विषय वस्तु

बुधवार, 30 नवंबर 2011

JOINT PRESS RELEASE - strongly condemn the brutal and cold-blooded murder of Mallojula Koteshwara Rao


DELHI / 30.11.2011

We strongly condemn the brutal and cold-blooded murder of Mallojula Koteshwara Rao alias Kishanji by the security forces in the Burisole forest area of West Bengal.

Now it is very much clear from various sources that the Maoist leader Kishanji was first captured and severely tortured by security forces and then killed in a planned fake encounter under the connivance of both West Bengal and central governments. Mamata Banerjee government of WB has used almost the same weapon of ‘Peace Talk’ to eliminate the Maoist leader as by the R. S. Reddy government in AP.

It is a known fact that the central and various state governments are jointly conducting a special military operation Green to suppress Maoist activities. The unjustified and irrational killing of Kishanji is nothing but a part of state terror being unfettered under ‘Operation Green Hunt’, centrally controlled by the UPA government. It is a clear cut violation of not only the guidelines given by Supreme Court and National Human Rights Commission but also by different international institutions.

It is to note that the state is not only killing the Maoists and their supporters but also viciously suppressing all voices of dissent, especially of democratic and revolutionary forces. We strongly feel that Naxalism / Maoism cannot be suppressed by killing its propagators / leaders and organizing massacres of its supporters.

So, we demand that:

1. The central and state governments should immediately stop ‘Operation Green Hunt’ and physical elimination of Naxal /Maoist leaders and cadres.

2. The central government should set up a high level Judicial Enquiry Committee on the killing of Kishanji.

3. The government should register a case of culpable homicide under section 302 of IPC, so that the killers of Kishanji are forced to face the court trial, as directed by Supreme Court and National Human Rights Commission.

We call upon all the progressive, democratic and revolutionary forces to come together and oppose the killing of Kishanji and the suppression of people’s movements.

We, the undersigned have decided to organize a Protest Demonstration before the Bang Bhavan, 3, Hailey Road, New Delhi-110001 on 2nd Dec. 2011 at 12 AM to show our united anger against state oppression. We appeal to all the pro-people forces to make this Protest Demonstration successful by joining it in huge number.

Signed by:

1. Arjun Pd Singh, PDFI

2. P.K. Shahi, CPI(ML)

3. Narender, Peoples Front

4. Thomas Mathew, Bahujan Vam Manch

5. Shieo Mangal Sidhantkar, CPI(ML) New Proletariat

6. Ashish Gupta, PUDR

7. Anil Chamaria, Journalist

8. Amit, krantikari Nawjawan Sabha

9. G.N.Saibaba ,Revolutionary Democratic Front

10. Mrigank, Navajwan Bharat Sabha

11. Harish, Inquilabi Majdur Kendra

12. Alok Kumar. Krantikari Navajawan Sabha

13. Deepak Singh, NDPI

14. Mritunjay, CCON

15. Banojyotsna, Democratic Students Union

16. Kusumlata, Student For Resistance

17. Bijunayek, Lok Raj Sangathan

18. Ambrish Rai, Social Activist

Contact: 9868638682, 8800356565, 9873315447

सोमवार, 28 नवंबर 2011

‎‎1084 की माँ के नाम

कितनी महान है तूँ

माँ

कत्लगाह के दरवाजे पर

गिनती रही कलम होते सिर तूँ

1084 तक

पथराई हुई चीख को दबा कर सीने में

तूँ भेजती रही वीरों को

रण की ओर

कल एक और मरा है I

1084 वें के बाद

तूँ गिनती तो नहीं भूली

अभ उम्र की ढलती छाया

के साथ I

कल तूँ रोई थी किया

आँखों से छलकती गंगा को

कैसे रोका था तुने

नहीं तुम नहीं रोई होगी

पथराई आँखों में जलती ज्वाला को

लेकर तुने

दुहराया होगा परण

और पुत्रों को

जनम देने का

वह माँ !

तूँ महान जननी है !!

काश सारी माएं

1084 की माँ जैसी हों I

by Randeep Singh

‎1084 की माँ के नाम

कितनी महान है तूँ
माँ
कत्लगाह के दरवाजे पर
गिनती रही कलम होते सिर तूँ
1084 तक
पथराई हुई चीख को दबा कर सीने में
तूँ भेजती रही वीरों को
रण की ओर
कल एक और मरा है I
1084 वें के बाद
तूँ गिनती तो नहीं भूली
अभ उम्र की ढलती छाया
के साथ I
कल तूँ रोई थी किया
आँखों से छलकती गंगा को
कैसे रोका था तुने
नहीं तुम नहीं रोई होगी
पथराई आँखों में जलती ज्वाला को
लेकर तुने
दुहराया होगा परण
और पुत्रों को
जनम देने का
वह माँ !
तूँ महान जननी है !!

