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बुधवार, 31 जुलाई 2013

अभिव्यक्ति के खतरे: ‘अभिव्यक्ति और प्रतिबंध’ पर खुला पत्र - वरवर राव

         मुक्तिबोध की हजारों बार दुहराई गई पंक्ति को एक बार फिर दुहरा रहा हूं:
 उठाने ही होंगे अभिव्यक्ति के खतरे/
 तोड़ने ही होंगे/
 गढ़ और मठ/
सब  ।’‘
कुछ साल पहले की बात है जब मेरे साथ अखिल भारतीय क्रांतिकारी सांस्कृतिक समिति और अखिल भारतीय जनप्रतिरोध मंच में काम करने वाले क्रंातिकारी उपन्यासकार और लेखक विजय कुमार ने आगरा से लेकर गोरखपुर तक हिंदी क्षेत्र में प्रेमचंद की जयंती पर एक सांस्कृतिक यात्रा आयोजित करने का प्रस्ताव दिया था। यह हिंदूत्व फासीवाद के उभार का समय था। जो आज और भी भयावह चुनौती की तरह सामने खड़ा है। उस योजना का उद्देष्य उभर रही फासीवाद की चुनौती से निपटने के लिए प्रेमचंद को याद करना और लेखकीय परम्परा को आगे बढ़ाकर इसके लिखाफ एक संगठित सांस्कृतिक आंदोलन को बनाना था।
जब ‘हंस’ की ओर से प्रेमचंद जयंती पर 31 जुलाई 2013 को ‘अभिव्यक्ति और प्रतिबंध’ विषय पर बात रखने के लिए आमंत्रित किया गया तो मुझे लगा की अपनी बात रखने का यह अच्छा मौका है। प्रेमचंद और उनके संपादन में निकली पत्रिका ‘हंस’ के नाम के आकर्षण ने मुझे दिल्ली आने के लिए प्रेरित किया। इस आयोजन के लिए चुना गया विषय ‘अभिव्यक्ति और प्रतिबंध’ ने भी मुझे आकर्षित किया। जब से मैंने नक्सलबाड़ी और श्रीकाकुलम के प्रभाव में लेखन और सांस्कृतिक सक्रियता में हिस्सेदारी करना षुरू किया तब से मेरी अभिव्यक्ति पर प्रतिबंध लगता ही रहा है। यह स्वाभाविक था कि इस पर विस्तार से अपने अनुभवों को आपसे साझा करूं।
मुझे ‘हंस’ की ओर से 11 जुलाई 2013 को लिखा हुए निमंत्रण लगभग 10 दिन बाद मिला। इस पत्र में मेरी सहमति लिए बिना ही राजेंद्र यादव ने ‘छूट’ लेकर मेरा नाम निमत्रंण कोर्ड में डाल देने की घोषणा कर रखी थी। बहरहाल, मैंने इस बात की  तवज्जो नहीं दिया कि हमें कौन, क्यों और किस मंषा से बुला रहा है? मेरे साथ मंच पर इस विषय पर बोलने वाले कौन हैं?
आज दोपहर में दिल्ली में आने पर ‘हंस’ की ओर भेजे गए व्यक्ति के पास छपे हुए निमत्रंण कार्ड को देखा तब पता चला कि मेरे अलावा बोलने वालों में अरूंधती राय के साथ साथ अषोक वाजपेयी व गोविंदाचार्य का भी नाम है। प्रेमचंद जयंती पर होने वाले इस आयोजन में अषोक वाजपेयी और गोविंदाचार्य का नाम वक्ता के तौर पर देखकर हैरानी हुई। अषोक वाजपेयी प्रेमचंद की सामंतवाद-फासीवाद विरोधी धारा में कभी खड़े  होते नहीं दिखे। वे प्रेमचंद को औसत लेखक मानने वालों में से हैं। अषोक वाजपेयी का सत्ता प्रतिष्ठान और कारपोरेट सेक्टर के साथ जुड़ाव आज किसी परिचय का मोहताज नहीं है। इसी तरह क्या गोविंदाचार्य के बारे में जांच पड़ताल आप सभी को करने की जरूरत बनती है? हिंदूत्व की फासीवादी राजनीति और साम्राज्यवाद की जी हूजूरी मंे गले तक डूबी हुई पार्टी, संगठन के सक्रिय सदस्य की तरह सालों साल काम करने वाले गोविंदाचार्य को प्रेमचंद जयंती पर ‘अभिव्यक्ति और प्रतिबंध’ विषय पर बोलने के लिए किस आधार पर बुलाया गया!
मैं इस आयोजन में हिस्सेदारी कर यह बताना चाहता था कि अभिव्यक्ति पर सिर्फ प्रतिबंध ही नहीं बल्कि अभिव्यक्ति का खतरा उठा रहे लोगों की हत्या तक की जा रही है। आंध्र प्रदेष में खुद मेरे ऊपर, गदर पर जानलेवा हमला हो चुका है। कितने ही सांस्कृतिक, मानवाधिकार संगठन कार्यकर्ता और जनसंगठन के सदस्यों को मौत के घाट उतार दिया गया। हजारों लोगों को जेल की सलाखों के पीछे डाल दिया गया। अभी चंद दिनों पहले हमारे सहकर्मी गंटि प्रसादम् की क्रूर हत्या कर दी गई। गंटी प्रसादम् जनवादी क्रांतिकारी मोर्चा-आरडीएफ के उपाध्यक्ष, षहीद बंधु मित्र में सक्रिय सहयोगी और विप्लव रचियतल संघम् के अभिन्न सहयोगी व सलाहकार और खुद लेखक थे। विरसम ने उनकी स्मृति में जब एक पुस्तक लाने की योजना बनाया और इस संदर्भ में एक वक्तव्य जारी किया तब हैदराबाद से कथित ‘छत्तीसगढ चीता’ के नाम से विरसम, सचिव वरलक्ष्मी को जान से मारने की धमकी दिया गया। इस धमकी भरे पत्र में वरवर राव, प्रो. हरगोपाल, प्रो. षेषैया, कल्याण राव, चेलसानी प्रसाद सहित 12 लोगों को जान से मारने की चेतावनी दी गई है। लेखक, मानवाधिकार संगठन, जाति उन्मूलन संगठनों के सक्रिय सदस्यों को इस हमले में निषाना बनाकर जान से मारने की धमकी दी गई। इस खतरे के खिलाफ हम एकजुट होकर खड़े हुए और हमने गंटी प्रसादम् पर पुस्तक और उन्हें लेकर सभा का आयोजन किया। इस सभा के आयोजन के बाद एक बार फिर आयोजक को जान से मार डालने की धमकी दी गई। अभिव्यक्ति का यह भीषण खतरा साम्राज्यवादी-कारपोरेट लूट के खिलाफ अभियान, राजकीय दमन की खिलाफत और हिंदूत्व फासीवाद के खिलाफ गोलबंदी के चलते आ रहा है। यह जन आंदोलन की पक्षधरता और क्रांतिकारी आंदोलन की विचारधारा को आगे ले जाने के चलते हो रहा है।
हैदराबाद में अफजल गुरू की फांसी के खिलाफ एक सभा को संबोधित करने के समय हिंदूत्व फासीवादी संगठनों ने हम पर हमला किया और इसी बहाने पुलिस ने हमें गिरफ्तार किया। इसी दिल्ली में जंतर-मंतर पर क्या हुआ, आप इससे परिचित होंगे। अफजल गुरू के षरीर को ले जाने की मांग करते हुए कष्मीर से आई महिलाओं और अन्य लोगों को न तो जंतर मंतर पर एकजुट होने दिया गया और न ही मुझे और राजनीतिक जेल बंदी रिहाई समिति के सदस्यों को प्रेस क्लब, दिल्ली में बोलने दिया गया। प्रेस क्लब में जगह बुक हो जाने के बाद भी प्रेस क्लब के आधिकारिक कार्यवाहक, संघ परिवार व आम आदमी पार्टी के लोग और पुलिस के साथ साथ खुद मीडिया के भी कुछ लोगों ने हमें प्रेस काफ्रेंस नहीं करने दिया और वहां धक्कामुक्की किया।
मैं जिस जनवादी क्रांतिकारी मोर्चा का अध्यक्ष हूं वह संगठन भी आंध्र प्रदेष, उड़िसा में प्रतिबंधित है। इसके उपाध्यक्ष गंटी प्रसादम् को जान से मार डाला गया। इस संगठन के उड़िसा प्रभारी दंडो पाणी मोहंती को यूएपीए सहित दर्जनों केस लगाकर जेल में डाल दिया गया है। इस संगठन का घोषणापत्र सबके सामने है। पिछले सात सालों से जिस काम को किया है वह भी सामने है। न केवल यूएपीए बल्कि गृहमंत्रालय के दिए गये बयानों व निर्देषों में बार बार जनआंदोलन की पक्षधरता करने वाले जनसंगठनों, बुद्धिजीवितयों, सहयोगियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करने, प्रतिबंधित करने, नजर रखने का सीधा अर्थ हमारी अभिव्यक्ति को कुचलना ही है। हम ‘लोकतंत्र’ की उसी हकीकत की आलोचना कर रहे हैं जिससे सारा देष वाकिफ है। जल, जंगल, जमीन, खदान, श्रम, ... और विषालमध्यवर्ग की कष्टपूर्ण बचत को लूट रहे साम्राजयावादी-कारपोरेट सेक्टर और उनकी तानाषाही का हम विरोध करते हैं। हम वैकल्पिक जनवादी मॉडल की बात करते हैं। हम इस लूट और तबाही और मुसलमान, दलित, स्त्री, आदिवासी, मेहनतकष, ...पर हमला करने वाली और साम्राज्यवादी विध्वंष व सामूहिक नरसंहार करने वाली हिंदूत्व फासीवादी राजनीति का विरोध करते हैं।
हम ऐसे सभी लोगों के साथ हैं जो जनवाद में भरोसा करते हैं। हम उन सभी लोगों के साथ हैं जो अभिव्यक्ति का खतरा उठाते हुए आज के फासीवादी खतरे के खिलाफ खड़े हैं। हम प्रेमचंद की परम्परा का अर्थ जनवाद की पक्षधरता और फासीवाद के खिलाफ गोलबंदी के तौर पर देखते है। प्रेमचंद की यही परम्परा है जिसके बूते 1930 के दषक में उपनिवेषवाद विरोधी, सामंतवाद विरोधी, फासीवाद विरोधी लहर की धार इस सदी में हमारे इस चुनौतीपूर्ण समय में उतना ही प्रासंगिक और उतना ही प्रेरक बना हुआ है।
अषोक वाजपेयी और गोविंदाचार्य इस परम्परा के मद्देनजर किसके पक्ष में हैं? राजेन्द्र यादव खुद को प्रेमचंद की परम्परा में खड़ा करते हैं। ऐसे में सवाल बनता है कि वे अषोक वाजपेयी और गोविंदाचार्य को किस नजर से देखते हैं? और, इस आयोजन का अभिष्ट क्या है? बहरहाल, कारपोरेट सेक्टर की संस्कृति और हिंदूत्व की राजनीति करने वाले लोगों के साथ मंच पर एक साथ खड़ा होने को मंजूर करना न तो उचित है और न ही उनके साथ ‘अभिव्यक्ति और प्रतिबंध’ जैसे विषय पर बोलना मौजूं है।
प्रेमचंद जयंती पर ‘हंस’ की ओर से आयोजित इस कार्यक्रम में जो भी लोग मुझे सुनने आए उनसे अपनी अनुपस्थिति की माफी दरख्वास्त कर रहा हूं। उम्मीद है आप मेरे पक्ष पर गौर करेंगे और अभिव्यक्ति के रास्ते आ रही चुनौतियों का सामना करते हुए हमसफर बने रहेंगे।
क्रांतिकारी अभिवादन के साथ,
वरवर राव
31 जुलाई 2913, दिल्ली

