थशास्त्रा में केंद्रीय बिंदु बना हुआ है। सोमपेटा हो या नारायणपटना, सुरक्षित भूस्वामीत्व की आकांक्षा ही जनप्रतिरोध का मुख्य पहलु बना हुआ है। दूसरी तरफ, बिहार में काश्तकारी सुधार का विरोध ओर लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार की जांच कर रहे अमीर दास आयोग को भंग करना दर्शाता है कि बड़ा भूस्वामी अपने विशेषाधिकारों को बनाने रखने के लिए कितना व्यग्र है। भारतीय जनता का तकरीबन 60 फीसदी हिस्सा गांवों में रहता हैं और भारत के कुल श्रमबल का तकरीबन साठ फीसदी हिस्सा कृषि कार्य में लगा हैं। यह शायद साफतौर पर दिखाई देता है कि भारत के राजनैतिक अर्थशास्त्रा के ढांचे और गति को सुनिश्चित करते समय जमीन के सवाल की अनदेखी नहीं की जा सकती। 70 के दशक से भारतीय राजनीतिक अर्थशास्त्रिायों में बड़ा सवाल रहा है देहाती भारत में शोषण की प्रकृति क्या है? शिक्षाविदों और कार्यकर्ताओं के बीच सबसे बड़ा सवाल यह रहा है कि ग्रामीण भारत में शोषण का स्वरूप क्या है? खासतौर से औपनिवेशिक समय से भारत में चले आ रहे अर्धसामंती शोषण को पूंजीवादी उत्पादण प्रणाली ने किस हद तक बदला किया है। शोषण के ढ़ांचे में परिवर्तन कीे वास्तविक संभावनाएं हैं क्योंकि विगत चालीस सालों के दौरान भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ और ज्यादा एकीकृत हुई है। पहली बड़ी लहर सत्तर के दशक में हरित क्रंाति के रूप में आई और बाद में उससे भी बड़ी लहर नब्बे की दशक में उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरणके जरिए आई। अब हमारे पास यह दर्शाने के लिए पर्याप्त साक्ष्य हैं कि हरितक्रंाति भारत के पिछवाड़े में शोषण के तरीकों में बदलाव करने में असफल रही।( विशेष्षतौर पर ग्रामीण बिहार के संदर्भ में देखें - केडब्लू, और एसी को )

लेकिन हम सुधार की दूसरे लहर के बारे में क्या कह सकते हैं। क्या इसने वास्तव में ग्रामीण परिदृश्य में शोषण के ढंाचें में महत्वपूर्ण परिवर्तन कर दिया है। यहां दो बातों का ध्यान रखना है। पहला, इस नोट की इच्छा उपरोक्त सवालों का जवाब देने की नहीं हैं, जिसके लिए अन्य बातों के अलावा व्यापक और सघन मैकरोइकानामिक विशलेषण और केस अध्ययन की जरूरत है (उदाहरण के लिए क्रमशः बीबी और एस; दोनों ही पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली के पक्ष में तर्क करते हैं)। जबकि हाल के विगत कुछ सालों में भस्वामीत्व से संबंधित कुछ तथ्यों पर व्यापक स्तर पर बहस हुई हैं (देखे बीबी और वीकेआर) जैसे कि भूमि के टुकड़े होने में बढ़ोतरी, कृषि अतिरिक्त (सरप्लस) में घटोतरी, और एक गतिरूद्ध श्रमबल का कृषि कार्य में लगे रहना। कुछ अन्य हमारा ध्यान से हट गया है। इस छोटे से नोट में मैनंे कुछ अन्य तथ्यों को उजागर करने का प्रयास किया है। दूसरा यह नोट मुख्यतः बिहार से मिले तथ्यों पर आधारित होगा और भारत के असमान विकास के मद्देनजर मै अपने दावें को सर्वमान्य बनाने को कोई प्रस्ताव नहीं रखुंगा।

प्रस्तावना के रूप में, मैं भारत के राजनीतिक अर्थशास्त्रा के संदर्भ में भूमि के प्रश्न की महत्ता चर्चा करूंगा।

उत्पादन संबध् बहस: एक रूपरेखा

शोषण की अर्धसामंती और पूंजीवादी प्रणाली के बीच मुख्य अंतर को मैं दोहराने का जोखिम उठाकर चिन्हित कर रहा हुॅं। (मैं अर्धसामंती की जगह पूर्व पूंजीवादी शब्द का प्रयोग भी करूंगा)