काश सारी माएं
1084 की माँ जैसी हों I

by Randeep Singh

रविवार, 27 नवंबर 2011

जीतन मरांडी: कलाकार से जनकलाकार बनने का सफर


एक परम्परा के अनुसार सुरजाही पूजा बाहरी भगवान (भूतों) के लिए होता है। जंगल में महुआ एवं केंद पेड़, दीमक के बिल के पास सम्पन्न होता है। एक दिन इस पूजा के अवसरवत ही अपना नानी घर गए थे। पूजा सम्पन्न होने के बाद गाँव के बाहर जंगल में खाना बन रहा था। मुर्गा, सुआर, भेड़ा का पूजा हुआ था एक नियम के तहत जो भी मांस वगैरह है उसको वही खाकर खत्म करने का था सभी भाई गुतिया लोग अपने-अपने काम में लगे हुए थे। हम बच्चे लोग पत्ता तोड कर लाने का काम सौंपा गया। मांस बनने के बाद खूब खाए पिये। इसके बाद आराम करने लगे थे। कुछ बड़े लोग कहानी शुरू किए तो कुछ गीत गाने लगे। हम लोग केवल श्रोता के रूप में सुनते रहे। इसी बीच मेरे छोटे मामू ने एक गीत गाया। अफगनिस्तान रे बम बारूद साडे कान! भारत दिशोम रे साडे सेटेरना! अफगानिस्तान में बम बारूद का आवाज गुंज रहा है। भारत देश में आवाज पहुँच गया है। क्योंकि उस वक्त शायद अफगानिस्तान में अमेरिका हमला कर रहे थे। इस गीत को आगे और भी पंक्ति है। सुना इसके बाद मेरे एक चाचा ने इस गीत को पूरा लिखा! मैं याद करने का पूरा कोशिश किया। क्योंकि मुझे बहुत अच्छा लगा। चूँकि हर गीत से बिलकूल अलग था। यह गीत मुझे सामाजिक क्षेत्रों में कदम बढ़ाने के लिए प्रेरित किया। गाँव के एक शादी घर में सैकड़ों लोगों के बीच अपनी ही सुर में जब मैंने गाया तब लोग आश्चर्य हो गए। महिलाएं गाने लगी। लोग आनन्द उठाए। इसके बाद से मेरे अन्दर एक निडरता बढ़ता गया। ऐसे ही नये गीत गाने एवं सीखने के लिए मेरा उत्सुकता बना हुआ रहता था।
बारह तेरह साल का उम्र होगा। एक दिन मेरे एक चाचा ने कहा- तुम जो गीत गाता है वैसे ही गाने वाले एवं सिखाने वाले हमारे गाँव में आज दीदी लोग आयीं हैं। नक्सल दीदी लोग है। बहुत अच्छा से बात करते हैं और ऐसा ही गीत सुनाते हैं। गरीबों के बारे में बताते हैं। मैं बोला फिर दीदी लोग आने से मुझे बताया कीजिएगा। मैं भी वहां जाऊंगा। दीदी लोगों से मिलूंगा! गीत सिखूंगा। मुझे डर नहीं था। क्योंकि मेरे मामू घर में भी दीदी लोग जाती थी। और वही दीदी लोगों से ही मेरे मामू एवं भैया लोग इस गीत को सिखा था। तब फिर एक दिन बोला जो दीदी लोग गाना गाती है न वे झारखंड एभेन संस्था से जुड़े हुए हैं। मैं चाचा जी से पूछा क्या होता है झारखंड एभेन? जनता को जगाने वाला यह एक टीम है बताया। जनवरी फरवरी महिना था। शाम को करीब 6 बजे चाचा ने मुझे बुलाया और बताया कि आज परगना चाचा के पास दीदी लोग आयी है। तुम जाओगे? मैं तो सुनकर बहुत खूश हो गया! और बोला हाँ! क्यों नहीं! जबसे मैं सुना दीदी लोगों के बारे में तब से इन्तजार करता रहा था। बस अपने फटा हुआ चादर लिया और दूसरे टोला के चाचा के पास चाचा के साथ गया! आग का पसंगी लगी हुई थी! आग पर ताप रहे थे! आपस में हम लोग ेबात कर रहे हैं गन्दा-गन्दा शब्द को नहीं बोलना है। क्योंकि दीदी लोग इस सब का विरोध करते हैं। लजाना नहीं है! जो भी पूछने पर बताना है। डरना भी नहीं है। हाँ और दीदी लोग आने के बाद सोना भी नहीं है! ध्यान से सुनना है। ठंडा भी बहुत था। पवाल में बैठे हुए थे। कठहल पेड़ के नीचे करीब 20-30 आदमी थे। उनमें कुछ महिलाएं भी थी।
करीब 8 बजे के आसपास रात दीदी लोग खाना खाकर निकल रही है। हम लोगों के पास आ जाती है। बैठ जाती है। एक दूसरे का परिचय पूछती है। बेहिचक किसी मर्द से भी बातचीत करती है। मेरे तरफ देखते हुए एक नियनिया दीदी ने नाम पूछा तब जीतन मैंने अपना नाम बताया। हँसते हुए बड़ी दीदी ने अपने पास बैठाया। पीठ को ठोकते हुए बहुत प्यार से सब कुछ पूछी! कितना भाई हैं। कितना बहन हैं! तुम कौन भाई है! क्या करते हो! मामा-मामी क्या करते है? बहुत कुछ जानकारी लेने के बाद बातचीत शुरू हुई एक सभापति का चयन किया गया। कुछ नये लोग पहुँचे थे। मैं भी नये लोगों में से एक था। दीदी ने मीटिंग में आने के लिए स्वागत ज्ञापन किया! तालियां बजायी गयी। कुछ विषय केन्द्रीत कर बातचीत का सिलसिला आगे बढ़ा। मुझको भी बोलने एवं गाने के लिए कहा गया। थोड़ा सा शुरूआत में संकट आया। फिर भी हिम्मत करके एक गीत बस वही वाला अफगानिस्तान में बम बारूद साडे काम गाया। यह गीत सुनकर जितनी भी दीदी आयी थी बहुत खुश हो गयीं। बड़ी दीदी तो पीठ बहुत थपथपायी। वाह-वाह करते हुए अपने गोदी में बैठायी। मुझे बहुत खुशी हुई। मां के बाद यह दूसरा प्यार किसी अपरिचित दीदी से मुझे मिला। यह मैं मन ही मन बहुत देर तक सोचते रहा। दीदी लोगों ने इसके बाद कई गीत भी प्रस्तुत की। खिचड़ी दिया। खाये, इसके बाद 10 बजेे रात अपने घर चाचा के साथ पहुँचे। मां पूछी- इतनी रात को कहां गया था? हाँलाकि मां थोड़ा बहुत जानती थी। बताया वहां। तब कुछ नहीं बोली। दूसरा दिन सुबह अपने दोस्त यार यह कहानी सुनाने लगे तो बहुत प्रभावित हुए। सभी बोला अगला बार हमको भी बताइएगा। मैं कई गीत भी इस बीच सिख चुका था। अगन-बगन मुंगा रे आम दोरेंगेच् उरिचम जापीत् आकात् मां एमेनोक ताबोंन थे लोगो ने ते तडाम पे दिशोम सधीन बोन तायनोम ऐना। इसका मतलब होता है इस अन्धेरा युग में तुम शोषित पीड़ित सोये हुए हो! चलो जागो, सर साथ लगन के साथ बढ़ो! देश स्वाधीन के लिए पीछे होगए हैं। अब भी एकदम मतलब वाले गीत हैं। अब किसी भी पर्व त्यौहार शादी-विवाह पर अक्सर गाना शुरू किया। महिलाएं बुढ़े लोग, बच्चे लोगों के साथ मेरा घनिष्टता बढ़ता गया। ऐसे और सीखने का जिज्ञासा बढ़ता गया।
1992 के फरवरी या मार्च का महीना था। गाँव में हल्का-फुल्का नक्सलवादी विचार फल-फूल रहा था। कुछ लोग किसान कमिटी का सदस्यता भी ग्रहण कर चूके थे। सही किसानों के हाथ में जमीन और क्रांतिकारी किसान कमिटी के हाथ में तमाम राजनीतिक हुकूमत चाहिए, नारे को अमल करने हेतु गांव में सक्रिय भूमिका में थे। गांव के लोगों को समझाने का कोशिश करते कि यह कमिटी किसानों का है। तमाम तरह की अधिकारों के लिए लड़ने वाला कमिटी है। बताया जाता था कि इस से उ$पर एमसीसी संस्था है। जो खास विचारधारा के बुनियाद पर संचालित है। वैसे सक्रिय लोगों के अगुवाई में गाँव में झारखंड एमेन टीम पूरे ताम-झाम के साथ शाम को पहुँच जाते थे। पूरे गाँव के महिला-पुरुष बच्चे बुढ़े धीरे-धीरे हमारे टोला के मांझी थान के पास जमा हो जाते हैं।
मैं भी बुलावे पर वहां पहुँच जाता हूँ। किसी से परिचित नहीं हूँ। घर में भैया भी गए हुए थे। एक किनारे बैठ जाता हूँ। झारखंड एभेन वाले टीम लाल झण्डा कमर में और माथा में बन्धकर तैयार हो जाते हैं। रोशनी के लिए पेट्रोमेक्स जल रहा था। मांदर-नगाड़ा एक घर से निकाला जाता है। मांदर लिए एक आदमी, जो कसाकेंद गांव का रहने वाला था, आगे बढ़कर उपस्थित माता-बहनों एवं भाई-बन्धुओं का अभिनन्दन करते हुए शांति के साथ बैठने के लिए अपील करते हैं। अर्जून, कहते हैं आज गरीबों का गीत गाया जाएगा। इस गीत में मेहनतकशों का जीवन दशा एवं इससे मुक्ति कैसे मिलेगी, दर्शाया गया है। हमारे जैसे टीम की इस गाँव में भी जरूरत है। इस टीम में कुछ महिलाएं लड़कियां भी थी। जो नाचने एवं गाने के लिए पूरी तरह से तैयार नजर आ रही थी। सभी का पोशाक बस लाल झण्डा युक्त था। जब मैनें गौर से उन लड़कियां को देखा तो बगल गाँव कसाकेंद-गोलाडबर के जैसे लगा। सही भी था। अर्जून और चान्दा ने दाह कोन बिजली बेनाक काना! सर्वहारा दाड़े ते आबोगिबोन ताहेन माना अतुरे आबोगिबोन अहेन मामा दाई बुरारे! सेरमा जोपोत बिल्डींग तैयारोंक कान मजदूर कोबाक दाड़े ते! धरती खोन फोसल तैयारोक कान किसान कोवाक् दाड़े ते! आबोगिबोन ताहेन काना रेंगेच तेताड़ रे! पानी से बिजली तैयार हो रही सर्वहारा ताकत से। आसमान छुते बिल्डींग तैयार हो रही है मजदूरों की ताकत से। धरती से फसल उग रही है किसानों की ताकत से। फिर भी हम अन्धेरा में रहते हैं। झोपड़ी में रहते हैं। भूखे रहते हैं। संथाली गीत सभी लोगों को झकझोर कर रख दिया। गीत गाते हुए मांदर नगाड़ा के ताल पर सभी तैयार लड़के एवं लड़कियां नाचने लगी। एकदम नाच भी प्रभावशाली था। यह नाच एवं गीत मेरे जीवन में एकदम नयापन था। कई गीत को गाया। एक छोटी-मोटी नाटक का भी मंचन किया गया। जिससे दिखाया गया जमींदार लोग द्वारा किसानों गरीबों को कैसे शोषण किया जाता है। इसके लिए किसान कमिटी क्या तैयारी कर रही है। इस तरह का कार्यक्रम होने के बाद गांव से भी एक कमिटी बनाया गया। कुछ शिक्षित लोग कमिटी का सदस्य बना। किसान संघर्ष निर्माण समिति गांव में गठित हुई। कुछ दिन के बाद पुनः वह टीम गाँव में आई। उस दिन प्यारी दीदी जिसने मुझे अपनी गोद मे बिठाया था, से मैं मिला। उन्होनें बहुत प्यार से मुझे कहा- तुम भी गाओ नाचो! मेरे साथ गांव के कुछ मेरे जैसे उम्र के बच्चे भी थे। हम सभी हां में हां मिला दिए। इसके बाद वही नाच गान शुरू हुआ। अर्जून एवं चान्द ने हम लोगों को नाच (युद्ध नृत्य) सिखाने लगे। बहुत उत्सुकता के साथ नाचते लगे कभी इधर कभी उधर कोई ताल से नहीं नाच पाते थे। फिर भी सिखाने वाले गुस्साते नहीं। बड़ी दीदी खुब कहती बहुत अच्छा। बहुत अच्छा। सभी कामरेड ने नाच सिख लिया है। ठीक है कामरेड! वह कहती। थोड़ा बहुत तो नाच को हम लोग सिख लिए। अंत में हाथ मिलाते हुए जाते समय कहती- हमलोग जा रहे हैं। फिर आएंगे। इसी