Jan Vikas Modal by Visthapan Virodhi Jan Vikas Andolan

Jan Vikas Modal by Visthapan Virodhi Jan Vikas Andolan

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मंगलवार, 24 जुलाई 2012

मारूती उद्योग, मानेसर: मजदूर विरोधी नीति का त्रासद मध्यांतर


देष की अर्थव्यवस्था जिस राह पर चल निकली है वहां ऐसी त्रासदी कोई नई बात नहीं है। यह सचमुच त्रासदी है। यह मजदूर विरोधी नीति पर चलने की त्रासदी है। मारूती के मानेसर प्लांट में 18 जुलाई को फैक्टरी के भीतर हुई झड़प व आगजानी में महाप्रबंधक अवनीष कुमार देव की जलकर मर जाने की घटना उस नीति का त्रासद परिणाम है जिसके तहत मजदूरों को हर हाल में पूंजीपति वर्ग कुचल देने के लिए आमादा था। ऐसी त्रासद घटना दिल्ली व आसपास में होती रही हैं। और, हर इस तरह की घटना में बड़े पैमाने पर मजदूरों की गिरफ्तारी, फैक्टरी पर तालाबंदी होती रही है। लगभग 90 मजदूरों के खिलाफ मामला दर्ज किया गया है। बहरहाल इस फैक्टरी के चेयरमैन आर सी भार्गव ने भी इसी तरह की नीति का ऐलान 21 जुलाई को प्रेस वार्ता में किया। षांति व उत्पादन का माहौल बनने व सरकार द्वारा ऐसी घटना को रोकने की नीति बनने तक फैक्टरी उत्पादन बंद करने का यह ऐलान मजदूरों के हक पूरी तरह कुचल देने की दुर्दम्य इच्छा ही है जिससे श्रम की खुली लूट चलती रहे। यह त्रासदी पूंजीपति वर्ग के लिए सुनहरा मौका में तब्दील हो गया है जिसका मौका उठाकर मजदूरों के हक को कुचला जा सके। 
चेयरमैन एसी भार्गव ने फैक्टरी की तालाबंदी की घोषणा के पीछे अपने कर्मचारियों की सुरक्षा एक मुख्य कारण की तरह पेष किया है। और, सारा दोष मजदूरों के कंधों पर डाल दिया है। मारूती के प्रबंधकों ने यह बताने की जहमत से मुकर गया कि 18 जुलाई को उसने मजदूरों को हिंसात्मक तरीके से निपटने के लिए बाउंसरों को फैक्टरी के भीतर तैनात कर रखा था। साथ ही पुलिस का इंतजाम भी कर लिया था। वह यह बताने से मुकर गया कि 16-17 जुलाई को फैक्टरी के भीतर एक सुपरवाइजर द्वारा दलित मजदूर को जाति सूचक गाली दी गई और निलंबित कर दिया गया। जब मजदूरों ने इसका प्रतिवाद किया अगली षिफ्ट में आने वाले मजदूरों के साथ मिलकर गेट पर प्रदर्षन करना तय किया तो प्रबंधक मजदूरों से निपटने के लिए खुद प्रबंधक समुदाय, बाउंसरों व पुलिस के बल पर हमला करना तय कर लिया। लगभग षाम 5 बजे जब दो षिफ्टों के मजदूर मिलकर इकठ्ठा होना षुरू हुए उस समय इन्होंने मजदूरों पर हमला बोल दिया।
प्रबंधक और चेयरमैन अपनी आपराधिक कार्यवाई को स्वीकार करने से मुकर गया। वह इस बात से भी मुकर गया कि लगभग साल भर पहले जब मजदूरों ने वेतनवृ़िद्ध की मांग किया तो उन्हें कुचल देने के लिए खुलेआम बाउंसरों का प्रयोग किया गया और मजदूर घायल हुए। जब उन्होंने यूनियन बनाने के अधिकार और मजदूरों को नियमित करने की मांग को रखा तो मजदूरों की मांग को स्वीकार करने के बजाय उन्हें लॉकआउट और फिर उन्हें सबसे लंबे हड़ताल पर जाने को मजबूर किया। जब गुड़गांव में मारूती से जुड़े सभी उद्योग संस्थानों ने हड़ताल पर जाने का निर्णय लिया तब मजदूरों की ओर से वार्ता कर रहे मजदूर प्रतिनीधियांे को लाखों रूपए -कुछ लोगों के अनुसार चंद प्रतिनीधियों को करोड़ों रूपए, घूस खिलाकर ‘वीआरएस’ दे दिया गया। इसके बाद भी मजदूरों ने हार मानने से इंकार कर यूनियन बनाने के अधिकार को अंततः जीत लिया और फैक्टरी गेट पर यूनियन के झंडे को लहराया गया। मजदूरों की यह मौलिक जीत मारूती के प्रबंधकों को कभी रास नहीं आई। मजदूरों के अपने हक और इज्जत से काम करने के न्यूनतम अधिकार को भी प्रबंधक कभी भी स्वीकार करने को तैयार नहीं हुए। वेतनवृद्धि की मांग को वे लगातार एक खतरा की तरह देखते रहे। और, मजदूरों पर हमला बोलते रहे। यह हमला अभी भी जारी है।
खुद हरियाणा और केंद्र की सरकार व श्रम विभाग का इस मुद्दे पर जो रवैया रहा वह भी प्रबंधकों की नीति से पूरी तरह नत्थी रहा। जब भी प्रबंधकों को मजदूरों के खिलाफ पुलिए या अर्द्धसेना बल की तैनाती की जरूरत हुई इनका प्रयोग सरकार ने तुरंत किया। श्रम विभाग ने उत्पादन के माहौलन को बनाए रखने के लिए मजदूरों को फैक्टरी परिसर छोड़ने का आदेष जब तब देती रही। यहां तक कि सारे श्रम कानूनों की धज्जी उड़ाने वाले ‘कोड ऑफ कंडक्ट’ को मान्यता दे दिया। ज्ञात हो कि इस मसले पर संसद में श्रम मामलों के मंत्री ने इसे ‘अवैध’ बताया। लेकिन न तो फैक्टरी के प्रबंधकों के खिलाफ इस मुद्दे पर कार्रवाई की गई और न ही श्रम मंत्रालय ने अपनी गलती सुधारते हुए इस कंडक्ट के षिकार मजदूरों को न्याय दिया गया। यह अराजकता या आम भूल गलती नहीं है। यह सरकार की सोची समझी नीति है जिसमें मारूती के प्रबंधकों व मालिकों को लूट की खुली छूट जारी रह सके और ‘निवेष’ का माहौल बना रह सके। यह वैसी ही लौह तानाषाही है जैसी गुजरात में देखने को मिल रहा है और जिस पर अमेरीका लट्टू हुआ जा रहा है। सरकार पूंजीपतियों के लूट को लेकर उनको हर हाल में समर्थन देने की साफ नीति पर चल रही है। आज मारूती ही नहीं पूरा गुडगांव श्रम  दासता का एक नमूना बनकर उभरा है जहां एक एक फैक्टरी में हजारों मजदूर दसियों साल से कम करते हुए भी न तो नियमित हैं और न ही उन्हें यूनियन बनाने का अधिकार है।