1. पूंजीवादी समाज उत्पादन के साधनों के सुरक्षित स्वामित्व के साथ-साथ पूंजी के स्वामी और मजदूरों के बीच सुरक्षित अनुंबध को सुनिश्चित करते हैं। स्वामीत्व और अनुंबध राज्य मशीनरी द्वारा लागू किए जाते हैं। जबकि अर्धसामंती समाज में अस्पष्ट स्वामित्व अधिक होता है जोकि पूर्व-पूंजीवाद में उपजे सामाजिक सोपान और नियमों द्वारा निर्देशित अनौपचारिक अनुबंधों पर आधारित होता है। भारत के संदर्भ में जाति-प्रथा एक महत्वपूर्ण निर्धारक है। पूर्व पूंजीवादी अनुबंध को स्थानीय ताकत के ढांचे पर निर्भर विभिन्न तरीकों से लागू किया जाता है। स्थानीय ताकत के ढांचे में निजी सेनाओं, स्थानीय सरकारी एजेंटों आदि शामिल हैं।

2. पूंजीवादी शोषण प्रणाली में मजदूर सामाजिक राजनीतिक तौर पर स्वतंत्रा होते हैं। इसका मतलब है कि संबंधों में व्यक्तिगत निर्भरता और पितृसत्तात्मकता के सभी रूप गायब हो जाते हैं। (लेनिन, रूस में पूंजीवाद का विकास) यानि पूंजी के स्वामी पर मजदूर की निर्भरता एकदम आर्थिक होती है। अर्धसामंती ढांचे में शोषित निचला हिस्सा कुलीन वर्ग पर सामाजिक-राजनीतिक और आर्थिक दोनों ही रूप से अधीन होता है।

व्यापक राजनीतिक-आर्थिक संरचना में जमीन की स्थिति कहां है? शुरूआत में, पूर्व-पूंजीवादी ग्रामीण समाज में आर्थिक प्रभुत्व उत्पादक निवेश पर नियंत्राण करके कायम किया जाता है। उत्पादक निवेश में जमीन मुख्य होती है।(परन्तु वही एकमात्रा मुख्य नहीं होती। भूजल, कर्ज, व्यापार आदि भी इसके अन्य उदाहरण हैं) वास्तविक स्वामी यानि शोषक कुलीन इन उत्पादक निवेश को चयनित रूप से उपलब्ध करवा कर आसामी बनाता है। अतिरिक्त यानि सरपल्स लगान, ब्याज भूगतान, अर्ध-बंधक किस्म के निश्चित श्रम आदि के रूप में लिया जाता है। प्रत्यक्ष दबाव एक बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह सरप्लस शोषक को हस्तांतरित करने में प्रत्यक्ष दबाव कोई छोटी भूमिका अदा नहीं करता। इसके साथ ही इससे दबे-कुचले वर्गों की सामाजिक-राजनीतिक निर्भरता और पराधीनता में भी बढ़ोतरी होती है। इस तरह सरप्लस का दोहन स्थानीय आर्थिक और राजनैतिक प्रभूत्व का इस्तेमाल करके किया जाता है। पूंजीवादी संरचना में आर्थिक स्तर पर, सुरक्षित भूस्वामीत्व और सुरक्षित काश्तकारी अधिकार उत्पादकता और भू-संरक्षण में बढ़ोतरी के लिए दूरगामी निवेश को बढ़ावा देते हैं जैसा कि असुरक्षित अधिकारों में नहीं होता। इस तरह उपजा हुआ सरप्लस दूसरे मालों के लिए ही नया बाजार पैदा नहीं करता बल्कि यह इसके एक हिस्से को उत्पादक निवेश में भी लगाता है। इसतरह वह पूंजीवाद की प्रसिद्ध गतिशीलता एक घटक को भी पैदा करता है। सामाजिक-राजनीतिक आयाम में, सुरक्षित और कानूनी स्वामीत्व और उत्पादक निवेश की उपलब्धता, प्रत्यक्ष दबाव की प्रसांगकिता को खत्म करते हुए, जनसंख्या के व्यापक हिस्सों में जनतान्त्रिाक अधिकारों का बोध भी विकसित करता है। यह सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य में ग्रामीण कुलीनों की दबे-कुचले वर्गों पर पकड़ ढीली कर देता है।

य़द्यपि उपरोक्त विभेद एक मार्गदर्श हो सकता है परन्तु वास्तविकता उपरोक्त वर्णित नमूना गुणों के एकदम समरूप नहीं भी हो सकती हैं। (यहीं क्षेत्रिय विशेषताओं को गौर करने के लिए व्यापक विशलेषण करेन की महत्ता है, जैसा कि पहले भी जिक्र किया गया है) इस चौखटे का आधार बनाकर मैं तर्क दूंगा कि बिहार के संदर्भ में पूर्व-पूंजीवादी शोषण प्रणाली के अभी भी मौजूद है।

पूंजीवादी शोषण प्रणाली के पक्ष में तर्क

मै यहां इस मुद्दे पर पुरे साहित्य को पेश करने का इच्छुक नहीं हुं। मै अपने नोट से संबंधित पूंजीवादी प्रणाली की परिकल्पना के समर्थन में दिए गए कुछ बड़े तर्कों तक अपने को सीमित रखुंगा। पूर्ण विश्लेषण के लिए बीबी, यूपी, आरआरएस और दीपांकर बसु का लेख देखें।