बीच एक चाचा ने कहा- यही दीदी का नाम है रीता दी। शादी शुदा भी नहीं है। मैं सोचा- फिर भी एक बाल बच्चे वाली मां की तरह हमारे साथ ऐसा व्यवहार। वह दीदी से मैं पूरा प्रभावित हो जाता हूँ। जब भी ऐसा ही गाँव में मिटिंग होती, मैं आ जाता। और बातचीत सुनता। ऐसे ही करते-करते गांव में एक टीम तैयार हो गया। साथ में बाल संघर्ष निर्माण समिति भी बना उसका सदस्य मुझको भी बनाया गया। समिति का काम था प्रत्येक दिन शाम को एक जगह जमा होकर गीत गाना। बड़ों से व्यवहार में संस्कार बदलना। गन्दा-गन्दा शब्द नहीं बोलना। साफ सुथरा पर ध्यान देना है। पढ़ाई-लिखाई पर जोर देना। गाँव में झारखंड एभेन टीम बनाना है। बुर्जूआ गीत को विरोध करना है। कोई भी पर्व त्यौहार में क्रांतिकारी गीत गाना है। गन्दी मानसिकता को खत्म कर तमाम लोगों को इसकी ओर जागरूक करना है। जब भी गाँव में ऐसा कार्यक्रम हो तो जाना है। और नये-नये गीत एवं नाच को सिखना है। और भी की सारे ज्ञान को अर्जित करना है। आपस में झगड़ना नहीं है। सभी के साथ दोस्ती बनाकर रहना है। यह चर्चा प्रत्येक दिन करना है। इस तरह करके गांव में एक सांस्कृतिक टीम तैयार हो गया। टीम बनने के बाद छोटा छोटा तीर धनुष हम लोगों ने बनाया। लकड़ी का बन्दुक भी बनाये। कुछ लाल झण्डा भी बड़े लोगों ने मांगाया। सारे साजोसामान के साथ ऐसा नाचना गाना हम लोगों ने भी गाँव में शुरू किया। नाचने-गाने वालों की संख्या गांव में करीब 100 के आसपास पहुँच गयी। इसमें कुछ लड़कियां भी थी।
उसी साल 1992 में नारी मुक्ति संघ द्वारा गिरिडीह में एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया था। इसमें हम लोगों को भी बुलाया गया। जुलूस एवं आम सभा था। 8 मार्च अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस का कार्यक्रम था। जब हम लोग गिरिडीह पहुँचें तो हम लोग जैसे बहुत सारी टीमों को हमने देखा। सभी अगल-बगल गाँव के थे। पूरा जनता का भीड़ जमी थी। जुलूस के आगे-आगे सिखाया गया नाच को हम लोग भी नाचने लगे। तीर एवं बन्दूक का निशाना लगा कर नाचते रहे। पूरे शहर में यह नाच जुलूस के आगे-आगे करते जाते थे। झण्डा मैदान पहुँचने के बाद वही दीदी हम लोगों के पास आ जाती है। और चीनी का शर्बत पिलाते हुए पूछती है। कैसे लगा कार्यक्रम? क्या तुम लोग थक गए हो। हम लोग ने कहा दीदी बहुत अच्छा लगा। और भी नाचने का मन करता है। हांलाकि हम लोग थक चूके थे। इसके बाद एक जगह बैठ गए। और चुड़ा-गुड़ खाने लगे। तब तक शाम हो चूका था। जेनरेटर के लाइट से मैदान जगमगा रहा था। लाउडस्पीकर का आवाज गूंज रहा था। हिन्दी समझ में नहीं आती थी। कुछ महिला एवं पुरुष लोग स्टेज में चढ़कर भाषण देने लगे। पूरा मैदान भरा हुआ था। कुछ देर के बाद कुछ लड़कियां स्टेज पर चढ़कर संथाली में गाने लगी। क्रांति पुरब पश्चिम। क्रांति उभार दक्षिण। क्रांति चरियाकोन फैलाव ऐना। संथाली गीत आकर्षित किया। इसके बाद मार्क्सवाद-मार्क्सवाद देमांक् दर्शन। लेनिनवाद -लेनिनवाद रेयांक दर्शन! गीत बहुत अच्छा लगा क्योंकि दोनों गीत संथाली में था। इसलिए सिखने का इच्छा और बढ़ा कुछ देर के बाद खिचड़ी खाने के लिए बगल में ले गया। वहां पर भी वही बड़ी दीदी बहुत ध्यान दे रही थी। बाद में हम लोग गमछा बिछा कर वहीं खूले आसमान के नीचे सो गए। जब भी गीत सुनते तुरन्त उठ जाते थे। झण्डा मैदान में रात भर गीत एवं भाषण चला। सुबह गाड़ी में बैठकर घर आ गए।
दीदी के साथ सभी बच्चे का दोस्ती बढ़ता गया। लगातार दीदी के साथ और भी दीदी आती थी। सभी दीदी लोग बेटा एवं बेटी करके पुकारा करती थी। तब तक धीरे-धीरे समझ में आने लगी कि यह समाज बदलने की लड़ाई को आगे बढ़ाने के लिए हम लोग संगठित एवं जागरूक हो रहे हैं। थोड़ा बहुत स्कूल में पढ़ाई भी सीख गया था। कुछ पर्चा पढ़ना शुरू किया। केन्दुपत्ता मजदूरी वृद्धि आन्दोलन का पर्चा पढ़ा। नशाखोरी के खिलाफ प्रचारित पर्चा पढ़ा। गन्दी संस्कृति के खिलाफ पर्चा गांव में वितरण किया जा रहा था। यह सारे पर्चा पढ़कर बहुत कुछ जानकारी प्राप्त हुआ गिरिडीह कार्यक्रम का पर्चा को भी पढ़ा। अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर विस्तार से विश्लेषण किया गया था। कुछ किताबें पढ़कर हम लोगों को समझाया जाता रहा। शोषक-शासक क्या है? पुलिस-मिलिट्री क्या करते हैं? मजदूरों किसानों को कैसे शोषण किया जाता है। आखिर हम लोग गरीब क्यों हैं। हम लोग क्यों डरते हैं। जनता के लिए लड़ते हुए कौन शहीद हुए हैं। बहुत कुछ बैठक में जानकारी मिलते रहा। रात में तीन चार घंटा तक गांव में मिटिंग होती। बीच-बीच गीत भी होती।
15 अगस्त का दिन था। पीरटांड प्रखण्ड कार्यालय के पास एक आम सभा रखा गया था। बाल स्वयंसेवक वाहिनी के तरफ से एक पर्चा भी छपवाया गया था। जब हम लोग जुलूस में गये तो बहुत सारे बच्चे लोग को देखा। ये आजादी झूठी है। देश की जनता भूखी है। हाथ में लिए तख्तियां लिये बच्चे जुलूस में नारा बुलन्द कर रहे थे। हम लोगों का भी दिया। साथ में नारा देने लगे। आमसभा में कुछ बच्चे वक्तव्य दिया। कहा जा रहा था कि ये आजादी गरीबों, बच्चों के लिए नहीं बल्कि अमीरों के लिए है। पर्चा में भी वही सब विश्लेषण था। क्योंकि पढ़ने के लिए किताब नहीं, कापी नहीं! कलम नहीं हैं। पहनने के लिए चप्पल नहीं! सिर को ढ़कने के लिए कपड़ा नहीं यह कैसी आजादी है? बीमारी के समय दवा नहीं मिलता है! खाने के लिए खाना नहीं है। यह सब चर्चा मुझे सही लगा। इसी तरह चर्चा सुनकर मेरे अन्दर एक जज्बा पैदा हुआ कि आखिर मैं क्या हूँ। मैं भी इस तरह बोल सकता हूँ। इसके बाद से मैं सक्रिय होने लगा। झारखंड एभेन टीम के साथ घुमना शुरू किया। नाच-गान को उन्नत करने का कोशिश किया। इस तरह काम में जाने पर हालांकि मां ने दबाव डाला। मगर मैं नहीं माना। खूद पेशेवर के रूप में घर से निकल कर जागरूकता टीम के साथ हो गया। एक बार जब मैं दो-चार दिन के बाद घर गया तो मां पूरा रोने लगी। बोली मत जाओ बेटा। घर में रहो। मुझे ठीक नहीं लगता है। दूसरे तरफ मेरे पिताजी घर से भागने के लिए कहते। पूरा जोर-जोर से डांट रहे थे। मैं कुछ निर्णय नहीं कर पा रहा था। क्या करूं क्या नहीं। कुछ दिन तक घर में रहा। घर में रहने पर एकदम मन नहीं लगता था। फिर टीम आयी गाँव में, तब मैं पुनः टीम के साथ चला गया। यह कह कर कि फिर आऊंगा। उस समय मेरा उम्र करीब 15-16 वर्ष था। तब तक स्कूल की पढ़ाई छोड़ चूका था। क्योंकि समय पर किताब कापी का जुगाड़ नहीं हो पाता था। तीसरा क्लास तक मात्रा गावँ के गुरूजी से पढ़ पाया।
1995 में उत्तर प्रदेश के बनारस में प्रेम चन्द जयन्ती के अवसर पर एक हॉल कार्यक्रम था। साथ ही जुलूस भी होने वाला था। टीम में जाने के लिए अर्जुन और चान्द ने मेरे नाम का भी चयन किया था। शायद पांच सितम्बर का दिन था। आठ-दस की संख्या टीम में थे। मैं सब से जुनियर था। वही साजो-सामान के साथ गोमों स्टेशन हम लोग शाम को पहुँचे। कुछ लड़कियां भी थी। एक-दो लड़कियों से मैं परिचित था, जो गाँव में जाती थी। शाम में होटल में खाना खाने के बाद स्टेशन में बैठे हुए थे। ट्रेन आने के पहले तैयार हो गए। स्टेशन में भीड़ बहुत थी। बनारस जाने के लिए करीब 20-30 आदमी जुट गए थे। बहुत हड़बड़ी में ट्रेन में चढ़ गए। सीट भी नहीं मिला। ऐसे ही खड़े-खड़े जाना पड़ा बनारस तक। कुछ देर तक कुछ दीदी लोगों ने अपने पास सीट में बैठायी। किसी का नाम नहीं पूछ पाया। क्योंकि अपरिचित होने के वजह से लज्जा लगती थी। बनारस पहुँचने के बाद हॉल में पहुँच गए। बहुत सारे लोग पहुँचे हुए थे। लगता था अच्छे-अच्छे लोग हैं। कार्यक्रम शुरु हुआ। हिन्दी बहुत कम समझ रहा था। प्रेमचन्द के बारे में बहुत वक्ताओं ने अपना विचार रखा। हम लोगों के साथ गए एक बड़े आदमी ने भी वक्तव्य रखा। वह आदिवासी ही थे। मैं चान्द को पूछा कौन है? चान्द ने भस्कार दा है बताया। आदिवासी भी इतना बुद्धिजीवी मन ही मन में बहुत देर तक सोचा। कुछ देर के बाद झारखंड एभेन टीम को गीत पेश करने के लिए पुकारा। तब तक हम लोग झण्डा-घुघ्ंारू-धोती पहनकर तैयार थे। नाचते हुए स्टेज पर चढ़ गए। गौतम मुर्मू मांदर बजा रहे थे। फिर एक साथी नगाड़ा ठोक रहे थे। चान्द, सिरमाल, सिद्धु सुरेश, निलाम्बर के नेतृत्व में कतारबद्ध होकर खड़े हो गए। सुन्दर मरांडी ने संथाली में ही एक गीत का शुरूआत किया। पुराना संथाली सुर में ही। सजाक् आबोन बोयहा आराक-आराक् झण्डा ते। तैयार होना है लाल लाल झंडा से। गीत के साथ मांदर के ताल पर एक्टींग की। उपस्थिति दर्शकों ने भरपुर तालियां बजायी। हम लोगों का फोटो खिंचा जा रहा था। इस तरह कार्यक्रम ने मुझे बहुत प्रभावित किया। भास्कर दा ने हम लोगों के पास आने के बाद सभी से हाथ मिलाते हुए कहा बहुत अच्छा कार्यक्रम रहा। इसके बाद एक दीदी भी संथाली से बोल रही थी, पास आयी और बोली- आडी बेस पे अदूक केदा। कुछ नये लोगों से नाम भी पूछा। मैंने अपना नाम बताया। मैं चान्द को पूछा- ये दीदी का नाम है? चान्द ने सभी का दीदी है बताया। सभी का दीदी ही क्यों। मन में मंथन करने लगा। फिर पूछा- यह कैसे हो सकता है? बोला हां। सभी के बड़ी दीदी ही है। खैर जो भी हो ज्यादा नहीं पूछा। हॉल का कार्यक्रम समाप्त होने के बाद जुलूस भी था। बारिश की वजह से जुलूस आधा रास्ता से ही खत्म कर दिया गया। फिर दूसरी ट्रेन से गोमों स्टेशन वापस लौट आए।