सरकार व मारूती प्रबंधक इस बात को छुपा ले जाने के लिए बेचैन हैं जिसमें उन्होंने मजदूरों के खिलाफ एक आपराधिक गोलबंदी किये हुए हैं। पिछले एक साल में मारूती के मानेसर प्लांट में जो घटना घटी हैं उसका सिलेसिलेवार जायजा लिया जाय उससे एक एक बात खुलकर सामने आ जाएगा। एक प्रबंधक की रहस्यमयी मौत एक त्रासद मध्यांतर की तरह सामने आया है। यहां से सरकार व प्रबंधक मिलकर पूरे मामले को अपने पक्ष कर लेने को तैयार हो गए हैं। हत्या की सारी नैतिक जिम्मेदारी मजदूरों के कंधों पर डालकर खुद को देष का जिम्मेदार कर्णधार साबित करने में लग गए हैं। अर्थव्यवस्था के नाक तक डूबे संकट को उबारने के लिए जब अमेरीकी षासक वर्ग फासिस्ट हत्यारे मोदी को सिर पर चढ़ाने के लिए तैयार है और यहां का पूंजीपति उसकी सरपरस्ती में जाने के लिए तैयार है तब निष्चय ही स्थिति नैतिक रूप से साफ सुथरा होने की जरूरत भी खत्म हो गयी है। अब तो सरपरस्ती पाने की होड़ की षुरूआत हो चुकी है।
मारूती के मजदूरों पर हमला और उनकी गिरफ्तारी एक ऐसी नंगई की षुरूआत है जिसकी मिसाल पिछले कुछ सालों से दिखने लगा है। हीरो होंडा और रिको कंपनी में मजदूरों के खिलाफ पुलिस बाउंसरों का प्रयोग जो षुरू हुआ उसके नतीजे भी उतने ही खतरनाक रूप से सामने आए। इन कंपनियों में भी यूनियन बनाने, वेतनवृद्धि और प्रबंधक की ओर से उचित व्यवहार की मांग से आंदोलन षुरू हुआ। इसमें मजदूरों की बुरी तरह से पिटाई की गई और कुछ मजदूरों को जान से मार डाला गया। जिसके विरोध में ऐतिहासिक उद्योग बंदी हुई। ग्रेटर नोएडा में ग्रेजियानों के मजदूर व प्रबंधक की झड़प में महाप्रबंधक की हत्या हुई। इस घटना में 80 से उपर मजदूरों को जेल में डाल दिया गया। सालों ये मजदूर जेल में पड़े रहे। आज भी यह केस चल रहा है। इस घटना में भी प्रबंधकों ने बाउंसरों का इस्तेमाल किया गया। ग्रेजियानों के मजदूर वेतनवृद्धि और यूनियन बनाने के अधिकार की लड़ाई लगभग एक साल से लड़ रहे थे। इस मामले में प्रबंधक समूह के एक व्यक्ति पर न केवल मजदूरों ने बल्कि मारे गए महाप्रबंधक की पत्नी ने भी अपना संदेह प्रकट किया लेकिन इस मसले को दबाकर मजदूरों को ही दोषी मान लिया गया। पुलिस व श्रम मंत्रालय ने इस पूरे मसले पर श्रम विरोधी रवैया अपनाए रखा। इसके बाद साहिबाबाद में निप्पो कंपनी के प्रबंधक की हत्या ठीक ऐसी ही परिस्थितियों में की गई। बाउंसरों का प्रयोग, प्रबंधकों के बीच की आपसी होड़, सम्मान पूर्ण व्यवहार की मांग, वेतनवृद्धि की मांग व यूनियन बनाने का अधिकार ही वह धुरी थी जिसके इर्द गिर्द प्रबंधक की हत्या हुई और इसके आरोप में मजदूरों को गिरफ्तार किया गया। बाद में मुंबई और कोयटंबूर में ऐसी ही घटना घटी। पेदुचेरी में मजदूरों ने षिरामिक कंपनी के प्रबंधक को ऐसी ही झड़प में मार डाला। गुड़गांव में पिछले एक साल में ठेकेदार व प्रबंधकों के खिलाफ मजदूरों की झड़प की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है। कंस्ट्रक्षन मजदूरों ने अपने साथी की मौत पर पुलिस और प्रबंधक पर हमला बोला। इसके तुरंत बाद ओरिएंट लॉगमैन में मजदूरों ने प्रबंधक द्वारा एक मजदूर पर कातिलाना हमला करने के खिलाफ प्रबंधक के खिलाफ हमला किया। चंद महीनों बाद मारूती में हुई यह घटना उस हालात का ही नतीजा है जिसे इस देष में विकास के नाम पर बना दिया गया है।
मारूती मानेसर प्लांट में हुई घटना किसी अराजकता का परिणाम नहीं है। यह एक सोची समझी नीति का परिणाम है। यह श्रम की अंतहीन लूट को और मजदूरों को उजरती दास के अस्तित्व तक सीमित कर देने की नीति का परिणाम है। यह उनके संगठित होने से रोकने और उन्हें एक नागरिक जीवन  तक न जीने देने की नीति का परिणाम है। यह मजदूरों को भ्रष्ट कर देने की चाल का नतीजा है। यह मजदूर वर्ग को ‘हेडलेस चिकेन’ बना देने की नीति का परिणाम है। यह उनके संकट का परिणाम है जो चारों ओर से उन्हें दबोचे हुए है। यह उनके अपने ही षडयंत्रपूर्ण कार्रवाईयों का नतीजा है। यह एक नए समाज का सपना देखने की ललक से भर उठे मजदूरों से डर जाने का परिणाम है। यह पूंजीपति वर्ग के अपने ही मौत के डर से उपजी हुई उस हताषा का परिणाम है जिसमें वह अपनी कब्र खोदने में जुट जाता है। बहरहाल जो मजदूर इस हत्या और षडयंत्र में षामिल नहीं है उसे अविलंब आरोप से मुक्त कर देना चाहिए। सरकार और प्रबंधक को अपनी नैतिक जिम्मेदारी स्वीकार करनी चाहिए। बाउंसरों के बेजा प्रयोग के जिम्मेदार प्रबंधकों पर मुकद्मा चलना चाहिए और उन प्रबंधन में बैठे उन दोषियों को जेल होना चाहिए जिन्होंने इस माहौल को पैदा किया है।