1. भूमि मालिकाना:

पिछले कुछ दशाब्दियों में भूमि का विखंडण हुआ है। 1982 में स्वामीत्व का औसतन साईज तीन एकड़ था, जोकि सन 2003 में घटकर मात्रा दो एकड़ से भी कम रह गया। इसी दौरान भूमिहीन परिवारों की संख्या(जिनके पास एक एकड़ से कम जमीन है) कुल ग्रामीण परिवारों में 48 प्रतिशत से बढ़कर 60 प्रतिशत हो गई है। बीबी की रपट के अनुसार-

‘1992 से 2000 के मध्य हुए पूर्नसर्वेक्षण के अनुसार बिहार में भूस्वामीत्व के वितरण में बदलाव जमीन गवांने के रूप में चिन्हित किया गया जोकि सभी श्रेणियों और जातिय समूहों की औसत स्वामीत्व जोत के साईज से नापा गया था। जमीन का गवांना जमींदारों, बडे़ किसानों और खेतीहर मजदूरों में तेजी से हुआ; किसानों की मध्यम श्रेणी में सबसे कम जमीन गवाई गई।

2. मजदूर अनुबंध्

1981 से 1999 के बीच किए गए जमीनी अध्ययन के आधार पर आरआर ने बिहार के पुर्णिया जिले में श्रम अनुबंधों की तुलता की है। उन्होंने 1981 से तुलना कर देखा कि सबसे बड़ा बदलाव स्थायी श्रम में गिरावट है। हकीकत में सभी खेतीहर मजदूर अब अस्थाई दिहाड़ीदार हैं। बहुत से स्थाई हलवाहे 1981 के बाद गायब हो गए। बटाईदारी (शेयर काश्तकारी) के मामले में भी मैकरो आंकड़े यही रूझान दिखाते हैं। पाया गया है कि पट्टे पर जमीन लेने वाले परिवारों का प्रतिशत 1971-72 के 25 फीसदी से कम होकर 2003 में 12 प्रतिशत रह गया। और इन सालों में सभी काश्तकारी अनुबंधों में बटाईदारी का अनुपात लगभग एक जैसा रहा जोकि तकरीबन 40 फीसदी था।

इन रूझानों पर आधार करके यह तर्क किया जा सकता है कि पुराने जमींदारों पकड़ तेजी से ढ़ीली पड़ती जा रही है और अमीर और मध्य वर्गीय किसान उनकी जगह ले रहे हैं (पहला बिंदू)। जमींदारों के विपरित, जोकि राजनीतिक-आर्थिक दबाव बनाने के कई प्रत्यक्ष तरीकों से सरप्लस का दोहन करता था, धनी किसानों के सरप्लस दोहन की प्रधान प्रणाली मुक्तउजरती-श्रम की संस्था के जरिए काम करती है (दूसरा बिंदू), जोकि पूंजीवाद का विशेष गुण है। दूसरे कारक जैसे कि गैर-भूमि निवेश पर नियंत्राण, कर्ज, पूंजी निर्माण, निवेश, पलायन इस विश्लेषण से जुड़ंे है और इनमें से कुछ उपरोक्त संदर्भों में प्रयोग किए गए हैं।

मैं तुलनात्मक से नए आंकडों का प्रयोग कर पूर्न-परीक्षण करूंगा।

आंकडों का स्रोत

मैंने भूमिहीनता और सामाजिक न्याय: भूमि वितरण में असमानता का मूल्यांकन और भूमि सुधार का परिपेक्ष्यपुस्तिका जोकि बिहार में भूमि मापन पर आधारित है, से ज्यादातर तथ्य लिए हैं।

क्योंकि मेरे पास सारे आकंडें नहीं हैं (अधिक सूक्ष्म विश्लेषण सम्पूर्ण आंकड़ों के साथ सम्भव है), मेरा विश्लेषण पुस्तिका से मिले तथ्यों तक सीमित है। इसके साथ अन्य गौण स्त्रोतों संपुरक के रूप में प्रयोग किए जाएंगें।

मैं तथ्य जुटाने की प्रक्रिया पर को कुछ विस्तार से चर्चा करूंगा क्योंकि मैं मानता हूं कि निम्नलिखित कारणों से यह आंकडें गुणवत्ता में मेक्रो तथ्यों से और कुछ मैकेनिकल केस स्टडी से अधिक अच्छे हैं।

1. यद्यपि इसकी राजनीति मूलतः सुधारवादी है1, आंकड़ें एकत्रा का उद्देश्य सामूहिक कार्रवाई का आधारबनाना है, न कि आधिकारिक या एकेडमिक कार्य के लिए इसका इस्तेमाल करना।

2. आंकड़ा एकत्राीकरण और संकलन की प्रक्रिया में भूमिहीन ग्रामीणों ने बढ़़़चढ़ कर हिस्सा लिया है।