STOP STATE TERRORISM ON THE DEMOCRATIC PEOPLE’S MOVEMENT IN NARAYANPATNA


23 November 2011

BHUBANESWAR

On 20 November 2011, we, the undersigned, were heading towards Podapadar village in Narayanpatna block of Koraput district where the Chasi Mulia Adivasi Sangha (CMAS) was to organize a public meeting to pay tribute to the sacrifices made by two of their frontline leaders, Wadeka Singana and Nachika Andrew, who had fallen prey to state terror two years back on the same day. On 20 November 2009, hundreds of ‘unarmed’ adivasis had assembled at the Narayanpatna police station to register their protest democratically against untold excesses committed by police and paramilitary forces on them in the pretext of combing operations. But, the police – in the most undemocratic and barbaric manner – indiscriminately fired at the people in which Wadeka Singana and Nachika Andrew fell dead inside premises of the police station and several were wounded.

The CMAS has been fighting to restore the rights of native communities over their own land and resources, to shut down illegal liquor shops, and to reclaim their cultural ethos on face of the hegemony established by non-adivasi landlords, moneylenders, and bootleggers. The democratic movement has questioned the unconstitutional manner in which the state had played facilitator to the cultural and economic appropriation in a ‘scheduled’ area. The CMAS has also strongly come in the way of the state’s nefarious plans to hand over the Deo Mali range to mining hawks for profits at the cost of the economy and culture of the local adivasis. To ensure protection to the land-grabbers, liquor traders, and corporate interests, a state of terror has been let loose in the area, with police and paramilitary forces given impunity for their excesses.

As we were travelling in a vehicle passing through Bandhugan and then Narayanpatna, the expected buzz in the atmosphere on this important day was somehow conspicuously absent. However, no one could miss to notice the heavy, intimidating presence of armed BSF men along the road in the adivasis heartland: some of them roaming about with fierce, suspicious eyes and some standing on guard waiting to fire at some dreaded ‘enemies of the state’ about to appear somewhere. We drove past a BSF camp in Bandhugan and another in Narayanpatna, and no sooner we sighted yet another at Basnaput village, we bumped into a roadblock. At least a dozen gun-trotting BSF men were standing on our way, besides the road being clogged-up with logs and stones by them. Podapadar was still two kilometres away.

The BSF men stopped our vehicle and asked us to turn back, despite them being introduced to the team that comprised media persons, social activists, and writers. We tried to convince them for hours that the forces had no constitutional right to curb free movement of any citizen and that the public meeting called by the CMAS at Podapadar was well within democratic sanctions and, therefore, they had no right to stop or intimidate people coming to attend the meeting. We were, in turn, kept engaged by the BSF men and the thana in-charge of Narayanpatna in meaningless discussions without them giving any appropriate reason for not allowing us to proceed. They kept repeating some hollow explanations: “We are instructed from higher authorities not to let anyone go beyond this point” or “Maoists have laid landmines on the way” and so on. The district collector on phone expressed ignorance about any such order ‘from above’ to stop people while the Koraput SP did not pick his phone. Interestingly, right at that point, a tractor was allowed to go ahead on the way where ‘Maoists had laid landmines’, and about an hour later, the same tractor came back unscathed. After more than three hours of debate, we had no option other than returning from Basnaput village.

On our way back, between Basnaput and Bandhugan, we met several people who narrated to us how the paramilitary forces had attacked and brutally beaten them up when more than a thousand people were peacefully marching towards Podapadar to join the event. Even women and children were not spared; a 12-year-old boy looked terrified and baffled as he showed us his badly swollen face and narrated the assault on the people! Later in the day, we further learned that police and paramilitary forces had forcefully stopped and terrorized at different places thousands of people coming to join the meeting from various directions. Despite such air of terror unleashed all around by the forces, more than 5000 people had assembled at the Shahid Stambha (martyr’s pillar) at Podapadar. The forces reached there too in the afternoon and started beating up the people mercilessly in attempts to disperse them. Several people were injured, some severely, and at least three of them have been arrested. In the evening, at around 9 pm, we got the news that police had demolished the Shahid Stambha for the second time within a year. This is an extremely obnoxious act of cultural violence in which people are denied their fundamental right to remember and pay homage to their dead ones.

Having witnessed firsthand a day of intimidation and terror in the Narayanpatna block, the stark images of a ‘police state’ and repression on people’s democratic voices only came clearer to us at the end of the day. And, from that, arise many a question:

· The CMAS and the people of Narayanpatna are fighting to restore their due rights over land and resources, which the state should rather be facilitating to ensure. Why is the state treating them as dreaded criminals instead? Has the state already decided to abandon the Constitution?

· Under which law is the martyr’s day observed by the people of Narayanpatna an unlawful act that the state let loose such large number of police and paramilitary forces to stop it by terrorizing and brutally beating up innocent people?

· Have we already formally become a ‘police state’ that freedom of expression and free movement of ordinary citizens are crushed in such barefaced manners?

· Why is the state so evidently reluctant to settle land disputes in the area? Why are hundreds of people who simply asked for their due rights over their own land still languishing in jail, and those who have been perpetrating untold violence on the local people are given state protection?

If the state claims to have any respect for the Constitution, we expect it to meet our following demands IMMEDIATELY:

· Withdraw the entire paramilitary forces from Narayanpatna.

· Release all the people of Narayanpatna who have been illegally put behind bars.

· Withdraw all the cases falsely registered against hundreds of adivasis in the Narayanpatna area, including those against CMAS leader Nachika Linga.

· Settle all land disputes in the area after duly consulting the local people.

· Scrap all the MoUs with corporate and government entities relating to mining on the Deo Mali range.

And we appeal to all democratic forces to join us in condemning and protesting against such atmosphere of terror being unleashed by the state in Narayanpatna.

Sincierly,

RABI DAS, Senior Journalist and Editor, Ama Rajadhani

PRAFULLA SAMANTARA, Convenor, Lokshakti Abhiyan Odisha, and Convenor, NAPM

DANDAPANI MOHANTY, Convenor, Odisha Jan Adhikar Manch

LENIN KUMAR, Writer, and Editor, Nisan

SUBRAT KUMAR SAHU, Independent Filmmaker and Journalist

contact:

Lenin Kumar-9437293983

शनिवार, 26 नवंबर 2011

condemn the cold-blooded murder and planned assassination of Kishanji

Press Statement on the cold-blooded murder of Maoist Leader, Kishanji

25/11/2011

We strongly condemn the cold-blooded murder and planned assassination of Kishanji alias Mallojula Koteswara Rao, Politburo Member of CPI (Maoist) in Burishol forest area, Paschim Midnapore District, Jangalmahal, West Bengal on 24 November 2011. At the time of this murder Kishanji was dealing with the process of peace talks through the interlocutors appointed by the Chief Minister of West Bengal Ms. Mamata Banerjee. Such a heinous crime should be condemned by all justice loving people.

According CPI (Maoist) statement issued to the media on today, Kishanji was arrested and tortured and then brutally killed. This murder looks much similar to that of Azad’s in July 2010, when Azad was brutally tortured and killed while he was dealing with the Union Government’s offer of peace talks through union Home Ministry appointed interlocutor.