अंजनी कुमार, स्वतंत्र पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता
09013321845

बुधवार, 30 मई 2012


उठो! प्रतिरोध करो! मुक्त हों!

क्रान्तिकारी जनवादी मोर्चा (आरडीएफ) 

सम्पर्क: revolutionarydemocracy@gmail.com
क्रान्तिकारी जनवादी मोर्चा प्रस्तावित राष्ट्रीय आतंकवाद विरोधी सैंटर (एनसीटीसी) बनाने की कड़े शब्दों में निंदा करता है। भारतीय राज्य एनसीटीसी का निर्माण करने की योजना बना रहा है। अमेरिकी साम्राज्यवाद के दिशा-निर्देश के अनुसार बनने वाली यह फासीवादी संस्था आतंकवाद से लड़ने के नाम पर असहमति की सभी आवाजों को कठोरता से दबाएगी और विरोध की हर आवाज को अपराधी घोषित कर देगी। एनसीटीसी केन्द्र की संस्था होगी और इसके आफिसरों को दमनकारी यूएपीए के तहत गिरफ्तार करने, तलाशी लेने और जब्ती करने की शक्तियों से लैस किया जाएगा। साम्राज्यवादी ताकतों के समक्ष पूर्णतया नतमस्तक भारतीय राज्य को ऐसे दमनकारी दंड सहिंता की जरूरत है, ताकि प्राकृतिक सम्पदा की लूट, और ‘विकास’ के नाम पर जिन्दगी और आजीविका के विनाश के खिलाफ तीव्र होते जनप्रतिरोध को वह दबा सके।
अमेरिका कुछ समय से भारत की ‘आंतरिक सुरक्षा’ तय करने में केन्द्रीय भूमिका निभा रहा है। सन् 2000 में एनडीए सरकार ने ‘अमेरिकी हितों’ की निगरानी करने के लिए नई दिल्ली में एफबीआई की पहली चौकी बनाने की अनुमति दी थी। 2005 में अमेरिका-भारत रक्षा सम्बंधों बारे नए चौखटा समझौते तथा 124 न्यूकलियर समझौते पर हस्ताक्षर करके इसे ओर बढ़ावा दिया गया। यह एनसीटीसी भी भारत की सरजमीं पर अमेरिकी आतंकवाद को संस्थागत करने के लिए सीधे अमेरिकी मार्गदर्शन और निर्देश के तहत बनाया जा रहा है। अमेरिका की ‘आतंकवाद विरोधी नीति’ सूचना एकत्रीकरण के ऐसे तरीके अपनाने, कवर्ट आपरेशन चलाने, गैर-राजकीय बलों के प्रयोग करने, ड्रोन से हमला करने की खुले आम घोषणा करती है और अमेरिका की सेना और खुफिया विभाग इन सारी कार्रवाईयों को पूर्ण समर्थन दे रहा है। एनसीटीसी भारतीय राज्य के अमेरिका के साथ गठजोड़ का ही उत्पाद है।
यह संस्था ‘आंतरिक सुरक्षा’ सम्बंधी मामलों की सारी शक्तियों को केन्द्रीय गृह मंत्रालय के हाथों में केन्द्रीत कर देगा और संघीय प्रणाली के दिखावे मात्र का भी खात्मा कर देगा। कानून और व्यवस्था, जोकि राज्य सरकार का मामला है, पूर्णतया केन्द्र के हाथ में चला जाएगा। इसका परिणाम शक्ति के खतरनाक केन्द्रीकरण में होगा। पुलिस महकमें सहित राज्य सरकार की सारी आर्थिटी और अधिकारी एनसीटीसी को सूचना, दस्तावेज और रिपोर्ट देने के लिए बाध्य होंगें। इससे एनसीटीसी और आईबी सर्वोच्च और अनियंत्रित शक्ति से लैस हो जाएंगें और यह दक्षिणी एशिया में सुरक्षा राज्य निर्माण के इतिहास में खतरनाक होगा। वैसे ही भारत में राज्य सरकारों को बेहद सीमित शक्तियों मिली हैं, जिसकी स्थिति किसी नगरपालिका से ज्यादा बेहतर नहीं हैं, क्योंकि प्रशासनिक और वित्तिय नियंत्रण हमेशा से ही एकदम केन्द्रीकृत केन्द्रीय सरकार के हाथों में निहित है। अब एनसीटीसी बनने से इन सीमित शक्तियों पर एक ओर हमला किया जाएगा और राज्य सरकारों की सीमित शक्तियों पर भी रोकथाम लगा दी जाएगी।
राज्य द्वारा असहमति की आवाजों और उत्पीड़ित जनता से दुर्व्यवहार करने और उनका अपराधीकरण कई बार किया गया है। यूएपीए, मैकोका, गुजकोका, पीएसए जैसे दमनकारी कानूनों के जरिए भारतीय राज्य मूलभूत अधिकारों, जमीन, आजीविका, आत्मसम्मान और राष्ट्रीयता के लिए लड़ाई कर रही जनता पर फासीवादी दमन ढहा रहा है। साथ ही दलित, आदिवासी जैसी उत्पीड़ित जनता, मुस्लिम और अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों को इन दमनकारी कानूनों का प्रयोग कर व्यापक पैमानें पर केसों में फंसाया जा रहा है।  