2007 में एकता परिषद और प्रेक्सिस ने निम्नलिखित पांच जिलों में भूमि-मापन का काम किया था।

जमूई में सिकंदरा प्रखंड के 14 गांव, नवादा के काउवाकोल प्रखंड के सात गांव, गया के बांकेबाजार प्रखंड के छह गांव, पश्चिम चंपारण के बाघा प्रखंड के दस गांव, पटना के पालीगंज प्रखंड के एक गांव। लेकिन पुस्तिका में पटना के आंकड़ों का कोई उल्लेख नहीं मिला। प्रत्येक गांव के तीन या चार ग्रामीणों के सामूहिक ज्ञान के आधार पर गांव का व्यापक भूमि-मापन किया गया। जमीन के प्रत्येक टूकड़े या प्लाट से जुड़ी सभी महत्वपूर्ण सूचनाओं जैसे - प्लाट के वर्तमान नियंत्राक का नाम और जाति; नियंत्राण का अन्तराल और आधार, प्लाट की गुणवत्ता और सिंचाई की स्थिति, कानूनी मालिक का नाम आदि का एकत्रा किया गया। इस तरह तैयार किए गए नक्शे को सत्यापित करने के लिए ग्रामीणों के जुटान के सामने रखा गया। अंतिम रिकार्ड को संकलित करने से पहले सरकारी नक्शों से मिलान किया गया।

शोषण की प्रणाली को समझना: आंकड़ों के आधर पर विशेषताओं का विश्लेषण

क. भूमि का अध्ग्रिहण

यद्यपि जमींदारी को कानूनन तौर पर 1952 में खत्म कर दिया गया था, परन्तु बिहार की प्रभूत्वशाली जातियों ने कानूनी छिद्रों और लागू करने में कमजोरी का फायदा उठाकर जमीन पर नियत्रांण कायम रखा। इस प्रक्रिया में जमींदारों के मध्यस्थों और स्थायी काश्तकार (ओक्यूपैंसी टिन्नैट), जोकि मुख्यतः उ$ंची जातियों के थे, मध्य जातियों की उ$परी परत में से कुछ को फायदा मिला। (उदाहरण के लिए देखें - बीएन) बाद में लिबरेशन (सितंबर 2002, में पश्चिम चम्पारण में भूमि संघर्ष एक नए मुकाम पर) ने पश्चिम चंपारण के बड़े भूस्वामीयों सूची दी।

इसका एक अंश यहा है -

उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले का निवासी मारकंडे पांडेय एक खूंखार भू-माफिया है, जिसने चिउताहन गंाव में 250 एकड़ भूमि पर गैरकानूनी तरीके से कब्जा किया हुआ है। उसके पास केवल 6.5 एकड जमीन का कानूनी कागजात हैं.... दिलीप वर्मा, मधु वर्मा, ओम वर्मा और उनके पारिवार कायस्थ समुदाय के हैं। वह भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद के रिश्तेदार हैं। उनके कब्जे में लगभग 5,000 एकड़ जमीन हैं, जोकि जिले के शिकारपुर, गउनाहा, मेंनातअनर और रामगढ़ प्रखंड में फैली हुई है।

जमीन का नक्शा बनाते समय देखा गया कि समाज के प्रभावशाली वर्ग के लोगों ने जमीन के एक बडे हिस्से पर कब्जा किया हुआ है। इस वर्ग द्वारा गैर-कानूनी तरीके से कब्जाई गई जमीन के औसतन आकार 2.4 एकड है जोकि कुल अतिक्रमित जमीन का दस फीसदी है। यदि हम उच्च जाति की औसतन कानूनी जोतों (गया में 4.44 एकड़ और जमूई में 3 एकड़) से इसकी तुलना करें तो पता लगता है कि गैर-कानूनी कब्जे का आकार कानूनी जोत के बराबर ही बड़ा है। इसके विपरीत, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं पिछडे़ वर्गो का औसत कब्जा क्रमशः 0.46, 0.85, 0.98 एकड़ है। ईपी ने दिखाया कि निचली जातियों के कब्जा करने के उदाहरण आजीविका कमाने की मजबूरी के कारण मिलते हैं, जोकि उनकी बेतहाशा भूमिहीनता से साफ जाहिर होता है। हालांकि दस्तावेजीकरण नहीं किया गया है परन्तु यह साफ है कि निचली जातियों के कब्जाधारी अतिक्रमित जमीन पर गैर-कानूनी कब्जा केवल तभी बनाए रख सकते हैं जब वे इलाके के जमींदारों और बड़े किसानों के साथ संरक्षक-आसामी के संबंध बनाए रखें।