In these circumstances, the Joint Forces’ story of a fierce gun battle in Burishol forest of Paschim Midnapore district comes out to be a concocted one. It is significant that the mother of Kishanji, Ms. Madhuramma while maintaining it is a fake encounter has also demanded a judicial enquiry. Under the circumstances, we demand:

1. The fake encounter killing of Kishanji should be investigated by a Judicial Enquiry Committee of a sitting or retired judge of Supreme Court.

2. Immediately register a case of Murder against the police, and paramilitary personnel who have claimed to have killed Koteswara Rao alias Kishanji, Politburo member, CPI (Maoist) in Burishol Forest area, Paschim Midnapore District, Jangalmahal, West Bengal taken place on 24-11-2011.

3. All those who are the suspects and involved in this coldblooded murder should temporarily be removed from the office till the Judicial Enquiry is completed.

4. Kishanji’s body should be airlifted to Hyderabad and handed over to his mother after proper post-mortem being conducted by the designated team of doctors and forensic experts not below the rank of civil surgeons.

5. Meanwhile, Kishanji’s body should be preserved with appropriate embalming.

B D Sharma

Former National Commissioner for Scheduled Castes and Tribes

G N Saibaba

Deputy Secretary

Revolutionary Democratic Front (RDF)

with regrads,

Kishenji: An Indian Patriot And Hero For All Times

By Trevor Selvam

25 November, 2011
Countercurrents.org

Kishenji, the Maoist guerilla commander who was killed two days ago by the Joint Forces of the West Bengal Police Force and the Counter Insurgency Force deployed by Mamata Banerjee, organized the working poor of India’s tribal and Adivasi belt for thirty four years. He was there in the mountains, the villages, the forests of India, building mass organizations, organizing village defense forces, setting up a peoples’ militia and then the rudiments of a liberation army amongst the peasantry of that region. Kishenji, an engineering graduate and longtime communist activist, survived with the support of the local villagers and was able to build the Maoist organization by leaps and bounds, for the past decade. The world needs to know about this man.

The former rulers of Bengal, the CPI(“Marxists”) did not like Kishenji and made every attempt to eliminate him. They came very close to doing so, but each time he was able to evade the security forces. The State Forces of India led by Mr. PC Chidambaran had tried everything in their capacity to murder him, under one pretext or the other. The entire mass media of India, never stopped referring to him as a “terrorist.” Mamata Banerjee, smug as she sounds these days and deliberately provocative, lied and spoke through both sides of her mouth, when she asked for a judicial inquiry into the killing of Azad, the Politburo member of the Maoists. (Azad was arrested by India’s security forces in Nagpur and then taken into the forests of Andhra and shot dead in an “encounter.” The Indian Police Forces have earned worldwide infamy for the way they blatantly lie and kill militants in cold blood after arresting them.) Mamata Banerjee even insisted on the withdrawal of the Joint Forces from Jungle Mahal, in her election Manifesto. Then she went back on her word after she was elected. If there was ever a two timing liar in Bengal politics, Mamata Banerjee wins the award, hands down. Surrounded by a flock of sycophantic grease balls, Mamata Banerjee has exposed her hollow pronouncements about “bringing back democracy” to Bengal, within a short span of six months, by unleashing the Joint Forces on the Maoists and the people of Jungle Mahal.

From organizing the Lalgarh movement alongside his comrades in various mass movements and developing a tremendous savvy with the media, Kishenji was a stalwart Indian revolutionary, who dedicated his entire life to “serving the people.” He was responsible with his comrades, to set up the rudiments of peoples’ court, rural schooling systems, irrigation ditches, mobile hospitals and dispensaries.

Now, he did not have a fierce and handsome visage like Che Guevara, who fought only about fifteen to eighteen years in the jungles of Cuba, Angola and Bolivia, with relatively sophisticated arms including armored carriers and battle tanks at some point. Kishenji’s pictures are sparse, always with his head covered by a shawl to conceal his identity. He will never be known as widely as Che—but here was an Indian hero who fought till the end for his people, AK-47 by his side. He was neither a romantic, nor a demagogue. He simply was a mature revolutionary who needs to be remembered.

In this world, chock full of theories of change, ideological confusion, flawed movements and asinine sanctification of non-violence, (while structural violence is left ignored), Kishenji was a warrior for peace.