कई राजनैतिक संगठनों, सांस्कृतिक समूहों और जनसंगठनों पर फासीवादी राज्य ने प्रतिबंध लगाया हुआ है। उनके कार्यकर्ताओं को निरंतर गिरफ्तार किया जा रहा है, उन्हें यातनाएं दी जा रही हैं, झूठे केसों में फंसाया जा रहा है, यहां तक कि झूठी मुठभेड़ों में हत्या कर दी जाती है। मुस्लमानों को तंग करने के लिए राज्य भारतीय मुजाहिदिन जैसे बोगस संगठन भी बना रहा है तथा हजारों मुस्लमानों पर ‘आतंकवादी’ बताकर झूठे केस दर्ज कर दिए हैं। केन्द्रीय और पूर्वी भारत में राज्य ने आपरेशन ग्रीन हंट के नाम पर जनता पर खुनी जंग छेड़ रखी है। अर्धसैन्य बलों, इलिट बलों, विजिलैंट गिरोह सहित सेना और वायू सेना को हजारों की संख्या में तैनात किया गया है ताकि वहां बसने वाले आदिवासियों को उनकी जमीन और जंगलों से उजाड़ा जा सके और इस खनिज सम्पंन क्षेत्र को बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की शिकारगाह बनाया जा सके। कश्मीर और उत्तर पूर्वी क्षेत्र में भी भारतीय राज्य ने राष्ट्र और आत्मनिर्णय की लड़ाई लड़ रहे लोगों पर फासीवादी युद्ध छेड़ा हुआ है। हाल ही में झारखंड सीआरपीएफ ने मांग की है कि उन्हें आफ्सा की ‘ढ़ाल’ दी जाए ताकि उन्हें मनमर्जी से हत्या करने, यातना देने, नागरिकों को लूटने की खुला लाईसैंस मिल जाए। एनसीटीसी भारतीय राज्य के हाथ में दमन का एक ओर खतरनाक हथियार होगा जिसके जरिए वह जनता को ‘आतंकी’, ‘अतिवादी’ ठहराकर उनका दमन करेगा।
पश्चिम बंगा की ममता बनर्जी और ओडिशा के नवीन पटनायक के नेतृत्व में कई गैर कांग्रेसी मुख्यमंत्री एनसीटीसी को राज्य के संघीय ढ़ांचे के खिलाफ बताकर केन्द्र सरकार से नूरा कुश्ती लड़ रहे हैं। यह एक भद्दा मजाक है क्योंकि ये सभी मुख्यमंत्री विषेशतः ये दोनों केन्द्रीय गृहमंत्रालय के साथ मिलकर फासीवादी राजकीय दमन अभियान चला रहे हैं। चिदम्बरम ने ‘नक्सलवाद से प्रभावी तरीके से निपटने’ के लिए ममता बनर्जी की खुलेआम प्रशंसा की है। उसने कोलकाता के नजदीक ‘राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड़’ (एनएसजी) हब की आधारशिला रखी है और चुनाव पूर्व वायदों के विपरित उसने जंगलमहल से अर्धसैन्य बलों को वापिस नहीं बुलाया और न ही दमनकारी यूएपीए कानून के तहत दर्ज केसों को निरस्त किया। सत्ता में आने के बाद उसने राजनैतिक बंदियों को रिहा करने के अपने वायदे को पूरा करने की बजाए जगंलमहल के सैंकड़ों ग्रामीणों को जेल में बंद कर दिया तथा सलवा जुडूम की तर्ज पर राज्य समर्थित विजिलैंट गिरोह बनाना शुरू कर दिया। उसकी पार्टी के गुंडें अनाधिकारिक तौर पर भैरव वाहिनी बनाकर जंगलमहल के लोगों पर हमला कर रहे हें। सीपीआई (माओवादी) के नेता और पोलित ब्यूरों सदस्य किशनजी की झूठी मुठभेड़ में हत्या उसके फासीवादी शासन का नृशंस नमूना है। इसी तरह, नवीन पटनायक ओडिशा में पोस्को, वेदांता और अन्य विशालकाय कारपोरेट के खिलाफ लड़ रही जनता का दमन करने के लिए जिम्मेवार है। कलिंगनगर में विरोध प्रदर्शन कर रहे आदिवासियों की हत्या, नारायणपट्टना में लड़ाकू जनता पर नृशंस हमला और चासी मूलिया आदिवासी संघ (सीएमएएस) के अध्यक्ष विडेका सिंघन्ना की हत्या उसी के खाते में दर्ज है। कई सीएमएएस कार्यकर्ताओं पर उसने यूएपीए के तहत केस दर्ज करवाएं हैं। इसी तरह नरेन्द्र मोदी, जयललिता, प्रकाश सिंह बादल जैसे बेजेपी और गैर कांग्रेसी मुख्यमंत्री भी राज्य सरकारों की शक्तियों पर रोकथाम लगाने के नाम पर केन्द्र सरकार से नूरा कुश्ती लड़ रहे हैं। छत्तीसगढ़ के फासीवादी बेजेपी मुख्यमंत्री रमण सिंह ने एनसीटीसी को कुछ संशोधनों सहित स्वीकार कर लिया है। बेजेपी के अन्य मुख्यमंत्रियों भी जनता पर दमन करने, विरोध प्रदर्शन करने वाली जनता पर गोली चलाने का आदेश देने के कारण फासीवादी शासन के लिए कुख्यात हैं। शासक वर्ग के कई एजेंट एनसीटीसी के खिलाफ इसलिए आवाज नहीं उठा रहे कि उन्हें जनता के कल्याण की कोई चिंता हो या वे ‘संघीय ढ़ांचे को बचाना’ चाहते हैं, बल्कि वे असहमति की आवाजों का दमन करने के लिए ज्यादा अथार्टी चाहते हैं और ‘आंतरिक सुरक्षा’ के नाम पर आने वाली अथाह धनराशि में बड़ा हिस्सा चाहते हैं। 2008 में जब यूएपीए में खतरनाक संशोधन किए जा रहे थे तो छद्म-वाम सहित किसी भी सांसद ने संसद में इस पर आपत्ति नहीं की। भारत के सभी संसदीय दलों का कारपोरेट लूट में हिस्सा है और इसलिए वे जनता पर युद्ध को तीव्र करने और सभी तरह की असहमतियों को गैरकानूनी और अपराधिक ठहराने के केन्द्र सरकार के हर प्रयास का समर्थन करते हैं और उन्हें लागू करते हैं। संसाधनों की कारपोरेट लूट को बढ़ावा देने के लिए जनता पर छेड़ी गई खुनी और नृशंस जंग का और असहमति की सभी आवाजों को दबाने के राज्य प्रयासों का प्रतिरोध करने के लिए देश की सभी प्रगतिशील और जनवादी ताकतों को एकजुट होना चाहिए।
-एनसीटीसी वापिस लो और दमनकारी यूएपीए को निरस्त करो।
-आपरेशन ग्रीन हंट बंद करो।
-फर्जी केसों में जनता को गिरफ्तार करना बंद करो।