$ंची जातियां कैसे नई जमीनों पर कब्जा करती हैं और अपने कब्जे को बनाए रखती हैं। इपी ने इसका एक मुख्य स्रोत चिन्हित किया है कि सरकार द्वारा भूमिहीनों को आवंटित जमीन पर वे प्रभावशाली नियंत्राण कायम करने में अक्षम हैं। धनी किसानों और जमींदारों ने प्रशासन, पुलिस और न्याय पालिका के साथ मिलकर उन जमीनों पर कब्जा कर लिया है। ऐसे मामलों में सरकारी दस्तावेजों में और इसलिए मैक्रो आंकड़ों में भी भूमिहीन परिवारों को भूमि के नए स्वामी के रूप में दिखाया गया है जबकि जमीन पर प्रभावशाली नियंत्राण अभी भी जमींदार/ धनी फार्मर का हैं। कई मामलों में दाखिल-खारिज’(जमीन आवंटन की रसीद) अभी तक कानूनी मालिकों केे पास नहीं मिली। इपी ने एक खास मामले का जिक्र किया है। भू हदबंदी कानून की घोषणा के बाद महंत रामधन के 81 एकड़ को विभाजित कर भूमिहीनों में बीच बांट दिया गया। हालांकि सरकार ने जमीन लेने वालों को आज तक किसी प्रकार प्राप्ति रसीद जारी नहीं की है। जहां लोगों को जमीन के कागज मिले हैं वहां धनी किसान और जमींदारों ने ताकत के दम पर गैर-कानूनी कब्जा कायम रखा है। लिबरेशन ने अप्रैल 2004 में यूपी के सोनभद्र जिले पर जांच रपट प्रकाशित की।

इन गांवों के हमारे दौरे और लोगों से बातचीत के बाद पता लगा कि यहां भूमिहीनों और भूस्वामियों के बीच विवाद की मुख्य वजह सिंचाई के जमीन पर कब्जा बनाए रखने को लेकर है जिसे एक दशक पूर्व गरीब भूमिहीनों को बांटा गया था। उनके पास दिए गए कागजों के अनुसार जमीन पर कानूनी अधिकार दिया गया, लेकिन भूस्वामियों ने नंगे रूप में ताकत का प्रयोग कर व अपराधियों की मदद लेकर गरीबों को जमीन में घुसने से रोक रखा है।

इपी ने यह भी पाया कि भूमिहीनता और प्रभावशाली तरीके से जमीन पर मालिकाना हक कायम करना खासतौर से अनुसुचित जाति और अनुसुचित जनजातियों के परिवारों के लिए बहुत कठिन है। मैं इस मुददे को अगले भाग में उठाउंगा। लेकिन इस भाग के तथ्य दिखाते हैं कि किस तरह जमीन पर नियंत्राण अभी भी ग्रामीण बिहार में गैर-पूंजीवादी तरीके से शोषण के मुख्य आधार बना हुआ है।

ख. दलितों और आदिवासियों में भूमि हीनता

ग्रामीण वर्गीय संरचना को समझने के लिए भूमिहीनता महत्वपूर्ण कारक है क्योंकि भूमिहीन भूमिहीन परिवार खेतीहर मजदूर वर्ग का कोर बनने की उम्मीद की जाती है। उनके पास अपनी श्रम-शक्ति के अलावा किसी भी उत्पादन के साधन का मालिकाना नहीं होता है। और इसलिए वे ही सबसे ज्यादा धनी तयशुदा भूस्वामियों के साथ उजरती श्रम का अनुबंध करते हैं। वे ही अच्छी मजदूरी की खोज में सबसे अधिक पलायन करते हैं, जिसके कारण राजनीतिक नियंत्राण की पकड़ ढ़ीली पड़ जाती है (देंखें आरआर केस स्टडी ) मैक्रो आंकड़ें दर्शाते हैं कि कुछ दशकों में भूमिहीनता (एक एकड़ से कम वाले भूस्वामीत्व) बहुत तेजी से बढ़ी है और इनके परिवार में आय का एक बड़ा हिस्सा मजदूरी के रूप में आ रहा है।

हालांकि यह पूंजीवादी शोषण के रूप में दिखने वाला बदलाव इसमें अंतर्निहित गैर-पूंजीवादी नियंत्राण कई चैनलों को छुपा लेता हैं। उदाहरण के लिए, 1991 जनगणना के अनुसार बिहार में महिला खेतीहर कार्यबल में 33 प्रतिशत कृषक थी, जबकि 60 प्रतिशत खेतीहर मजदूर थी। लेकिन क्या इसे उजरती श्रम संबंधों के निशान के रूप में माना जाए। इसके विपरीत, महिला खेतीहर मजदूरों का शोषण जाति-वर्ग उत्पीड़न की कसौटी बन गया है।(इसका काफी दस्तावेजीकरण हुआ है, उदाहरण के लिए जीके देखें) 90 के दशक की शुरूआत में मध्य बिहार में जनसंहार पर पीयूडीआर की शानदार जांच रिपोर्ट का एक गद्य दे रहा हूं।