Trevor Selvam is a frequent contributor to Countercurrents

गुरुवार, 24 नवंबर 2011

जनकलाकार जीतन मरांडी का सफरनामा


नाम-जीतन मरांडी उम्र-३२वर्ष, पिता का नाम- स्व. बुधन मरांडी, ग्राम-करन्दो, पो.- चिलगा, थाना- पीरटांड, जिला- गिरिडीह, झारखंड
अस्सी के दशक में मेरी जन्म गरीब किसान परिवार में हुईई।घर की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी। महाजनी शोषण का शिकार बने हुए थे। जिससे अच्छी पौष्टिक आहार बचपन में नसीब नहीं हुआ। जरूरत के अनुसार कपड़ा लता भी नहीं मिलती थी। ऐसी भयानक दौर में मेरा पैदा होना खुशहाली बचपनी जिन्दगी नहीं जी पाया। 11-12 साल के उम्र में प्राथमिक मध्यविद्यालय में मेरी नामांकन कराया गया। फटे-पुराने कपड़ा पहन कर सिलेट पेंसील लेकर विद्यालय जाना शुरू किया। किसी तरह तीन साल तक ही स्कूल में पढ़ाई कर पाया। जिससे नाम एवं अक्षर ज्ञान तक ही सिख पाया। क्योंकि एक तरफ घर के काम में भी हाथ बंटा रहा था। खास करके जानवर की देखभाल करना था। पढ़ाई की इच्छा रहने के बावजूद गरीबी पढ़ने नहीं दिया। जिससे 1993 में स्कूल छोड़ देना पड़ा।
झारखंड एभेन (जागृति) का गठन 1984 में होगयी थी। मूल तौर पर यह संस्कृति संगठन है। दबे-कुचले जनता को जगाने के ख्याल से गाँव-गाँव में सांस्कृतिक कार्यक्रम अभियान चला रहे थे। 1994 आते-आते झारखंड एभेन टीम हमारे गाँव में दस्तक दी। जो गीत नाटकों के जरिए जनता को जगा रही थी। गरीबों की स्थिति को बयां करते हुए उससे उभरने के लिए नई दिशा दे रही थी। झारखंडी जनता की पराम्परा संस्कृति को बचाये रखते हुए गन्दी संस्कृति को ध्वस्त कर जनवादी संस्कृति का निर्माण करने हेतु जनता को प्रेरित करते थे। नशाखोरी, दहेज प्रथा, अन्धविश्वास एवं नारी शोषण के खिलाफ आन्दोलन की बिगुल भी बजा रहे थे। इन सब कार्यक्रमों को देखकर मैं काफी प्रभावित हुआ। जो ऐसे पिछड़े हुए क्षेत्रा में नई आन्दोलन थी। तब तक मैं 14-15 साल का हो चूका था। ऐसी चीजो को समझने लगा। तमाम तरह की पहलू को समझते हुए संगठन के साथ जुड़ने का इच्छा जताया। इसके बाद 1994 में झारखंड एभेन के साथ जुड़ गया। और विभिन्न तरह के कार्यक्रम में हिस्सा लेने लगा। जिससे और प्रेरणा मिलते गया। साथ ही सही मार्ग दर्शन भी। कुछ साल होते-होते जिम्मेवारी का भूमिका भी निभाने लगा। झारखंड एभेन लोकप्रिय संगठन बनने लगा। गाँव एवं इलाके में कमिटी बनती जा रही थी। 1997 में दो हजारीबाग एवं बोकारो जिला कमिटी भी सम्मेलन कर बना। जिससे हजारीबाग जिला कमिटी का सचिव मुझको बनाया जिससे संगठन का विस्तार होता गया। छोटे छोटे बच्चे एवं नौजवान क्रांतिकारी गीत गाने लगी। गाँव-गाँव में नाटक खेल लगे। पर्व-त्यौहारों में लोग क्रांतिकारी गीत गाकर मनोरंजन करने लगे। आम मेहनतकश महिलाएं एवं नौजवानों ने खुद गीत रचना शुरू की। फिल्मी गाना को छोड़कर जनता क्रांतिकारी गीत गुनगुनाने लगी। दहेज प्रथा, नशाखोरी एवं अंधविश्वास के खिलाफ जन गोलबन्दी आन्दोलन उठने लगी। अर्थात संास्कृतिक क्षेत्रा में बदलाव आने लगी। विभिन्न जन संगठनों के साथ गीत बनाकर मुद्धा आधारित कार्यक्रम से जनता के अन्दर मजबूत पैठ बनने लगी। विभिन्न तरह के महान ऐतिहासिक दिवस पालन करने हेतु जनता को प्रेरित करने के काम में भी एभेन की भूमिका अहम होती गयी। जैसे-अन्तराष्ट्रीय महिला दिवस, मई दिवस, बिरसा जयन्ती, हूल दिवस, भगत सिंह का शहादत दिवस इत्यादि।
महान ऐतिहासिक मई दिवस के अवसर पर 7 मई 1999 को केदला (घाटो, हजारीबाग) में मजदूर मुक्ति संगठन के बैनर तले कार्यक्रम का आयोजन किया गया था। हजारीबाग पुलिस धारा 144 लगाकर कार्यक्रम में जमा हुए जनता के ऊपर लाठी चलाने लगी और कुछ कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार भी की। जिसमें मुझको को भी गिरफ्तार किया और 9 मई को फर्जी मुकदमा लाद करके हजारीबाग जेल भेज दी। एक महीने सात दिनों बाद वहां से जमानत पर छुटे। यह मेरा पहला जेल यात्रा था। इस तरह पुलिसिया दमन के बीच संगठन को मजबूत करने हेतु और जोर दिया। जो 2000 में अपने द्वारा रचित क्रांतिकारी गीतों को हम लोगों ने ऑडियो कैसेटों में सजाया। जो पहला प्रकाशन था और जनता के अन्दर काफी प्रभाव डाला। क्योंकि क्षेत्रिय भाषा संथाली, खोरठा, नागपुरी में गीत थी। इसके बाद 2001 में गिरिडीह जिले के डुमरी थाना अन्तर्गत एक गाँव में रूढ़ीवादी संस्कृति एवं परम्परा का विरोध करते हुए क्रांतिकारी रीति रीवाज से पांच जोड़ों का झारखंड एभेन के पहल पर शिविर विवाह का सम्पन्न कराया गया। इस तरह के कार्यक्रम से जनता के अन्दर शुभ संदेश गया। इससे जनता की पूर्ण समर्थन मिली। विभिन्न इलाकों में इस तरह का कार्यक्रम होते रहा। जनवादी गीत संगीत को व्यापक रूप से प्रचार करने हेतु और कैसेटों को हम लोगों ने 2002 में प्रकाशित किया। इसमें खास करके नारी मुक्ति के सवाब पर ज्यादा गीत थी। हिन्दी खोरठा एवं संथाली में था। इसका भी नजात के पास व्यापक प्रभाव पड़ा। इस बीच पटना के मिलन हाई स्कूल मैदान में नारी मुक्ति संघ, बिहार-झारखंड द्वारा आठ मार्च, 2003 को अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर रैली एवं आमसभा का आयोजित की गई थी। व्यापक रूप से प्रचार-प्रसार करने हेतु संघ के आमंत्राण पर हम लोग भी पहले ही पटना पहुँच गये थे। इसी बीच एक कम्प्युटर सेन्टर से पुलिस ने 25 फरवरी, 2003 को गिरफ्तार कर लिया और नेपाल एवं बिहार के आठ लोगों के साथ जोड़ कर फर्जी मुकदमा देकर 27 फरवरी, 2003 को पटना जेल भेज दिया। वहां से 11 महीने के बाद मैं हाईकोर्ट से जमानत पर निकला। इस तरह दमन के दौर में झारखंड एभेन का विकास होते गया। जिसका दुमका एवं राँची जिला के विभिन्न क्षेत्रों में हमारे संघ का विस्तार हुआ। कई स्तर में कमिटी भी बनी। इसकी केन्द्रीय टीम बनी। जो विभिन्न अवसर पर देश के बड़े शहरों में भी कार्यक्रम कर चूकी है। हम लोग कई भाषाओं में गीत गाने लगे। इस तरह प्रभाव को देख धनबाद पुलिस ने दुबारा 29, जुलाई, 2005 को मजदूर संगठन समिति का प्रधान कार्यालय अगरपथरा करतरास, धनबाद से मजदूर नेताओं के साथ गिरफ्तार की। लगातार चार दिनों तक यातनाएं देते रहे और एक अगस्त को मंडल कारा धनबाद हम लोगों का ेभेजा, वह भी फर्जी मुकदमा देकर। पांच महीने 14 दिनों के बाद हाईकोर्ट से जमानत मिली और मैं निकला। वहीं पर मैंने कुछ गीतों का निर्माण किया जो विस्थापन एवं पुलिस दमन पर आधारित था। बाद में आडियो कैसटे बनाकर जनता के पास हम लोगों ने प्रस्तुत किया है। कुल मिलाकर संथाली, खोरठा, नागपुरी एवं हिन्दी में नौ कैसेटों का हम लोगों ने प्रकाशन किया है।
गरीब के जिन्दगानी कैसेट को एलबम में उतारने के लिए हमारी तैयारी चल रही थी। इसी बीच चिलखारी कांड हुआ। जिसमें गलत ढंग से उस कांड में मेरा नाम को जोड़ दिया गया। घटना के दिन अपने टीम के साथ एलबम की सुटींग में थे। अखबार में गलत तस्वीर छपवा कर सनसनी फैला दी गई। मेरे तरफ से खंडन आया, पर हमारी खंडन को नहीं माना गयी। पांच महीने के बाद राँची रातु रोड से राँची पुलिस ने 5 अप्रैल, 2008 को गिरफ्तार किया और कोतवाली थाना कांड संख्या 696/07 में गलत आरोप लगाकर जेल भेज दी। इसके बात 12 अप्रैल 2008 को चिलखारी कांड या देवरी थाना कांड संख्या 167/07 में गिरिडीह पुलिस रिमांड की। इसके बाद कई फर्जी मुकदमा मेरे ऊपर लगा दिया गया। जो आज तक मैं गिरिडीह जेल में तीन साल के बन्द हूँ।

जीतन मारंडी,
16/03/2011,
जेल, गिरिडीह

बुधवार, 23 नवंबर 2011

'मृत्युदंड के ख़िलाफ़ अभियान होगा तेज़'

उमर फ़ारूक़
बुधवार, 23 नवंबर, 2011 को 00:47 IST तक के समाचार

आंध्र प्रदेश में बुद्धिजीवियों, लेखकों, कवियों और अन्य कलाकारों की एक समिति ने झारखंड के आदिवासी कार्यकर्ता और कलाकार जीतेन मरांडी को मृत्यु दंड देने के फ़ैसले के विरुद्ध अपना अभियान और भी तेज़ करने का फ़ैसला किया है.


रखंड में गिरिडीह की अदालत ने इसी वर्ष जुलाई में मरांडी और उनके तीन साथियों को चिलकारी में 20 लोगों की हत्या के मामले में मौत की सज़ा सुनाई थी.इस समिति में अनेक संगठनों के प्रतिनिधि शामिल हैं. यह फ़ैसला एक ऐसे समय किया है जब रांची उच्च न्यायालय मृत्यु दंड के विरुद्ध जीतेन मरांडी और उनके तीन साथियों की अपील पर बुधवार से सुनवाई करने वाला है.

26 अक्तूबर 2007 में माओवादियों के एक हमले में पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी के पुत्र अनूप सहित 20 लोग मारे गए थे.

आरोप

इस घटना के एक वर्ष बाद पुलिस ने आदिवासी कार्यकर्ता जीतेन मरांडी को गिरफ़्तार कर उन पर इस घटना में लिप्त होने का आरोप लगाया था.

जीतेन मरांडी का कहना था कि उनका इस मामले से कोई संबंध नहीं है और पुलिस उन्हें माओवादी जीतेन मरांडी समझ रही है, जबकि वे एक अलग व्यक्ति हैं.

जीतेन मरांडी समर्थकों का कहना है कि जीतेन को जान-बूझकर राजनीतिक कारणों से इस मामले में फंसाया गया है.

क्रांतिकारी लेखक संघ के कार्यकर्ता और कवि वारावारा राव ने कहा कि मरांडी को इसलिए निशाना बनाया जा रहा है कि वो खनन करने वाली कंपनियों के फ़ायदे के लिए आदिवासियों को उनकी भूमि से बेदखल करने के ख़िलाफ़ अभियान चला रहे थे और उसके लिए उन्होंने मुख्यमंत्री के निवास स्थान पर प्रदर्शन भी किया था.

इसके अलावा मरांडी राजनैतिक क़ैदियों की रिहाई की समिति के भी संयोजक भी हैं.

रैली

वारावारा राव ने कहा कि एक दिसंबर को हैदराबाद में जितेन मरांडी को मृत्यु दंड के विरुद्ध एक बड़ी रैली आयोजित की जाएगी क्योंकि उसी दिन 1975 में आंध्र प्रदेश के एक क्रांतिकारी क्रिस्टा गौड़ को फाँसी पर चढ़ाया गया था.

उन्होंने कहा कि आंध्र प्रदेश में इससे पहले नागभूषण गौड़ और दूसरे क्रांतिकारियों को जब मृत्यु दंड सुनाई गई थी, तो उसके विरुद्ध भी बड़े पैमाने पर आंदोलन चलाकर उस फ़ैसले को रुकवाया गया था.

वारावारा राव और दूसरे कार्यकर्ताओं ने कहा कि वे जीतेन मरांडी के समर्थन में न केवल पूरे देश में बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी अभियान चलाएंगे.

यह मामला इसलिए भी काफ़ी अहम बन गया है कि भारत का संविधान लागू होने के बाद से यह पहली बार है कि एक आदिवासी कार्यकर्ता को अदालत ने मौत की सज़ा सुनाई है.

वारावारा राव ने कहा कि जीतेन मामले ने नाइजीरिया के एक आदिवासी कार्यकर्ता केन सारो विवा के मामले की याद ताज़ा कर दी है. केन ओगोनी जनजाति से संबंध रखते थे. उन्हें 1995 में फाँसी पर चढ़ा दिया गया.

आवाज़

केन एक पर्यावरण कार्यकर्ता थे, जो ब्रिटिश कंपनियों की ओर से उनके देश में पेट्रोल निकले जाने से उनकी जनजाति का जीवन नष्ट होने के विरुद्ध आवाज़ उठा रहे थे.