अध्यक्ष महासचिव
वरवरा राव 09676541715 राजकिशोर 09717583539

मंगलवार, 29 मई 2012

नोनाडांगा के लोगों की एकजुटता और देबलीना और अभिजन की बेशर्त रिहाई का आह्वान


जन कार्यकर्ता देबलिना चक्रवर्ती और अभिजन सरकार की गिरफ्तारी और जेल में भेजना हम सब के लिए चिंता का विषय है। क्यों ममता बनर्जी की फासीवादी सरकार ने देबलिना चक्रवर्ती और अभिजन सरकार को विशेष निशाना बनाया? जादवपुर विश्वविद्यालय की छात्रा रही देबलीना और छात्र अभिजन हमेशा विस्थापन विरोधी आन्दोलनों के साथ साथ जनता की प्राकृतिक सम्पदा को सीपीएम नीत वाम सरकार और अब ममता बनर्जी नीत शासन द्वारा लूटे जाने के खिलाफ संघर्ष में आगे आकर लड़ते रहे हैं।
इस बार दोनो नोनाडांगा के लोगों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ रहे छात्रों और बुद्धिजीवियों में सक्रिय रूप से शामिल थे। इन लोगों को 30 मार्च,2012 को राज्य बलों ने जबरन उजाड़ दिया था और उनके घरों को ढहा दिया था। नोनाडांगा में ज्यादातर वे लोग बसे हुए थे, जो सुन्दरबन में आए चक्रवात से उजड़ गए थे या जिन्हें ‘विकास’ नामक मानव निर्मित आपादा के कारण कोलकाता की कई झुग्गी बस्तियों से उजाड़ दिया गया था। नोनाडांगा की 80 एकड़ जमीन से सभी को उजाड़ कर इसे रियल एस्टेट के हवाले की सोच सीपीएम के जमाने में भी थी। ममता राज में घट रही घटनाएं उसी की निरन्तरता ही है, जो उसकी जनपक्षीय लफ्फाजी का पर्दाफाश करती हैं। विस्थापित करने के बाद राज्य बलों ने नोनाडोंगा के विस्थापितों और उनके समर्थकों पर बार बार हमला किया, जिसमें सैकड़ों लोगों को गिरफ्तार किया और  4, 8, 9, 12 और 28 अप्रैल को लाठीचार्ज किया। जनता की चीख पुकार और प्रदर्शनों के बाद देबलीना और अभिजन के अलावा सभी को रिहा कर दिया गया। ये दोनों अभी भी जेल में हैं।
देबलीना और अभिजन छात्रों के अच्छे उदाहरण हैं जो समझ बुझ कर क्लास रूम की चार दिवारी से बाहर निकल गए और उत्पीड़ित जनता के रोजमर्रा की जिन्दगी की कठोर सच्चाईयों से जुड गए चाहे वो सिंगुर हो या नोनाडोंगा। जनता की सेवा करने की और जनता के संघर्ष से जुड़कर नया संसार रचने की इस तरह की राजनीतिक संस्कृति का राजनीतिक रूप से सामना करने में ममता बनर्जी अक्षम हैं और इसलिए उसनें कानून से खिलवाड़ करने वाली पुलिस और नौकरशाहों का प्रयोग कर इन नौजवानों पर झूठे केस लगवाकर उन्हें अपराधी घोषित करने के लिए अपनी सारा जोर लगा दिया।
देबलीना जादवपुर विश्वविद्यालय के इंटरनेशनल रिलेशन डिपार्टमैंट की छात्रा थी। उसने जनवादी आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए जनता का साथ देने के लिए अपनी पढ़ाई छोड़ दी। वह सिंगुर के जमीन अधिग्रहण विरोधी आंदोलन से जुड़ी हुई थी जिसने ममता के सत्ता में आने की जमीन तैयार की थी। जब नंदीग्राम की जनता ने खुंखार सलेम औद्योगिक समूह की सेज और रसायन कारखाना बनाने के खिलाफ आवाज बुलंद की तो वह वहां चली गई और वहां उसने जमीन व घरों से विस्थापन के खिलाफ बनी भूमि उच्छेद प्रतिरोध कमेटी द्वारा छेड़े गए शानदार जनसंघर्ष में भागीदारी की।  मैतिंगनी महिला समिति का निर्माण करने में उसकी महती भूमिका थी। एमएमएस महिलाओं का मंच था जो पितृसत्ता के खिलाफ, सेज और साम्राज्यवादी पूंजी के खिलाफ और सीपीएम हरमद के खिलाफ लड़ा था। यह लक्ष्मण सेठ- बिनोय कनोर- सुशान्तो घोष-तपन सुकुर- नाभा सामांता के गिरोह के रोजमर्रा के हमलों के खिलाफ जारी संघर्षों से जुड़ी रही।
सत्ता में आने के बाद ममता बनर्जी ने अपने गुस्से का रूख जनांदोलनों के खिलाफ कर दिया और मैतंगिनी महिला समिति को ‘शैतान बिग्रेड़’ का तमगा देकर उसे बदनाम करने का अभियान शुरू कर दिया। पुलिस ने हर बार की तरह देबलीना को माओवादी करार दिया जिसे मनमर्जी से हिरासत में लिया जा सकता है, यातनाएं दी जा सकती है, प्रताडित किया जा सकता है और बंदी बनाया जा सकता है।
यह शीशे की तरह साफ है कि गुप्तचर विभाग के अधिकारियों ने देबलिना को क्रूरतापूर्वक मानसिक और शारिरिक यातनाएं दी होंगी और उसे सालों साल बंदी बनाए रखने के लिए जेल भेजा होगा। क्या हमें पश्चिम बंगाल की इस क्रूर, निर्दयी और जनविरोधी मुख्यमंत्राी द्वारा किए जा रहे अन्याय को जारी रहने की अनुमति देनी चाहिए। देबलीना ने अनुचित बंदी का विरोध करने के लिए भूख हड़ताल शुरू कर दी है।
अभिजन सरकार इंजीनियर है और जादवपुर विश्वविद्यालय के मैटलैरजी डिपार्टमैंट में शोधकर्ता है। वह छात्रा संगठन आरएसएफ का सदस्य है और कई सालों से पश्चिम बंगाल के जनांदोलन में सक्रिय भागीदार है। वह कोलकाता से निकलने वाली पत्रिका ‘टूवर्डस ए न्यू डॉन’ का सम्पादक है, जो पुरे भारत में बाटा जाता है। अभिजन संहति समूह से भी जुड़ा हुआ है और उसने लालगढ़ में नारी इज्जत बचाओ कमेटी पर पुलिस दमन की रिपार्ट भी भेजी थी। 2010 को भी अभिजन को पश्चिम बंगाल सीआईड़ी ने उस समय हिरासत में ले लिया था जब वह दिल्ली में आईसीएसएसआर का साक्षात्कार देने जा रहा था। उस समय उससे गहन पुछताछ की गई थी कि नंदीग्राम जैसे जनांदोलनों में उसकी क्या भूमिका है। 2011 में उसे एक बार फिर खुंखार संयुक्त बलों द्वारा एक डाक्टर के साथ हिरासत में ले लिया जब वे लालगढ़ के दूर दराज के इलाके में मैडिकल कैम्प लगाने गए थे। परन्तु दोनों मामलों में पुलिस उस पर कोई केस दर्ज नहीं कर सकी और उसे छोड़ने पर मजबूर हो गई। इस बार उस पर हल्दिया का एक झूठा केस दर्ज किया गया है। दमनकारी देशद्रोह कानून और आर्म्स एक्ट उस पर चस्पा कर दिया गया है।
हम देश के सभी न्याय पसन्द और आजादी पसंद लोगों से अपील करते हैं कि देबलिना और अभिजन को झूठे केसो के आधार पर बंदी बनाए रखने के खिलाफ आवाज बुलंद करें तथा उनकी बेशर्त रिहाई की मांग करें। उनका एकमात्रा अपराध है कि वो नोनाडांगा की जनता के साथ खड़े रहे और उनके साथ हो रहे अन्याय के खिलाफ आवाज बुलंद की। सचेतन विद्यार्थी होने के नाते हमारा कर्तव्य है कि हम असहमति के अधिकार की रक्षा के लिए खड़े हो। देबलीना और अभिजन की बेशर्त रिहाई की मांग नोनाड़ांगा के लड़ाकू लोगों की इच्छाशक्ति को ओर मजबूत करने में एक महत्वपूर्ण कदम होगा। राज्य द्वारा देबलीना और अभिजन के इर्द गिर्द निर्मित किया गया ‘गैरकानूनी’ और ‘अवैध’ का धुंधलका वास्तव में उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण की सरकारी नीति की खिलाफत कर रही उत्पीडित जनता से हाथ मिलाने के छात्रों के अधिकार का हनन है। हमें जनवादी आंदोलनों का मुंह बंद करने की फासीवादी नीतियों के खिलाफ खड़ा होना चाहिए। हम अन्य विश्वविद्यालयों के सभी छात्रों और बुद्धिजीवियों से अपील करते हैं कि नोनाडंगा की जनता के समर्थन में और देबलीना और अभिजन की बेशर्त रिहाई के के लिए हो रहे संघर्ष में शामिल हों। हम नोनाडांगा के विस्थापितों के संघर्ष के प्रति एकजुटता में उनके लिए राहत सामग्री एकत्र करें
-जादवपुर विश्वविद्यालय के जागरूक छात्रा और एल्यूमनी