ज्यादातर लोगों की नजरों में उत्पीड़क वो है जोे मजदूरी कम लेने का दबाव बनाकर, भूमि पर कब्जा देने से इन्कार करके, और अपमानजनक व्यवहार करके अपने मजदूरों के आत्मसम्मान को रौंदता हो। मजूदर का नियोक्ता जो इस प्रकार का घृणित चरित्रा का होता है, उसे अन्य नियोक्ताओं से अलग चिन्हित किया जाता है और स्थानीय तौर पर जमींदार या सामंत कहा जाता है। एक आदमी के जमींदार या सांमत के रूप में पहचान केवल एकमात्रा जोत के आकार से ही नहीं जुड़ी होती। सार में, यह पहचान श्रम को भाड़े पर उठाने की क्षमता रखने वाले एक विशेष किस्म की आक्रामक मानसिकता पर टिकी है, जिसे कि सामंती विचार माना जा सकता है, जोकि आमतौर पर श्रम और विशेष रूप से महिलाओं के आत्मसम्मानके प्रति निर्दयी, व धमकाने वाले रवैये में झलकता है।

इसलिए, शोषण की प्रणाली का निर्धारण करने के लिए केवल सांख्यिकी आंकड़ों में खेतीहर मजदूरों के अनुपात, ‘औपचारिकमजदूरी अनुबंध के फैलाव आदि पूरी तरीके से भ्रमित कर सकती हैं।

इसलिए भूमिहीनों के आंकडे़ देखना ही पर्याप्त नहीं है। भूमिहीनता के कारणों को जानना भी जरूरी है। इस संदर्भ में भूमिहीन परिवारों की जातिय संरचना को समझना लाभदायक होगा। जैसा कि पहले बताया गया है ईपी ने जाति के आधार पर जोतों के आंकडे एकत्रित किए हैं। देखा गया है कि प्रभावी भूमिहीनता जातिय सोपान से बहुत ज्यादा जुड़ी हुई है। उदाहरण के लिए पश्चिम चंपारण में 96 प्रतिशत एससी एकदम भूमिहीन हैं, जबकि एसटी में 80 प्रतिशत, ओबीसी में 64 प्रतिशत और उच्च जातियों में केवल 26 प्रतिशत ही भूमिहीनता की शिकार हैं। इसी तरह से गया जिले में 70 प्रतिशत एससी परिवार भूमिहीन हैं, जबकि उच्च जातियों में 40 प्रतिशत भूमिहीन है। यह आंकडे बमुश्किल चौंकाते हैं क्योकि जमीन हमेशा उ$ंची जातियों के नियंत्राण में रही है। लेकिन यह दर्शाता है कि उजरती श्रम का मतलब पूंजीवादी अनुबधं की जरूरी नहीं है। धनी किसान और भूमिहीन मजदूर के मध्य एक औपचारिक श्रम अनुबंध में उच्च जातिय भूस्वामी और दलित भूमिहीन के बीच उत्पादन संबंध निहित होता है। इस संबंध की उत्पत्ति गैर-पूंजीवादी हैं और इस ऐतिहासिक तौर पर आर्थिक और गैर-आर्थिक नियंत्राण के तौर पर साथ साथ व्याख्यायित किया जा चुका है। इसलिए यह माना जा सकता है कि अर्धसामंती जातिय उत्पीड़न शोषण के पूंजीवादी उजरती श्रम के दिखावटी रूप के पीछे छिप सकता है।

क्योंकि मेरा विश्लेषण आंकडों की उपलब्धता के कारण सीमित है। यहां मैं कुछ प्रश्न रखता हूं जिसका और अधिक विश्लेषण करने की जरूरत है। भूमि विखंडण के अलावा भूमिहीनता का मुख्य कारण क्या है? बढ़ती भूमिहीनता में दलित और आदिवासी परिवारों का योगदान कितना है? क्या ऐसा हुआ है कि उच्च जातिय भूमिहीनों में बढ़ोतरी मुख्यतः किसानों/जमींदारों का ठेकेदार, व्यापारी आदि तब्दिल होकर व्यवसायिक विविद्यीकरण का परिणाम है, न कि कृषक से खेतीहर मजदूर बनने के कारण ऐसा हुआ है? किस हद तक पलायन ने उच्च जातियों की दलित/आदिवासियों मजदूरों/ कृषकों पर सामाजिक-राजनीतिक पकड़ ढ़ीली की है?