वारा वारा राव ने कहा कि जीतेन मरांडी को भी इसलिए सज़ा दी जा रही है कि वो खनन कंपनियों की ओर से झारखंड की जनजातियों के जीवन को नष्ट करने के ख़िलाफ़ आवाज़ उठा रहे हैं.

ये पूछने पर कि क्या उन्हें रांची उच्च न्यायालय से न्याय मिलने की उम्मीद नहीं है, वारावारा राव ने कहा कि यह एक राजनीतिक सज़ा है, इसलिए वो एक राजनीतिक अभियान चल रहे हैं.

उन्होंने कहा कि अभी वे अदालत के बारे में कुछ नहीं कहना चाहते, लेकिन वे यह भी नहीं भूल सकते कि इसी झारखंड की अदालत और उच्च न्यायालय ने डॉ. बिनायक सेन जैसे व्यक्ति को उम्र क़ैद की सज़ा सुनाई थी और सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद ही उन्हें रिहा किया गया.

जीतन मरांडी की फांसी विरोध में संथाली गीत

जीतन मरांडी जोनोम एनाय शोषण समाज ताला रे-२
हारा येनाय बुरू एनाय बाय सहाव लेद-२
हुदिस केदाय आड़ी लोगोन सब केदाय कलम कॉपी
लाहा येनाय समाज बोदोल सारी डहर ते
ओनोलिय जीतन मरांडी एनेच सेरेज जीतन मरांडी
तुमदः टामाक आड़ाङ ते दिशोम होड़े जागवेक् को!
प्रतिक्रियावादी होड़ पुलिस प्रशासन
जीतन मरांडी सुली फांसी तेकोसजा एदेकान
हुदिस आबोन झारखंडवासी लाहा तेबोन तड़ाम
लाइ तेबोन तड़ाम लाघया-२
कोर्ट कानून बाबोन मानाव रापुदाबोन फांसी बाबेर
जीतन मरांडी देबोन रिहाये-२

गीत का हिन्दी अर्थ

जीतन मरांडी शोषण समाज में जन्म लिया। पला ब़ढ़ा ज्ञान हुआ,
शोषण समाज देख उनसे सहा नहीं गया। और बहुत जल्द सोचा
और कॉपी-कलम पकड़ा। आगे बढ़ा, समाज बदलने की सच्ची राह पर।
लेखक जीतन मरांडी सांस्कृतिक कर्मी जीतन मरांडी
मंदर नगाड़ा की आवाज से देश की जनता को जगाया।
प्रतिक्रियावादी और पुलिस प्रशासन
जीतन मरांडी को फांसी की सजा दिया।
सोंचे हम झारखंडवासी आगे बढ़ें,
कोर्ट कानून नहीं मानेंगे, तोड़ेगें फांसी के फंदा
चलें जीतन मरांडी को रिहा करें।

मंगलवार, 22 नवंबर 2011

फांसी की दहलीज से मैं जीतन मरांडी बोल रहा हूं


जानिए! सच, संदेह, संदिग्ध और अदालत की कार्यवाही!