शनिवार, 26 मई 2012

देशी कारपोरेट : विदेशी नियंत्रण


हाल के सालों में जबरन जमीन अधिग्रहण के प्रयास के खिलाफ देश भर में असंख्य संघर्ष फूट पड़े हैं। कलिंगनगर, पोस्को, काशीपुर, नियमगिरी, नंदीग्राम, सिंगुर, जैतापुर और यमुना एक्सप्रैस वे जैसे विख्यात संघर्ष तो जाने पहचाने हो गए हैं। जैसे ही ग्रामीणों ने जमीन के जबरन अधिग्रहण का प्रतिरोध करते हैं, उन्हें पुलिस, अधिकारियों तथा भाड़े के गुंडों का सामना करना पड़ता है। हर मामले में इन दमनकारी बलों के पीछे कारपोरेशन का हाथ होता है जोकि जमीन हथियाना चाहते हैं - जैसे टाटा स्टील, पोस्को, हिंडल्को, वेदांता, सलीम ग्रुप, टाटा मोटरस्, न्यूकलियर पावर कारपोरेशन ऑफ इंडिया, जेपी इंफ्राटेक आदि। और भूमंडलीकरण और वित्तियकरण (या वित्तिय भूमंडलीकरण) के वर्तमान युग में कारपोरेशन इसके प्रमोटरस् (जैसे टाटा, बिडला, अम्बानी आदि) के हितों का ही प्रतिनिध्ीत्व नहीं करता बल्कि विदेशी हितों का प्रतिनिधित्व भी करता है। ये हित कम दर्शनीय हैं और इन पर शायद ही टिप्पणी की जाती है, परन्तु ये उनके लिए कम महत्वपूर्ण नहीं होते हैं।
ये वित्तिय हित कई रूपों में देखाई देते हैं। उदाहरण के तौर पर कोरिया की कम्पनी पोस्को, जिसकी जमीन अधिग्रहण की कोशिशों के खिलाफ ओडिशा में तीव्र विरोध हो रहा है, में सबसे बड़ा शेयर धारक न्यू यॉर्क का बैंक है। इसके अलावा अमेरिका के अन्य निवेशको का भी इसमें काफी बड़ा हिस्सा है। हम कुछ अन्य उदाहरणों की बात करते हैं।
जैतापुर का परमाणु संयत्रा सार्वजनिक क्षेत्रा की कारपोरेशन न्यूकलियर पावर कारपोरेशन ऑफ इंडिया द्वारा बनाया जा रहा है। परन्तु इसके रियक्टर फ्रांस की कम्पनी एरेवा द्वारा दिए जाएंगें और वित्त भी फ्रांस ही देगा।
ओडिशा के नियमगिरी के डोंगरिया कोंध आदिवासियों से जमीन हथियाने की कोशिश वेदांता रिसोर्सिस कर रही है। वेदांता का उद्गम भारत में हुआ। परन्तु इसका मुख्यालय लंदन में है और यह लंदन स्टाक एक्सचेंज में सूचीबद्ध है। इसके नियंत्रक हित वोल्कान इंवेशटमैंट के पास है जोकि अनिल अग्रवाल और उसके परिवार के सदस्यों के नियंत्राण वाली बहामा की निवेश कम्पनी है। बाकी का निवेश अंतर्राष्ट्रीय निवेशकों के पास हैं।
काशीपुर में अािदवासियों को जबरन उजाड़ने वाली औन उनका दमन करने वाली कम्पनी उत्कल एल्यूमिना आदित्य बिड़़ला घराने के नियंत्राण वाली हिंडल्कों और कनाड़ा की कम्पनी एल्कान का संयुक्त उद्यम है, जिसमें उनका शेयर क्रमशः 55 प्रतिशत और 45 प्रतिशत है। इसके आगे देखें तो बिड़ला के नियंत्रण वाली कम्पनी और ट्रस्टों में हिंडल्को का शेयर मात्रा 32 प्रतिशत है, जबकि विदेशी संस्थागत निवेशकों के पास 31 प्रतिशत हिस्सा है (जिसमें मागन गारंटी ट्रस्ट ऑफ न्यूयॉर्क के पास इसका 9.3 प्रतिशत शेयर है) और अन्य 8.3 प्र्रतिशत भी विदेशियों के पास ग्लोबल डिपोसिटरी रिसिप्ट (जीडीआर) के रूप में है। दूसरे शब्दों में कहे तो हिंडल्कों में विदेशी हिस्सेदारी बिड़ला की हिस्सेदारी से अधिक है।
टाटा की कम्पनी और ट्रस्ट में टाटा मोटरस् का शेयर 34  प्रतिशत है। विदेशी संस्थागत निवेशकों के पास इसका 23 प्रतिशत हिस्सा है। और विदेशों में अमेरिकन डिपोसिटरी शेयर और ग्लोबल डिपोस्टरी शेयर, जोकि क्रमशः न्यूयार्क और लक्समबर्ग स्टाक एक्सचेंज में सूचीबद्ध है, के रूप में जारी किए गए शेयरों के रूप में 19 प्रतिशत हिस्सेदारी बेची गई है। इस प्रकार टाटा मोटरस् में विदेशी हिस्सेदारी 42 प्रतिशत से अधिक है यानि कि प्रमोटर की हिस्सेदारी से भी अधिक। टाटा मोटरस् ने काफी मात्रा में विदेशी कर्ज भी लिया हुआ है।
टाटा स्टील में विदशी संस्थागत निवेशकों का मालिकाना 17 प्रतिशत है और इसके अलावा 2.5 प्रतिशत पर ग्लोबल डिपॉस्टरी रिसिप्ट के रूप में विदेशी कब्जा है। परन्तु इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि टाटा स्टील बहुत अधिक विदेशी कर्ज लिया है, और इस कर्ज का बड़ा हिस्सा एंग्लो-डच स्टील कम्पनी कोरस को खरीदने के लिए लिया गया था। मार्च 2011 तक शुद्ध कर्जा 46,632 करोड रूपये था जिसमें से अधिकतर विदेशी मुद्रा का उधार है। इस बात पर गौर करना चाहिए कि टाटा स्टील के भारत के अन्दर मुनाफे में चलने वाले कारोबार से यह कर्ज उतारा जा रहा है।
इंटरनेट पर खोजने पर हमें ब्राईट इक्विटी लिमिटिड के बारे में कोई सूचना नहीं मिली। इसी कम्पनी के जरिए सलीम ग्रुप ने पश्चिम बंगाल में निवेश किया है। हालांकि इसका कोई महत्व नहीं है कि सलीम ग्रुप की होल्डिंग कम्पनी हांग कांग आधारित फर्स्ट पैसिफीक कम्पनी लिमिटिड है जिसके जरिए वह एशिया के भीतर टैलिकम्यूनिकेशन, आधारभूत ढ़ांचें, खाद्य उत्पादों और प्राकृतिक संसाधनों में किए गए निवेश को नियंत्रित करता है। फर्स्ट पैसिफिक के हिस्सेदारी का केवल 11.3 प्रतिशत ही एशिया में है, जबकि इसमें उत्तरी अमेरिका  और यूरोप की हिस्सेदारी 32 प्रतिशत है।