ग. छिपी काश्तकारी

बिहार के बंटाईदारों के फैलाव को कई अध्ययनों ने देखा हैं। डी. बंधोपाध्याय, जिन्होनें बिहार काश्तकारी सुधार कानून (जिसे अस्वीकार कर दिया गया) का निर्माण किया था, ने माना कि बटाईदारी व्यवस्था पर कोई विस्तृत आंकडों उपलब्ध नहीं हैं। एक संकीर्ण अनुमान के अनुसार बिहार में करीब बोने योग्य जमीन का 35 फीसदी हिस्सा बटाईदारी व्यवस्था के तहत है। यह आंकड़े एनएसएसओ के अनुमान के उलट हैं जिसके 2003 के अनुमान के अनुसार कुल भूस्वामित्व का में से मात्रा 7 प्रतिशत ही पट्टे पर लिया गया और कुल भूस्वामित्व का मात्रा 3 फीसदी ही पट्टे पर दिया गया।

ईपी की भूमि खाके के अनुसार इस असंगता का मुख्य कारण काश्तकारी की रिपोर्ट बहुत कम होना है। देखा गया है कि अध्ययन किए गए सभी जिलों में बटाईदारी एक सामान्य परिघटना है। उदाहरण स्वरूप पुस्तिका में जमुई जिले के लाचूर गांव की जमीन का खाका उपलब्ध है। इस गांव के कुल क्षेत्राफल 717 एकड़ में से 295 एकड़ यानी तकरीबन 40 प्रतिशत बटाईदारी के तहत बोया जाता है। यद्यपि इन प्लाटों का आकार-वर्ग के हिसाब से वितरण नहीं दिया गया है, लेकिन यह बताया गया है कि यह 295 एकड़ जमीन 56 परिवारों में सीमित है। इसमें से 33 उच्च जाति और मध्य जाति से हैं, जबकि 18 पिछड़े जाति के हैं।

निम्नलिखित गद्य में बटाईदारी पर तथ्यों को पुस्तिका ने सार दिया है। यह गद्य खुद ही सारी कहानी कह देता है और बटाईदारी के माध्यम से होने वाले क्लासिक अर्धसामंती शोषण प्रणाली की अटलता को साफतौर पर दर्शाता है।

बटाईदारी के अधिकतर मामलों में, भूस्वामीयों और बटाईदारों के बीच अनुबंध बिहार काश्तकारी अधिनियम, 1985 के प्रावधानों का उल्लंघन करते प्रतीत होते हैं। सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात है कि राज्य में बटाईदारी से जुड़े अधिकतर मामलों में मौखिक अनुबंध किया गया है और कोई भी भूस्वामी लिखित अनुबंध नहीं करना चाहता और या इस अनुबंध का औपचारिक रूप देना चाहता है। प्रचलित परम्पराओं के अनुसार बटाईदार बोई गई जमीन की उपज का आधा हिस्सा भूस्वामी को देता है, जोकि इसके लिए प्रस्तावित कानूनी सीमा का उल्लंघन है। इससे भी ज्यादा, भूस्वामी यह सुनिश्चित करता है कि बटाईदार जमीन के किसी टुकड़े यानि प्लाट को निरन्तर लम्बे समय तक ने बोए ताकि बटाईदार के नाम में भूस्वामित्व के कानूनी हस्तांतरण की सम्भावनाओं को पहले ही खत्म किया जा सके।

इसी संदर्भ में एसी ने एक महत्वपूर्ण अवलोकन किया है-

छोटे कृषक (परिवारों का तकरीबन उन्नीस फीसदी) , जोकि मुख्यतः दलित हैं, भी जमीन नियंत्राण की संरचना में हाशिए पर हैं। छोटे कृषक के परिवार के मेहनत करने वाले सदस्य खेतीहर मजदूर के रूप में खुद को भाड़े पर देने के लिए मजबूर हैं। क्योंकि उनकी बोने योग्य जमीन की मात्रा उनका जीवन चलाने के लिए अपर्याप्त है। इस प्रकार यद्यपि इस वर्ग के कुछ सदस्य खुद को छोटा किसानबताते हैं, कुछ बटाईदार बताते हैं और अन्य साधारण रूप से खुद को मजदूरी करने वाला बताते हैं।

इस प्रकार ऐसा लगता है कि कम से कम ग्रामीण बिहार में कृषक और बटाईदार की श्रेणीयां अपनी प्रकृति में काफी बदलती रहती हैं। वास्तव में यह माना जा सकता है कि इन श्रेणियों के मामले में एक परिवार की स्थिति साल दर साल बदलती रहती है। हालांकि यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि एक समाज में शोषण की प्रणाली एक मूलभूत श्रेणी है और यह आधिकारिक श्रेणियोंकी तरह नहीं बदल सकती है। इसलिए यदि ग्रामीण बिहार में बटाईदार अर्ध सामंती शोषण का शिकार होता है तो यह खेतीहर मजदूरों के लिए बहुत भिन्न नहीं हो सकता है।