जरा सच की ओर चले और जानें चिलखारी कांड एवं चश्मदीद गवाहों की गवाही और कांड के उन दस अभियुक्तों की सच क्या है? मैं जीतन मरांडी! मेरा कोई उप नाम नहीं है। मतदाता पहचान पत्रा एवं राशन कार्ड में भी यही नाम अंकित है। ‘झारखंड एभेन’ द्वारा प्रस्तुत गीत कैसेटों में भी यही नाम सम्पर्क पता के साथ प्रकाशित किया गया है। स्व. बुधन मरांडी का पुत्रा हूँ। गाँव करन्दों थाना, जिला-स्थान-पीरटांड़ मेरा जन्म स्थान है। मैं गरीब किसान परिवार से आता हूँ। मेरे ऊपर गिरिडीह पुलिस ने कई नक्सली कांडों का जघन्य आरोप लगा चूकी है। जिसमें चिलखारी कांड मुख्य रूप से शामिल है। इसके अलावा और 6 मुकदमें हैं। इन सभी कांडों में मैं बिल्कूल निर्दोष हूँ। बहुचर्चित चिलखारी कांड किसी से छिपा हुआ नहीं है। फिर भी बता दूँ कि देवरी थाना के चिलखारी गांव के फूटबाल मैदान में 26 अक्टुबर 07 को एक समिति द्वारा संथाली आरकेस्ट्रा कार्यक्रम आयोजित की गईया था। जिसमें ढेर सारे आदिवासी लोग मौजूद थे। जिसका उद्घाटन नुनूलाल मरांडी ने किया। संथाली आरकेस्ट्रा कार्यक्रम का सिलसिला जारी थी। इसी बीच रात्रि करीब 12.30 बजे के आसपास नक्सलियों ने नुनूलाल मरांडी को मारने के ख्याल से हमला बोल दिया। (जिसका माओवादियों की घटना के बाद ही बयान आयी थी) पर नुनूलाल मरांडी को कुछ नहीं हुआ। लेकिन नक्सलियों की गोलीबारी में 18 लोग मारे गए। बाद में पीएमसीएच धनबाद में एक घायल महिला की मौत हुई। जिसमें मृत्यु की संख्या 19 हो गई थी और नुनूलाल मरांडी के अंगरक्षक पुरन किस्कू सहित नौ लोग घायल हो गए। देवरी पुलिस द्वारा वरीय पुलिस अधिकारियों के निर्देश पर कांड की अनुसंधान घायल पुरन किस्कू, नुनूलाल मरांडी के अंगरक्षक से 27 अक्टुबर 07 के भोर 3.30 बजे के आसपास घघटना स्थल में ही बयान से शुरू होती है। वह कांड का सूचक बन जाता है। उनके बयान के अनुसार देवरी थाना में 167/07 के तहत प्राथमिकी दर्ज की गईई। रमेश मंडल, चिरागजी, विशुन रजवार, कोल्हा यादव, जीतन, सुनील और अल्बर्ट इत्यादि को प्राथमिकी में नामजद अभियुक्त बनाया गया। इसके अलावा 35-40 अज्ञात नक्सलियों को भी अभियुक्त बनाया गया। किसी का भी पूरा पता अंकित नहीं है। आखिर पुरन किस्कू जाना कैसे इतने लोगों का नाम? यह बयान कम संदेहास्पद नहीं है। बाकी किसी भी लोगों से उस वक्त पुलिस ने बयान नहीं ली। इसका मतलब वहां पर कोई भी व्यक्ति नहीं होगा। आठ घायलों से भी वहाँ पर बयान नहीं लिया गया। पता नहीं वहाँ पर घायल लोग थे की नहीं कहना मुश्किल है। अगर वहां पर मौजूद होते तो बयान लिया गया होता। जबकि सच्चाई यह है कि सभी घघायलों के बयान सदर अस्पताल, गिरिडीह में लिये गये थे। यह मेरा चिलखारी कांड की सच्चाई को सामने लाने हेतु एक तर्क है।
29 अक्टूबर को पुलिस के अनुसंधान के क्रम में एक और संदिग्ध बयान होता है। 164 धारा के तहत न्यायिक मजिस्टेट श्री एस. के. सिंह अदालत, गिरिडीह में खूद को चश्मदीद गवाह कहने वाले रामचन्द्र ठाकुर (तीसरी), उदय साव (गावां), दिनेश ठाकुर (तीसरी), मोती साव (गावां), इन्द्रदेव राय (गावां), देवन मरांडी (गाँवा) को पुलिस ने लाकर बयान दिलवाया। इन लोगों ने भी वही नामों को दोहराया। साथ में मनोज रजवार, अनिल राम, छत्रापति मंडल आदि को जोड़ दिया गया। हो रहा था संथाली आरकेस्ट्रा का कार्यक्रम! लेकिन देवन मरांडी को छोड़कर कोई भी संथाली आदिवासी चश्मदीद गवाह बना नहीं। एक भी स्थानीय एवं आयोजन समिति के गवाह नहीं हैं! टेंट हाउस, साउंड बाक्स वाले एवं सांस्कृतिक कार्यक्रम पेश करने वाले कलाकारों का एक भी गवाह पुलिस की अनुसंधाान में नहीं आये! न बयान लिया गया है! क्या यह संदिग्ध मामला नहीं है? आगे और बताऊंगा! इन सभी गवाहों की बयान के बाद आप सभी प्रभात खबर की सुर्खी तस्वीर के साथ पढ़े होंगे! ‘हमलावर नक्सली जीतन मरांडी पहचाना गया।’ वह तस्वीर मेरा ही था! इसके बाद मैंने अपनी प्रतिक्रिया दिया। प्रभात खबर ने खेद प्रकट करते हुए बड़ी भूल के रूप में स्वीकारी थी! पुलिस प्रशासन के उच्च पदाधिकारियों ने कहा कि यह दूसरे जीतन मरांडी की तस्वीर है। स्पष्ट रूप से यह खंडन 31 अक्टुबर 2007 को ही अखबारों में आ चूका है। इस बीच पुलिस ने कांड के संदेह में दो दिनों के बाद ही अपने-अपने निवास स्थानों से मूंग किस्कू (पीरटांड़), टुपलाल यादव (सरिया), रामसहाय दास (देवरी), हाफिज रहमत अंसारी (देवरी), अनिल राम (गोबिन्दपुर-नवादा) को पकड़कर जेल भेज दिया। घटना से सभी अनजान हैं। इन लोगों से मेरी मुलाकाती जेल में हुई और जाना इन लोगों की निर्दोषता! इनलोगों की पुलिस डायरी चार्ज सीट जनवरी 08 में सब्मीट हुई। डायरी में गवाह उदय साव के अनुसार सुबोध साव और प्रहलाद सिंह (दोनों गावां) भी कार्यक्रम देख रहे थे। जबकि 167 के तहत दिया गया बयान में ऐसा नहीं था। इन दोनों के बयान के आधार पर कांड के अप्राथमिकी अभियुक्तों के रूप में मंगू किस्कू, टुपलाल यादव, रामसहाय दास, हाफीज रहमत और किशुन रजवार को जोड़ दिया गया।
जरा देखे फर्जी गवाही बनाने का प्रक्रिया! पुलिस की अनुसंधान जारी रहती है। अनुसंधान के क्रम में फरवरी 08 को मोतीराय (गावां) पतिराय (गावां) और सुखदेव मरांडी (तिसरी) से अनुसंधानकर्ता सुमन आनन ने बयान लिया। इन दोनों के बयान के आधार पर जीतन मरांडी यानि मैं और सीताराम तुरी (सोनोजमुई) का कांड में नाम जोड़ दिया गया। अभियुक्तों के साथ गवाहों को भी पुलिस बनाती गईई। इन गवाहों की बयानों का हवाला देते हुए बताया गया है कि कार्यक्रम में मौजूद थे और दोनों जीतन मरांडी को पहचानते हैं। एक करंदो के और दूसरा जीतन मरांडी टेसाफुली (मिमियाघाट) के। दोनों घघटना में शामिल था! यहाँ दो जीतन मरांडी सामने आया। यानि मैं और दूसरा कोईई और जीतन मरांडी! क्या यह बयान संदिग्ध नहीं है? इसी बीच 5 अप्रैल 08 को रांची से मेरी गिरफ्तारी हो जाती है। कोतवली थाना कांड सं. 696/07 के तहत 6 अप्रैल 08 को राँची जेल भेज दिया। आरोप था रोड जाम और भड़काऊ भाषण देने का। 12 अप्रैल, 08 को चिलखारी कांड यानी देवरी थाना कांड सं. 167/07 में गिरिडीह पुलिस रिमांड की। तब से आज तक जेल में हूँ। 17 अप्रैल 08 को उसी कांड में दस दिनों का पुलिस रिमांड में ले गई। पुछताछ के क्रम में मुझसे पुलिस को कोई सबुत नहीं मिली। क्योंकि मैं कुछ नहीं जानता। एक महीने के बाद सीताराम तुरी को भी पुलिस पकड़ कर जेल ले आती है। जिससे कुल मिलाकर अभियुक्तों की संख्या दस हो गईई। दूसरा पर की डायरी चार्जसीट जुलाई 2008 में सब्मीट किया गया। और पहला पर का डायरी चार्जसीट एवं खठ में अंकित धारा के तहत 1 जुलाई 2008 को और दूसरा पर का चार्जसीट के अनुसार 19 नवम्बर 2008 को केस चार्ज पर लगा। माननीय अदालत ने दोनों पर के डायरी चार्जसीट को मिला दिया और मुकदमा की प्रक्रिया एक साथ बढ़ने लगी।
बताना उचित होगा कि कोई और जीतन मरांडी के नाम पर दर्ज मुकदमां पुलिस ने मेरे उ$पर डाल दिया है। चिलखारी कांड के अलावा 18.6.08 को गावां थाना कांड संख्या - 56/99 और 54/2000 13 जनवरी 09 को पीरटांड़ थाना कांड संख्या- 42/03 और 9/04 मे रिमांड किया। पुलिस की तमाम केस डायरी बिल्कूल गोलमटोल ढंग से अदालत में पेश की है। जो बड़ी साजिश है। मैं चिलखारी कांड में जमानत के लिए उच्च न्यायालय गया। जिसका 16 अगस्त 08 को मेरी अर्जी को खारिज करते हुए निचली अदालत को मुकदमा निष्पादन हेतु आठ महीने का अवधि दिया। आज तक कई घटनाक्रम से हमें गुजरना पड़ा है।
जरा जानें क्या है घटनाक्रम की सच! 24 मार्च 09 को अदालत में हम लोग पेशी के लिए आये हुए थे। सेसन हाजत में तत्कालीन टाउन थाना प्रभारी उपेन्द्र कुमार सिंह आये। और सेसन हाजत प्रभारी गोपाल पांडेय के सहयोग से मुझे सामने बुलाकर कुछ बातचीत की। कुछ देर के बाद बाकी मियादी (केस पार्टनर) को छोड़कर केवल पेशी के लिए मुझको निकाला। गेट के बाहर कांड के फर्जी गवाहों के साथ उपेन्द्र सिंह भी खड़ा था। सभी गवाहों को इशारा करते हुए कहा- यही है जीतन मरांडी पहचानों! वे सभी लोग मेरे पीछे-पीछे अदालत तक गए और मुझको गौर से देखा। इस तरह गवाहों के बीच मेरा पहचान कराया गया। जिसका मैंने एतराज भी जताया था। उस दिन गवाहों की गवाही नहीं हुई। पुनः एक अप्रैल को तारीख रखा गया। उस दिन गवाह मोती साव और सुबोध साव की गवाही हुई। मोती साव ने मुझको पहचानते हुए कहा यही जीतन मरांडी घटना में शामिल था। जो गोली चला रहा था। उस दिन भी अदालत में उपस्थित थे टाउन थाना प्रभारी उपेन्द्र सिंह। फिर अप्रैल 09 से मेरा स्पेशल कोर्ट में पेशी शुरू कर दी। जेल से अकेला लाना और अदालत में पेशी करना पुलिस की बड़ी साजिश थी। सभी 30 गवाही पूरी होने के बाद हमारी पेशी सामान्य हो गई। कुल 30 गवाहों की गवाही हुई है। जिसमें कांड के सूचक एक, डाक्टर सात, अनुसंधानकर्ता दो, 164 का बयान देने वाले 6 ‘चश्मदीद’ गवाह, आठ घायलों की गवाही, पांच और चश्मदीद गवाहों की गवाही हुई है। इनमें से 164 के बयान देने वाले गवाहों ने मनोज रजवार, अनिल राम, छत्रापति मंडल के विरूद्ध भी अपनी गवाही दी है। बाकी गवाहों ने पहचान करने से इन्कार कर दिया। जिन मोती राय, पतिराय एवं सुखदेव मरांडी की बयान पर मुझे इस कांड में जोड़ा गया था उन लोगों ने अदालत में पुलिस के सामने बयान कभी दिया ही नहीं। मेरे विरूद्ध बयान देने वाले गवाहों ने घर, थाना एवं पिता का नाम नहीं बताया। तब सवाल उठता है कि मेरा सारा विवरण आखिर कौन बताया? अनुसंधानकर्ता ने तो गवाहों की बयान के आधार पर सारा तथ्यों को लिखा है ऐसा बताया गया। ऐसे में पुलिस की अनुसंधान ही संदिग्ध साबित होता है।
अब मैं इन गवाहों की ओर इशारा करना चाहता हूँ। इनका पिछला इतिहास क्या है? और वे किस हद से चश्मदीद गवाह है? जरा गौर किया जाए! रामचन्द्र ठाकुर, उदय साव, मोती साव कई नक्सली कांडों के नामजाद अभियुक्त हैं। साथ ही अनेक नक्सली कांडों एवं अपराधी वारदात में चश्मदीद गवाह बने हुए हैं। वह भी देवरी और तिसरी थाना अन्तर्गत घटीत घटनाओं में। यह मैं नहीं बल्कि खूद पुलिस अधीक्षक गिरिडीह ने सूचना का अधिकार कानून 2005 के तहत मांगे गए सूचना में दिए हैं। जिन कांडों के वे अभियुक्त है उनमें अदालत से फरारी वारंट तक हो चूकी है। इसके बाद भी उन्हें पुलिस की संरक्षण मिली हुआ है। ये तमाम सबुत अदालत में मौजूद है। यही तो है चिलखारी कांड की गवाहों का इतिहास और राजनेताओं, पुसिल प्रशासन की जघन्य साजिश। एक अपराधी को चश्मदीद गवाह बनाया गया है! यह सिर्फ इसलिए ताकि मुझे सजा मिल सके।
चिलखारी कांड के असली चश्मदीद गवाह के रूप में मैं पुरन किस्कू और सभी घायलों को मानता हूँ। क्योंकि उस कार्यक्रम में शामिल होने का प्रमाण नक्सलियों की गोली से घघायल होना है। जबकि बाकी गवाह कार्यक्रम का कोईई प्रमाण तक नहीं पेश कर पाए हैं। इससे प्रमाणित होता है कि गहरी साजिश के तहत गवाहों को बनाया गया है। यही है चिलखारी कांड की सच, संदेह और संदिग्ध मामला। अब देखना यह है कि सच्चाई की जीत होती है या झूठ की। बस अंत में आपसे अपील है कि न्याय के लिए आगे आवें और साथ दें क्योंकि सजा का हकदार मैं नहीं हूँ। मैं एक निर्दोष हूँ! संस्कृतिकर्मी एवं सामाजिक कार्यकर्ता हूँ।

जीतन मरांडी
दिनांक 1/3/2011
मंडल कारा, गिरिडीह

ज्ञापक 393 गिरिडीह दिनांक 2.3.11
प्रतिलिपि संपादक दैनिक जागरण कार्यालय पंचशील धैया धनवाद को बंदी जीतन मरांडी के द्वारा दिये गये आवेदन पत्रा का अग्रसार ।