इस तरह के अनेको उदाहरण हैं। जैसे कि मुम्बई एयरपोर्ट का निजीकरण होने के कारण जीवीके पावर एंड इंफ्रास्ट्रक्चर लिमिटिड मुम्बई इंटरनेशनल एयरपोर्ट लिमिटिड को संचालित करता है जिसमें उसका हिस्सा ज्यादा है। विदेशी संस्थागत निवेशकों के पास जीवीके पावर एंड इंफ्रास्ट्रक्चर लिमिटिड के 27 प्रतिशत शेयर हैं। इसके बदले में जीवीके ने 4 लाख लोगों (जोकि 40 सालों से एयरपोर्ट के इर्द गिर्द बसी झुग्गी बस्तियों में रह रहे हैं) के ‘पुर्नवास’ (विस्थापन पढ़ें) का काम रियल एस्टेट कम्पनी हाउसिंग डैवेलपमैंट एंड इंफ्रास्ट्रक्चर लिमिटिड(एचडीआईएलं) को दिया है। यह अभी तक मिली जानकारी के मुताबिक यह भारत की सबसे बढ़ी विस्थापन और पूर्नवास परियोजना है। (जीवेके के अपनी प्रकाशित योजना के अनुार यह झुग्गी बस्ती की यह 276 एकड़ जमीन शापिंग मॉल, होटल और अन्य व्यवसायिक रियल एस्टेट के विकास की आवश्यक है। जिसे एयरपोर्ट के विस्तारीकरण के नाम पर लिया जा रहा है।)
एचडीआईएल पर रमेश वधवा का नियंत्राण है, जिसका नाम फॉर्ब्स करोड़पतियों की 2010 की सूची में शामिल था, और वह भारत के सबसे अमीर 50 लोगों में शामिल है। हालांकि बधवा, उसके परिवार और उसकी विभिन्न कम्पनियों का एचडीआईएल में हिस्सा मात्रा 38.6 प्रतिशत है, जबकि विदेशी संस्थागत निवेशकों का हिस्सा 42.5 प्रतिशत तक है। एचडीआईएल विदेशी संस्थाओं को नए शेयर बेचकर परियोजना के लिए धन की उगाही कर रही है (जिसे वे ‘क्वालिफाईड संस्थागत प्लेसमैंट का नाम दे रहे हैं)। एचडीआईएल की इस परियोजना से अनुमानित भारी आय की ओर निवेशक आकर्षित हो रहे हैं।
दिल्ली मुम्बई इंडस्टरियल कॉरिडॉर, जोकि शायद भारत की सबसे बड़ी आधारभूत परियोजना होगी या कहें कि जमीन की सबसे बड़ी लूट होगी, पर बहुत कम ध्यान दिया गया है। दिल्ली मुम्बई कॉरीडॉर डेवलपमैंट कारपोरेश (डीएमआईसीडीसी) ने देश की वित्तिय राजधानी और राजनैतिक राजधानी के बीच में 1483 किलोमीटर लम्बा कॉरीडॉर बनाया जाएगा जोकि 5000-5500 वर्गीय किलोमीटर क्षेत्राफल में बनेगा। इस कॉरीडॉर के इर्द गिर्द 24 औद्योगिक शहर विकसित किए जाएंगे - जोकि राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्रा, यूपी, हरियाणा, राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र में बनाए जाएंगें। पहले दौर में 2018 तक 90 बिलियन डालर की लागत से पब्लिक प्राईवेट पार्टनरशिप में 2000 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्रा में सात शहर विकसित करने की योजना है। इस प्रस्ताव में तीन बंदरगाह, छः हवाईअड्डे, एक तीव्र गति की माल वाहक लाईन, और एक छ लेन की बगैर कटाव का एक्सप्रैस वे बनान शामिल है। इसके लिए भारी मात्रा में जमीन की जरूरत हेागी -2000 वर्ग किलोमीटर 5 लाख एकड़ होता है जोकि दिल्ली के आकार का तीगुणा होगा। जूलाई,2011 में वित्त मंत्राी हर शहर को 2500 करोड़ देने के लिए सहमत गए यानि इन नए शहरों के लिए कुल मिलाकर सत्रह हजार पांच सौ करोड़ रूपया दिया जाएगा। इस परियोजना के लिए धन भारत सरकार के अलावा भारतीय कम्पनियों में जापानी निवेशक  डिपास्टरी रिसिप्ट के जरिए और जापानी कम्पनियों के सीधे निवेश के जरिए एकत्रा किया जाएगा। साथ ही जापान इंटरनेशनल कारपोरेशन एजेंसी (जेइसीए) से कर्ज भी लिया जाएगा। जापान इंटरनेशनल कारपोरेशन एजेंसी के मुताबिक ‘धन का 80 प्रतिशत हिस्सा जापानी कर्ज और सहायता से आएगा।’ इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि जापानी कम्पनियों को इसका ठेका मिलेगा। दो शहरों के बीच तीव्र गति वाली रेल लाईन जापानी तकनीक से निर्मित की जाएगी और इसके लिए रेलवे को जापानी कर्ज मिलेगा। कई भारतीय और जापानी कम्पनियां संयुक्त उद्यम संधि, पर हस्ताक्षर करने के लिए राजी हैं। एक अधिकारी के अनुसार ‘मितसुबिसी, हिताची, तोसिबा और जेवीसी इस परियोजना के लिए हाथ मिला चुकी हैं।’
पंजाब में पुलिस लाठी चार्ज में एक किसान की मौत होने का समाचार आया है। यह किसान मानसा जिले में प्रस्तावित 1,350 मैगावाट की क्षमता वाला ताप विद्युत कारखाना बनाने के लिए जबरन जमीन अधिग्रहण करने के खिलाफ प्रदर्शन में शामिल था। निजी कम्पनी, पोयना पॉवर इस परियोजना को लगाएगी। यह कम्पनी इंडियाबुलस पॉवर की मातहत कम्पनी है। अनेको अनियमितताओं और अनिश्चितताओं के बावजूद राज्य सरकार बल प्रयोग करके जमीन अधिग्रहण पुरा करने पर उतारू है। विदेशी निवेशकों के पास इंडियाबुलस् पॉवर का 32.8 प्रतिशत हिस्सा है, इसके अलावा 58.8 प्रतिशत हिस्सा इंडियाबुलस् रियल एस्टेट लिमिटिड़ के पास है। इंडियाबुलस रियल एस्टेट लिमिटिड़ में विदेशी निवेशक का मालिकाना 51.6 प्रतिशत है। इस तरह इंडियाबुल पॉवर में विदेशी हिस्सेदारी 63 प्रतिशत है।
ये कुछेक उदाहरण है। ये कई गुणा हो सकते हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था कई तरीकों से विशालकाय निजी कारपोरेट क्षेत्र को जमीन और प्राकृतिक सम्पदा लूटवा रही है। हमें इस परिघटना के पति सचेत रहने और इसका अध्ययन करने की जरूरत है।
 (ऐस्पेक्ट आफ इंडियन इकनोमी से साभार)