घ. अनुबंध् पर अमल

जमीन के गैर-कानूनी तरीके से कब्जे और अनौपचारिक बटाईदारी का प्रसार हमारे सामने अनुबंध के अमल के महत्वपूर्ण मुद्दे को हमारे सामने लाता है। ऐसे दिखता है कि ऐसे अनौपचारिक अनुबंधों में राज्य मशीनरी जैसे कि प्रशासन, पुलिस व न्यायालय के माध्यम से लागू नहीं किए जा सकते, जोकि पूंजीवादी शोषण प्रणाली की विशेषता है। इसकी अपेक्षा ये अनुबंध जमींदारों/धनी किसानों राज्य मशीनरी से संरक्षक-आसामी के संबंध विकसित करके लागू किए जाते हैं। पूंजीवादी अमल के विपरीत, इसके लिए दोहन किए गए श्रम के सरप्लस (अतिरिक्त) के हिस्से को राज्य की एजेंसीयों के साथ निजी तौर पर बांटना होता है। (ऐसी एजेंसीयों की राज्य फंडिंग सबसे ज्यादा होती है। ये राज्य-एजेंट प्रत्यक्ष दबाव से सरप्लस दोहन के अपने खुद के परजीवी रूप भी रखते हैं, परन्तु यह इस अध्ययन के क्षेत्रा में नहीं आता है)

इस तरह का निष्कर्ष पहले हुए अन्य अध्ययनों ने भी निकाले हैं। एसी ने लिखा है

इस प्रकार के उदाहरण पुष्टि करते हैं कि कि गांवों में प्रभावशाली वर्ग और राज्य के स्थानीय अंगों के बीच एक सहजीवी संबंध है। वास्तत में, गांव के कुलीन द्वारा हड़पे की जाने के कारण बिहार में राजसत्ता वास्तव में जमीनी स्तर के ताकत में सन्निहित है।

इपी में इस प्रकृति की कई घटनाओं का दस्तावेजीकरण किया है। निम्निलिखित केस इसका एक ठेठ उदाहरण है। पश्चिम चंपारण के नया गांव और काथफोड़ गांवांे शारदा देवी की 5.75 एकड़ हदबंदी सरप्लस के तहत 12 अनुसूचित जाति के परिवारों को बांटी गई थी, लेकिन पारसनाथ यादव ने बंाटी गई जमीन पर कब्जा कर लिया। य़द्यपि सर्किल कोर्ट ने गरीब परिवारों के पक्ष में फैसला सुनाया, लेकिन पिछले 12 सालों में कोर्ट के आदेश का पालन करने केे लिए कोई आधिकारिक कार्रवाई नहीं की गई।

निष्कर्ष

मेरा जोर है कि इस लेख का उद्देश्य किसी निश्चित निष्कर्ष पर पहुंचना नहीं था। मै इन मुख्य बिन्दूओं का सार निकालना चाहता हूं।

1. गौण स्रोतों के आधार पर ऐसा लगता है कि ग्रामीण बिहार के कई हिस्सों में गैर-पूंजीवादी शोषण ही अभी भी प्रधान रूप है। हालांकि, इस लेख में भूस्वामीत्व से संबंधित कुछ प्रासंगिक कारकों पर ही चर्चा की गई है और इस अनुमानित अटकलों को स्थापित करने या (अस्वीकृत करने) के लिए आगे अध्ययन की आवश्यकता है।

2. सकल आंकडे़ (यही आलोचना मैकनिकल केस स्टडी पर लागू होती है) व्यापक परिपेक्ष्य देने में मददगार तो होते हैं, परन्तु शोषण की प्रणाली को निर्धारित करने के लिए विश्वसनीय नहीं हैं। चूंकि मैक्रो आंकड़े सरकारी उद्देश्य के लिए एकत्रा किए जाते हैं (जो क्रांतिकारी तरीके से समाज के बदलाव की जरूरत के ठीक विपरित होते हैं) वे अनौपचारिक स्वामित्व, अनुबंध और जमीनी स्तर पर उनके अमल की बारीकियों को पकड़ने में असफल रहते हैं जोकि संरक्षक-आसामी के सम्बन्ध के अंतर्निहित घटक हैं और इस प्रकार गैर-पूंजीवादी शोषण हैं।

3. क्योंकि अर्धसामंती शोषण के पर्याप्त हिस्सा गैर-आर्थिक चैनल के जरिए निर्मित होता है, जोकि शुद्ध आर्थिक अंग से अतिरिक्त होता है, इसमें शोषण की संरचना को पूर्ण रूप से समझने के लिए संबंधित ग्रामीण समाज के गैर-आर्थिक सामाजिक सोपान, विकास के ऐतिहासिक रास्ते, और क्षेत्रिय विशिष्टताओं जैसे कारकों को देखना अत्यंत महत्वपूर्ण है।

टिप्पणी

1. शोषण के पूरे महल को गिराए बगैर जमीन सुधार व काश्तकारी सुधार की सीमाओं को पश्चिम बंगाल के उदाहरण से सबसे अच्छी तरह समझा जा सकता है। यह सीपीआई (एम) के लिए राजनीतिक एवं आर्थिक नियंत्राण का हथियार बन गया।

2. अतिक्रमण का आकार वर्ग के अनुसार वितरण ज्यादा कारगर रहता, लेकिन बुकलेट में इस तरह के आंकडे उपलब्ध नहीं हैैं।

23, जून 2011

अनिरबन कर

संदर्भ:

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